Sunday, September 20, 2020

आवारा मसीहा: बहुत मेहनत से लिखी गई शरतचंद्र की जीवनी, जो आपकी पाठकीय क्षमता और नींद की परीक्षा लेती है

बांग्ला उपन्यासकार शरतचंद्र चटोपाध्याय की विष्णु प्रभाकर रचित जीवनी

विष्णु प्रभाकर (Vishnu Prabhakar) की लिखी हुई उपन्यासात्मक जीवनी 'आवारा मसीहा' (Awara Masiha) हिंदी साहित्य की ख्यात कृति है. इसका लगातार भारतीय छात्र/ छात्राओं के हिंदी प्रश्नपत्रों में बने रहना, पूर्वोक्त बात का प्रमाण है. यह पुस्तक बांग्ला के दिग्गज साहित्यकार शरतचंद्र चटोपाध्याय (Sarat Chandra Chattopadhyay) के बारे में विस्तार से जानकारी देती है.

इस किताब का लेखन जरूर बहुत श्रमसाध्य काम रहा होगा. दशकों तक विष्णु प्रभाकर इसके लिए रिसर्च में लगे रहे हैं. इस दौरान उन्होंने शरतचंद्र से अलग-अलग तरह से संबंध रखने वाले सैकड़ों लोगों का साक्षात्कार किया. शरतचंद्र के भागलपुर, कलकत्ता, रंगून और फिर सामता और कलकत्ता प्रवास के दौरान के जीवन को कई-कई सूत्रों से जानने और फिर उपलब्ध जानकारियों के सत्य का परीक्षण वे सालों तक बड़ी मेहनत से करते रहे. यह मेहनत किताब में प्रतिफलित भी होती है.

यह मेहनत ही है, जो विष्णु प्रभाकर से इस पुस्तक के शरतचंद्र के बारे में सबसे तथ्यपरक होने का दावा करवाती है. हालांकि किताब में पचास ऐसे मौके आते हैं, जब लेखक किसी वाकये का जिक्र करते हैं और फिर उसे खारिज करते हुए कहते हैं कि ऐसे कई अपवाद शरतचंद्र के बारे में प्रचलित हो गये थे. कई बार तो वे यह भी कहते हैं कि शरतचंद्र ने जानबूझकर ऐसे कई अपवाद अपने बारे में प्रचलित कर दिये थे.

बहरहाल शरतचंद्र के उत्तर काल के बारे में किताब जितनी तथ्यपरक है, उतनी उनके शुरुआती सालों के बारे में नहीं है. ऐसा जरूर उपलब्ध स्त्रोतों की गुणवत्ता के चलते हुआ होगा. वहीं इसलिए किताब की जरूर तारीफ की जानी चाहिए कि यह शरतचंद्र के बारे में हज़ारों किस्से सुनाती है, जिससे उनके जीवन में रुचि रखने वाला पाठक उनके व्यक्तित्व और लेखकीय गुणों के बारे में अपनी राय बना सके.

लेकिन एक समस्या भी इससे उत्पन्न हुई है. किताब में शरतचंद्र के बारे में ज्ञात-अज्ञात अधिकतम प्रकरणों को शामिल कर लेने के लेखक के मोह ने इसे कई जगहों पर बोझिल बना दिया है. इससे यह हुआ है कि किताब को पढ़ते हुए कई जगहों पर आपको यह भी लग सकता है कि यह किताब न सिर्फ आपकी पाठकीय क्षमता बल्कि नींद की परीक्षा भी ले रही है.

Thursday, August 20, 2020

FRIENDS: A Show that Has Some Flaws But Teaches a Lot to You Too

Friends Is One of The Most Watched Sitcoms in The World

I had been watching FRIENDS for almost one year. It was like a routine, like a custom for me. It is one kind of soap opera, in which you don't want to rush to the end, you enjoy the journey of it. You want to capture every moment of the lives of its characters. You relate to them. You laugh with them but there are lessons to learn too.


You do have a lot to learn from the characters of FRIENDS. They are so much original and true to themselves. They are knitted so simply that sometimes some can sound dumb or lame but it also gives some very good ideas about being innocent. They are innocent though passionate and loving. Many can argue that they are the true representation of the American Youths around two decades back but I must say that a lot of urban diaspora in the world can still relate with them.


It may seem that the characters of FRIENDS shy of taking big steps primarily but eventually they end up taking the most courageous steps for themselves, for their career and for their love. They know the value of the people around them. Though there is some fragileness in the early episodes considering relationships it gets improved over time.


I have some issues with the casting though. Over the course of the entire ten seasons, there is very little representation of BLACKs. There is no black main character in it. Though there are some powerful black side characters in the later seasons I should say that the show is mostly full of whites. There is a representation of the Jewish community, Gay community, and Italians as well but I should say that BLAKs are ignored compared to their original representation in the US.


Sometimes its characters crack some insensitive jokes about minority communities and at times it seems like a White peoples show but it includes many things over the course of time and tries to improve itself with these things. Though it has some issues that don't calculate so much that one can say that the show is not worth watching. It should be watched. When you watch it you know that it is made with a lot of love and a brilliant understanding of the urban youths' psyche. I loved it for a long time and now suggest it to those reading my review because as I said, It makes you more humane and teaches you some lessons you may find tough to decide in your normal lives.

Tuesday, July 14, 2020

Brave New World: सोचने-समझने की आजादी के बिना सबसे संपन्न दुनिया भी एक जेल से ज्यादा कुछ नहीं

Brave New World किताब के अलग-अलग दौर के कवर
आज दुनिया की तरक्की मापने के आधार क्या हैं? आर्थिक तरक्की, मानसिक शांति, स्थायी व्यवस्था, उन्नत टेक्नोलॉजी और अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं. लेकिन क्या आजादी के बिना इनका कोई मोल है? सही मायनों में आजादी, जिसमें सोचने के लिए/ कल्पना करने के लिए/ महत्वाकांक्षाएं रख सकने की सीमाएं अथाह हों. क्या उस सही मायनों वाली आजादी के बिना इन सभी आधुनिक पैमानों का कोई मूल्य है. इसी की पड़ताल करती है ब्रिटिश लेखक एल्डस हक्सले की किताब 'ब्रेव न्यू वर्ल्ड'.

हमारे आधुनिक राष्ट्र-राज्यों की महत्वाकांक्षा जिस दुनिया में पूरी हो चुकी है. जिस दुनिया में देशभक्तों की अपने देश को अभेद्य, सबसे ताकतवर, शक्तिशाली और स्थिर बनाने जैसी कल्पनाएं साकार हो चुकी हैं. राज्य ने अपने नागरिकों के जीन, सेक्सुएलिटी, विचारों और कल्याण के उपायों में इतनी स्थिरता ला दी है कि 'अगर ऐसा हुआ तो क्या करेंगे' जैसी छोटी-बड़ी सभी चिंताएं सुलझाई जा चुकी हैं. कोई डर, कोई असुरक्षा कहीं मौजूद नहीं है. कलाओं का नया उत्कर्ष है. सच्ची परफेक्टनेस अचीव हो चुकी है. गायन, वादन सहित कला का हर रूप, हर तरह से दोषहीन है. इसकी वजह यह है कि ये कलाएं गलतियों के पुतले मनुष्य के दिमाग की उपज न होकर बेहतरीन मशीनों/ रोबोट्स की उत्पाद हैं.

लेकिन ऐसी परफेक्ट दुनिया में भी एक आदमी के मन में थोड़ी सी असंतुष्टि और जिज्ञासा क्या पनपती है कि इस निष्कलंक दुनिया का संतुलन ही बिगड़ जाता है. लगभग खात्मे की कगार पर हमारे-आपके जैसे अपूर्ण इंसानों को इसी दुनिया के एक अलग हिस्से में म्यूजियम जैसी व्यवस्था में रखा गया है और हमपर असभ्यता का टैग लगा, प्रयोग किए जाते हैं. फिर ब्रेव न्यू वर्ल्ड के चंद असंतुष्ट शख्सों में से एक हम असभ्यों की खोज में रिसर्च का बहाना करके असभ्यों के म्यूजियम आता है और ब्रेव न्यू वर्ल्ड की ही एक पुरानी स्त्री जो कभी यहां आई थी और परिस्थितियोंवश यहीं फंस गई को खोज निकालता है. वह उसे और उसके बेटे को जब वह वापस लेकर जाता है तो न सिर्फ ब्रेव न्यू वर्ल्ड को बनाने में लगी अमानवीयता का पर्दाफाश हो जाता है बल्कि इसे चलाने वालों के धूर्त चेहरे भी सामने आ जाते हैं.

1932 में प्रकाशित इस उपन्यास में वर्तमान लक्षणों वाले लोकतंत्रों के चरित्र की गहन पड़ताल है. शक्तिशाली नेताओं के सामने किसी समाज के अपने विचारों, भावनाओं का समर्पण कर देने के बाद का राष्ट्र-राज्यों का स्वरूप है. मीडियोक्रिटी का चरमोत्कर्ष है और एक नशा है, जिसके बिना किसी व्यवस्था को अद्वितीय, सर्वश्रेष्ठ साबित करने का प्रयास मुमकिन नहीं हो सकता. कार्ल मार्क्स कुछ लोगों के लिए यह नशा धर्म को बताते थे, आजकल कहा जा रहा है कि झूठा राष्ट्रवाद नशा है, हो सकता है कहीं व्यापार प्रगति-आर्थिक उत्कर्ष ऐसा नशा हो. ब्रेव न्यू वर्ल्ड का संदेश है कि वह नशा कोई न कोई होता ही है, ब्रेव न्यू वर्ल्ड में यह नशा टेक्नोलॉजी और एक सीधे नशे 'सोमा' टेबलेट का है. जो किसी नागरिक को दुख का एहसास ही नहीं होने देती.

यह किताब 'ब्रेव न्यू वर्ल्ड' संदेश देती है कि चाहे जो हो लेकिन व्यक्ति और समाज में महत्वपूर्ण कौन के जवाब में अगर समाज कहा जाता रहेगा तो सरकारें निश्चय ही इसका फायदा उठायेंगीं. भला तभी होगा जब ऐसी कोई प्रतिस्पर्धा ही न हो और हर बात पर व्यक्ति या समाज को महत्वपूर्ण बताने के बजाए ऐसे समाज का निर्माण किया जाये, जिसमें व्यक्ति को तब तक हर तरह के व्यक्तिगत काम की आजादी हो, जब तक वह अन्य के लिए हानिकारक न हो.

Friday, July 10, 2020

HUSH: एक बेहतरीन हॉरर फिल्म है, जो डराती नहीं मजबूती देती है

फिल्म 'हश' (HUSH) का एक सीन...
2016 में रिलीज डायरेक्टर माइक फ्लैंगन की फिल्म हश की कहानी दो वाक्यों में यूं बताई जा सकती है- एक सूनसान इलाके में अकेले रहने वाली महिला के घर पर उसकी हत्या के इरादे से एक मास्क पहने आदमी हमला कर देता है. यह अज्ञात वहशी हत्यारा 'क्रॉसबो' (Crossbow- एक तरह का ऑटोमैटिक धनुष) से लैस है.

कहने को फिल्म की कहानी एमिटीविले हॉरर की घटना पर आधारित है. लेकिन फिल्म को सिर्फ एक हॉरर फिल्म की निगाह से देखने पर हो सकता है कि फिल्म की कुछ बारीक रीडिंग्स छूट जायें.

ध्यान देना होगा कि माइक फ्लैंगन की यह कोई पहली या आखिरी फिल्म नहीं है, जिसके केंद्र में एक महिला है. ऐसा उनकी ज्यादातर फिल्मों में है. सिर्फ महिला किरदार ही नहीं बल्कि महिला, वही भी अनोखे तरह की परिस्थितियों की शिकार. और माइक फ्लैंगन इन महिला किरदारों को रचने वाले जीनियस हैं.

हश एक नितांत अकेली महिला की कहानी है, जो गूंगी-बहरी है. प्रेम जीवन में भी असफल है. आस-पास के इलाके में वह सिर्फ एक महिला को जानती है. होता यूं है कि इस महिला का कत्ल भी उसे मारने आया हत्यारा, उसके पास ही कर देता है. और उसे सुन न पाने के चलते पता भी नहीं चलता. रात के अंधेरे में सुनसान जंगलों के बीच में अकेली रहती इस गूंगी-बहरी महिला का शिकार अब कितना आसान होगा?

इस पर ध्यान दें कि वह हत्यारा महिला को मारने नहीं आया है, उसका शिकार करने आया है. हत्या एक त्वरित क्रिया है, जिसमें एक झटके में इंसान मौत के घाट उतार दिया जाता है. कई बार हत्या की प्रक्रिया आवेश, गुस्से और बदले जैसी भावनाओं से प्रेरित होती है. लेकिन शिकार का एक मात्र उद्देश्य आनंद के लिए मारना होता है. शिकारी को धीरे-धीरे अपने शिकार को मारने से खुशी मिलती है. इस फिल्म में मौजूद हत्यारा वैसा ही है.

दरअसल यह एक हॉरर फिल्म के प्लॉट के साथ ही समाज के एक डरावने सच- पैट्रियार्की यानि पितृसत्ता का भी पोट्रेयल है. यह महिला जब तक घर में 'अकेली' है तभी तक सुरक्षित है. घर से जैसे ही वह बाहर कदम रखती है अनंत डरों से घिर जाती है. घर के बाहर भी वह तभी तक सुरक्षित है, जब तक वह प्लेटफॉर्म के नीचे छिपी हुई है, अज्ञात है. लेकिन हर समय शिकारी (पढ़ें पितृसत्ता) उसे खोज रहा है.

महिला जिस-जिस तरह से अपनी सहायता के लिए प्रयास करती है, चतुराई से उसे खत्म कर दिया जाता है. इसमें सबसे जरूरी है उसके बाहरी दुनिया से संपर्क के तरीकों को खत्म कर देना. इस शिकार में महिला को असहाय करना पहला और सबसे जरूरी कदम है. उसे चुप कराना प्राथमिकता है. उसकी सहायता में अगर कोई पुरुष भी खड़ा होता है, तो शिकारी (पितृसत्ता) उसे मिटा देती है. अगर ऐसा नहीं होता, तो फिल्म का नाम 'HUSH' क्यों होता.

महिला को लगातार चोट और मानसिक यंत्रणा देते हुए शिकारी (पैट्रियार्की) उसके दिमाग में यह स्थिति साफ कर देना चाहती है कि बाहर निकली तो मौत से उसे बचाया नहीं जा सकता है. महिला को खुद भी पता है कि लंबे समय के ट्रॉमा और चोटों ने उसे इस लायक छोड़ा ही नहीं है कि वह शिकारी (पैट्रियार्की) से अपनी जान बचा सके. ऐसे में उससे बचने का तरीका, उससे भागना कतई नहीं है. उससे बचने का तरीका सिर्फ उसका सामना करना है.

उत्साहित, मजबूत और अपने पुराने-घटिया शस्त्र (शस्त्र, जिन्हें शिकारी मानसिकता का पुरुष ही चला सकता है) से लैस शिकारी के मुकाबले, अपनी जान बचाती महिला का खुद पर विश्वास ही उसकी सबसे बड़ी ताकत और हथियार है.

(फिल्म नेटफ्लिक्स पर मौजूद है)

Tuesday, July 7, 2020

अखुनी: महानगर में नॉर्थ-ईस्ट के रहने वालों के संघर्ष को बारीकी से दिखाने वाली फिल्म

फिल्म 'अखुनी' का पोस्टर
फिल्म 'अखुनी' का पोस्टर

कुछ फिल्में इतनी ठोंक-बजाकर बनी होती हैं कि वे न सिर्फ दर्शकों के लिए बेहतरीन होती हैं बल्कि फिल्म के जानकारों को भी निराश नहीं करती. ऐसी ही एक फिल्म है नेटफ्लिक्स (Netflix) रिलीज 'अखुनी' (Axone). यह फिल्म एक नागा पकवान 'अखुनी' को केंद्र में रखकर नॉर्थ-ईस्ट के लोगों के दिल्ली जैसे महानगरों में संघर्ष और उससे जन्मे संक्रमण की दास्तान  सुनाती है. लेकिन जो बात दिल जीतती है, वह है इसकी परतें. अखुनी नॉर्थ-ईस्ट को लेकर मैदानी पूर्वाग्रहों, जैसे- सारे नॉर्थ-ईस्ट वाले एक जैसे ही होते हैं, खाने के नाम पर कुछ भी खा लेते हैं, लड़कियों की सेक्सुएलिटी, रीति-रिवाज आदि को लेकर न सिर्फ मुखर है बल्कि "हम सबकी शक्लें एक जैसी ही होती हैं तो तुम पहचानते कैसे हो कि रोज नया कोई आता है" जैसे संवादों से नस्लभेदी टिप्पणियों का मुंहतोड़ जवाब भी देती है.

फिल्म के एक सीन में कई सारे किरदार एक जगह इकट्ठे होकर अलग-अलग भाषाओं में अपने-अपने दोस्तों से बात करते हैं. आपस में किरदारों में ही अलग-अलग क्षेत्रों से आने के चलते भी भेदभाव देखने को मिलता है लेकिन फिर भी आसपास के इलाके से आने वाला भाव उन्हें दिल्ली जैसे अनजान शहर में एक-दूसरे के करीब रखता है. फिल्म की खासियत यह है कि ये बारीकियां भी उसने मिस नहीं की है यानि शॉवेनिज्म के बजाए फिल्म का फोकस यथार्थ को दर्शाने पर है. इसी क्रम में फिल्म की प्रमुख किरदारों में से एक अपने बॉयफ्रेंड से कहती है, "तुमने यहां पर भी अपना मिनी नागालैंड बना रखा है. तुमने और किसी से दोस्ती ही नहीं की."

उत्तर भारतीयों के साथ नॉर्थ-ईस्ट के लोगों का संवाद, लगातार बहिष्करण और भेदभाव झेलने से, वहां के कई प्रवासियों में पैदा हो जाने वाले मानसिक रोगों की चर्चा भी फिल्म में प्रमुखता से है. दिल्ली का लैंडलॉर्ड-लैंडलेडी कल्चर पहले से ही कम नहीं होता, और उसमें अगर नॉर्थ-ईस्ट से आने के चलते भेदभाव का तड़का भी लग जाये, तब तो हो गया करेला, नीम चढ़ा. कई छोटे-छोटे डिस्क्रिमिनेशन, स्टीरियोटाइप को फिल्म में बारीकी से दिखाने की कोशिश हुई है, आखिर ऐसा न होता तो बिना किसी संवाद के सिर्फ हुक्का गुड़गुड़ाते दिखने वाले आदिल हुसैन का फिल्म में क्या ही काम होता?

Saturday, July 4, 2020

कर्फ्यूड नाइट: एक लंबी काली सुरंग, जिसकी जमीन लाशों और खून से पटी हुई है

बशारत पीर की किताब कश्मीर में 1990 के दशक में आतंकवाद के उभार के बाद के ज्यादातर किस्से बताती है...
त्रासदी के किस्से सुनकर आगे बढ़ा जा सकता है. इस बात पर हामी भर फिर अपने काम में लगा जा सकता है कि फिलिस्तीन, सीरिया, या यमन में हालात बहुत खराब हैं. लेकिन अगर यह त्रासदी का डॉक्यूमेंटेशन एक मुकम्मल किताब की शक्ल में हमारे सामने हो और वह भी एक ऐसी काली डरावनी सुरंग की तरह, जिसमें लाशें ही लाशें पड़ी हैं और हमें कई दिनों के सफर में उससे होकर गुजरना है तो इस सुरंग का एक स्थायी प्रभाव दिमाग पर रह जाता है. ऐसा ही है बशारत पीर की किताब कर्फ्यूड नाइट को पढ़ने का अनुभव.

कश्मीर पर लिखी ज्यादातर किताबों में उसके इतिहास से जुड़ी बातें हैं. आतंकवाद के उभार के दौर का जिक्र है. वाजपेयी और अब्दुल्ला के किस्से हैं. मुफ्ती और अलगाववादियों की पॉलिटिक्स का जिक्र है. पाकिस्तान में लड़ाके बनने की ट्रेनिंग लेने जा रहे लड़कों का जिक्र है. भारतीय सेना और अर्धसैनिक बलों की लंबी तैनाती से आए सामाजिक परिवर्तनों का जिक्र है और गायब हुए-मारे गए कश्मीरियों के आंकड़ों का जिक्र है. लेकिन जिस तरह से कर्फ्यूड नाइट में कश्मीर में हुई मौतों के ये आंकड़े किस्से-कहानियों में बदलते हैं, कल्पनाशील पाठक केवल कश्मीर के माहौल की कल्पना कर सहम जाता है.

पहले एक संस्मरण और बाद में रिपोर्टिंग के तौर पर लिखी गई इस किताब में कश्मीर त्रासदी पर एक कश्मीरी का नजरिया उभर कर सामने आता है. यह भी पता चलता है कि जैसे अक्सर कश्मीर के हालात को बाकी देश कश्मीर समस्या कहकर पुकारता है और इस समस्या के समाधान की संभावनाएं तलाशता है या कम से कम कल्पना कर खुश होता है. वहीं कश्मीरी लेखक बशारत पीर इसे एक त्रासदी के तौर पर सामने रखते हैं, जिसमें समस्या जैसी कोई बात नहीं, जहां से वापसी संभव हो सके बल्कि बात है त्रासदी की, जिसमें जो बुरा होना था वह हो चुका है और अब वह कई पीढ़ियों पर अपना असर बनाए रखने वाला है.

किताब विस्तार से पाकिस्तान के रिमोट कंट्रोल से संचालित होने वाले कश्मीरी युवाओं, सेना की ज्यादतियों, सैनिकों-अर्धसैनिकों के रेप के अपराध, कश्मीरियों के निहित स्वार्थ के व्यवहार, कश्मीरियों के हित के नाम पर उन्हें खुद से और दूर करने की नीति आदि के बारे में खुलकर बात करती है. लेकिन एक सोचने वाली बात यह भी है कि ये सारे दिल दहलाने वाले किस्से, ये सारी ज्यादतियां सामने रखने, कहने की छूट उन्हें इसी देश में मिली. इतना ही नहीं किताब को पुरस्कृत भी किया गया. देश के बेहतरीन डायरेक्टर में से एक ने कश्मीर पर बनी अपनी फिल्म के लिए उससे प्रेरणा ली. और वह यहां की शिक्षा ही थी, जिसके बल पर दुनिया भर के बेहतरीन समाचार संस्थानों में काम करने और NYT में ओपिनियन एडिटर के तौर पर काम कर रहे हैं. त्रासदी के स्तर पर चीजों के खराब होने के बावजूद यह एक कश्मीरियों के दुख, उनकी पीड़ा का ख्याल और चिंता इस देश में अब भी है.

Friday, July 3, 2020

सुपर डीलक्स: बड़ी सफाई से 'गागर में सागर' भरने वाली फिल्म

त्यागराजन कुमारराजा की फिल्म सुपर डीलक्स (Super Deluxe) का एक पोस्टर

एक ही फिल्म में दर्शन, पॉर्न, सेक्सुएलिटी, सेक्स, मैरिज इंस्टीट्यूशन, पुलिस ब्रुटैलिटी, किशोरावस्था की भावनाएं, कई दिमागी स्थितियों की जटिलताओं और एक्सट्रा मैरिटल अफेयर्स सभी कुछ समेट लेना हो सकता है नामुमकिन हो या लगे कि ऐसा किया गया तो फिल्म की जगह एक त्रासद मजाक बनकर रह जायेगा लेकिन त्यागराजन कुमारराजा (Thiagarajan Kumararaja) की फिल्म सुपर डीलक्स (Super Deluxe) आपके इस भ्रम को तोड़ देगी. खासकर फिल्म तब और ज्यादा बड़ी हो जाती है, जब वह इन सारे मुद्दों से एक हल्के-फुल्के मूड में लेकिन बेहद संजीदगी से निपटती है.

हाल में पात्रों के इंडीविजुअली डेवलप होने और एक-दूसरे को इंटरसेक्ट करते हुए स्टोरी को आगे बढ़ाने के पैटर्न को आपने बहुत सी फिल्मों में देखा होगा. यह नए तरह की स्क्रिप्ट राइटिंग सॉफ्टवेयर्स के दौर में एक जरूरत बन चुका है. लेकिन ऐसा विरले दिखता है कि कहानी की शुरुआत या मध्य में किरदारों का ये इंटरसेक्शन न होकर कहानी को खत्म करने के लिए चक्रीय क्रम में किरदार एक दूसरे को इंटरसेक्ट करें और इसके साथ ही न सिर्फ फिल्म कंन्क्लूड हो जाये बल्कि उससे एक वृहत्तर अर्थ भी निकलकर सामने आए. जैसे धर्मवीर भारती के सूरज का सातवां घोड़ा उपन्यास में होता है.

Thursday, July 2, 2020

क्यों फिल्म 'बुलबुल' तर्क से परे जाकर जरूर देखे जाने के लिए बनी है?

नेटफ्लिक्स फिल्म 'बुलबुल' के एक सीन में तृप्ति डिमरी
हम सबके आसपास के परिवेश में कुछ किस्से होते हैं, जो आख्यानों की शक्ल ले लेते हैं. मैं जिस स्कूल में पढ़ता था, उसके ड्रेसकोड में टाई शामिल नहीं थी. उस इलाके के नामी-गिरामी सरकारी स्कूल में इसे लेकर एक किस्सा सुनाया जाता था- पहले इस स्कूल में टाई ड्रेसकोड में शामिल थी. लेकिन करीब 10 साल पहले कुछ स्टूडेंट्स ने मिलकर एक सहपाठी को स्कूल बिल्डिंग के पीछे निर्माण के बाद निकली रह गई सरिया में टाई से लटकाकर फांसी दे दी थी. बस इसके बाद से स्कूल में टाई बैन कर दी गई. मैं उन चंद लोगों में था, जिन्होंने इसे वैरिफाई करना चाहा था. इसलिए मैं 10 साल पहले उसी स्कूल से पासआउट एक शख्स से यह पूछने गया. उसने कहा कि ऐसा कुछ नहीं है और यह 10 साल हमेशा दस साल ही रहे हैं, मैंने भी अपने बैच में यह कहानी 10 साल पहले के लिए ही सुनी थी. मेरे यह लिखने का मतलब यह नहीं कि किंवदंतियों का काल नहीं हो सकता, हो सकता है उनका स्पष्ट देशकाल हो लेकिन उनमें कभी परफेक्शन नहीं खोजा जा सकता. उनकी डिटेलिंग नहीं पाई जा सकती. उनमें कार्यकारण संबंध खोजने पर उनका जादू मरता है.

ऐसी ही एक किंवदंती पर बनी फिल्म है, बुलबुल. इसमें चुड़ैल/ देवी है. लेकिन वह गोली से मर सकती है. वह आग में जल सकती है. ऐसे में फिल्म में आप बंगाली परिवेश की ऑथेंटिसिटी खोजने में फिल्म के केंद्रीय तत्व से भटक जायेंगे. आप सवाल नहीं कर सकते एक किंवदंति से. आप सिर्फ उसका आनंद ले सकते हैं. जब आप ऐसे किस्सों पर सवाल उठायेंगे तो भले ही आप यथार्थ पर कुछ सटीक पा जायेंगे लेकिन कहानी का जादू मर जायेगा. ऐसी कहानियां कार्य-कारण संबंध स्थापित करने के उद्देश्य से ही सुनाई जाती हैं. अब आपको यह ध्यान देना है कि वे इस उद्देश्य को पूरा कर रही हैं या नहीं. तो बुलबुल का उद्देश्य है कि पितृसत्ता के अत्याचार से उपजी एक भयानक कहानी सुनाई जाये और समाज में ऐसे बर्ताव के प्रति डर बिठाने के लिए चुड़ैल/ देवी के रूप में एक दिमाग पर स्पष्ट छप जाने वाला चरित्र तैयार किया जाये. यह भी संदेश है कि एक हद के बाद अत्याचार ही आशीर्वाद का रूप ले लेता है. ऐसे में फोकस सिर्फ दो बातों पर रह जाता है कि फिल्म के स्क्रीनप्ले में प्रवाह/ डायलॉग्स में रोचकता है या नहीं और दूसरा कि उसे अच्छे से कैमरे के जरिए दर्शाया गया है या नहीं.

इन दोनों ही मामलों में बुलबुल एक सफल फिल्म है. आप बहुत ज्यादा कंफ्यूज नहीं होते, इसे देखते हुए. जबकि फिल्म कई बार फ्लैशबैक में चलती है. इसके अलावा फिल्म के लाल शेड्स मनमोहक हैं और अपना डर और एक निश्चित संदेश देने का काम बखूबी करते हैं. पितृसत्ता के अहसास को डायलॉग्स और लोगों के हाव-भाव से जैसे लगातार केंद्रीय विचार के तौर पर रखा गया है, पूरी फिल्म पर लगातार की गई मेहनत को दिखाता है. चाहे वह 'छोटे ठाकुर- बड़े ठाकुर' का संबोधन हो, "अब हम आ गये हैं, आप आराम कीजिये", "ठकुराइन ही रहिए, ठाकुर बनने की कोशिश मत कीजिये" या "ठाकुर के घर शादी हुई है, सब मिलेगा...".

वहीं कैमरे से भी कोई असंतुष्टि नहीं होती. ग्राफिक तो बेहतरीन हैं, खासकर ओपनिंग ग्राफिक, जिसमें पूरी कहानी सम-अप की गई है. आपको इस क्रेडिट ग्राफिक को रीविजिट करना चाहिए, आपको आनंद मिलेगा.

तृप्ति डिमरी और अविनाश तिवारी की यह लैला-मजनूं के बाद दूसरी फिल्म है. लेकिन जहां लैला-मजनूं में अविनाश छाए रहे थे, इस फिल्म में तृप्ति डिमरी छाई रहती हैं. अन्य कलाकारों को पहले भी आजमाया गया है और वे बेहतरीन रहे हैं.

Tuesday, May 5, 2020

शेखर कपूर की फिल्म Bandit Queen पर अरुंधति राय के आलोचनात्मक लेख The great Indian Rape-Trick I का हिंदी अनुवाद

बैंडिट क्वीन में शेखर कपूर ने कई थिएटर कलाकारों को एक्टिंग का मौका दिया, जो आगे इंडस्ट्री में बड़े नाम बने (फोटोः फर्स्टपोस्ट हिंदी)

महान भारतीय बलात्कार छल- 1


दिल्ली में बैंडिट क्वीन की प्रीमियर स्क्रीनिंग पर शेखर कपूर ने इन शब्दों के साथ फिल्म का परिचय दिया, मेरे पास सच और सौंदर्य के बीच एक चुनाव था. मैंने सच को चुना, क्योंकि सच पवित्र है.

इस बात पर जोर देना कि फिल्म सच बताती है ही उनके लिये सबसे बड़ी कॉमर्शियल और क्रिटिकल महत्व रखता है. बार-बार इंटरव्यू में, रिव्यू में और यहां तक कि फिल्म की शुरुआत में लिखा हुआ, 'यह एक सत्यकथा है' हमें यह भरोसा दिलाया जाता है.

अगर यह 'सच' नहीं होती. तो इसे उसी रेप और बदला थीम के क्लासिक वर्जन वाली चक्की से क्या बचाता जिसे हमेशा गाहे-बगाहे हमारी फिल्म इंडस्ट्री मथती रहती है. तो इसे इस सुपरिचित आरोप कि यह भारत को सही तरह से चित्रित नहीं किया गया है? वाकई कुछ भी नहीं.

यह 'सच' ही है जो इसे बचाता है. हर बार, जब यह स्विस चाकू लेकर सुपरमैन की तरह गोते लगाती है- और फिल्म को बेकार, नीरसता के जबड़े से खींच निकालती है. इसने सुर्खियां बनाईं. मुंहफट तर्क खींचे. और गहन आलोचना भी.

अगर आप कहें कि आपने फिल्म को बेमज़ा पाया, आपको बताया जायेगा- खैर ऐसा ही सच भी होता है- बेमजा. जोड़-तोड़ से भरा? ऐसी ही जिंदगी है- जोड़-तोड़ वाली.

यह ट्रकों के पीछे लिखे ऐसे ही डायलॉग जैसा कुछ-कुछ है -

प्यार ही ईश्वर है
जीवन कठिन है
सच ही पवित्र है
हॉर्न बजायें

चाहे हो या न हो सच और ज्यादा प्रासंगिक नहीं रह गया है. मसला यह है कि यह (अगर यह पहले से ही नहीं हो चुका है) - सच बन जायेगा.

फूलन देवी, एक औरत का महत्वपूर्ण होना खत्म हो चुका है. (हां यह भले ही सच है कि वह मौजूद है. उसकी आंखें हैं, कान हैं, अंग और बाल आदि हैं. बल्कि अब एक पता भी) लेकिन वह एक लीजेंड होने के शाप से ग्रसित हैं. वह केवल अपना एक वर्जन भर हैं. यहां उनके दूसरे वर्जन भी हैं जो कि ध्यान खींचने के लिये झगड़ रहे हैं. खासकर शेखर कपूर की एक सच्ची कथा. जिसपर फिलहाल हमें यकीन करने के लिये काफी जोर दिया जा रहा है.

डेरेक मैल्कम, द गार्डियन अख़बार में लिखते हैं, यह एक ऐसी कहानी है, जो अगर कोई फिक्शन का टुकड़ा होती, तो इसे क्रेडिट देना कठिन हो जाता कि यह फूलन देवी की असली कहानी है जो भारतीय बाल विवाहित है.

लेकिन क्या ऐसा है? यह सत्यकथा है? कोई कैसे यह तय करेगा? कौन तय करेगा?

शेखर कपूर कहते हैं कि फिल्म माला सेन की किताब - इंडिया की बैंडिट क्वीन : फूलन देवी की सच्ची कहानी (इंडियाज बैंडिट क्वीन : द ट्रू स्टोरी ऑफ फूलन देवी). किताब कहानी को पुनर्गठित करती है, इंटरव्यू के जरिये, न्यूजपेपर रिपोर्ट्स के जरिए, फूलन देवी से मुलाकातों के जरिए और फूलन देवी के लिखित वर्णन से लिए उद्धरणों के जरिए, जो कि जेल से उनसे मिलने जाने वालों ने तस्करी किये थे, हालांकि एक वक्त में कुछ एक पेज कर-करके ही.

कभी-कभी एक ही वाकये के कई सारे वर्जन - वर्जन जो एक-दूसरे से सीधे टकराते हैं जैसे फूलन का वर्जन, एक पत्रकार का वर्जन, और एक चश्मदीद गवाह का वर्जन - जिन सभी को किताब में पाठकों के लिए प्रस्तुत किया गया है. इससे जो उभरता है वह एक जटिल, बुद्धिमान और इंसानी किताब है. अस्पष्टता, चिंता और उत्सुकता से भरी कि जिस औरत को फूलन देवी कहा जाता है, वह असलियत में है क्या.

शेखर कपूर जिज्ञासु नहीं थे.

उन्होंने खुले तौर पर स्वीकार किया था कि उन्हें महसूस नहीं हुआ कि उन्हें फूलन से मिलने की जरूरत है.  उनके प्रोड्यूसर बॉबी बेदी इस फैसले का समर्थन करते हैं,  "शेखर उससे मिला होता अगर उसे इसकी जरूरत महसूस हुई होती." (संडे ऑब्जर्वर, 20 अगस्त, 1944)

जारी...

लेख के बारे में-

22 अगस्त 1994 को लिखा गया अरुंधति राय का लेख The Great Indian Rape-Trick I, शेखर कपूर की फिल्म बैंडिट क्वीन की मानवतावादी (न कि सिर्फ नारीवादी) दृष्टिकोण से फिल्म की आलोचना है. पॉपुलर आयामों में, खासकर कला को एक प्रॉडक्ट की शक्ल देते हुए, हो जाने वाली गलतियों को यह उजागर करता है.

अनुवाद के बारे में- 

करीब 2 साल से इस अनुवाद को पूरा करने की इच्छा थी ताकि हिंदी के पाठक जो अक्सर शेखर कपूर की इस फिल्म को लेकर कई वजहों से लहालोट रहते हैं, इसकी कमियों को भी बारीकी से समझें.

(नोट: इस बड़े लेख का कई हिस्सों में अनुवाद कर रहा हूं. इससे पहले किए किताबों के अनुवाद आप इससे पहले के ब्लॉग में पढ़ सकते हैं. आप मेरे लगातार लिखने वाले दिनों को ब्लॉग के होमपेज पर [सिर्फ डेस्कटॉप और टैब वर्जन में ] दाहिनी ओर सबसे ऊपर देख सकते हैं.)

Monday, May 4, 2020

Benedict Anderson की किताब Imagined Communities का संक्षिप्त अनुवाद: अफ्रीकी-एशियाई बुद्धिजीवियों ने अपने स्वतंत्र देशों के लिए यूरोपीय विचारों-औपनिवेशिक अनुभवों से ली प्रेरणा

अफ्रीकी-एशियाई बुद्धिजीवियों ने यूरोपीय विचारों और औपनिवेशिक अनुभवों से सीख अपने स्वतंत्र देश का निर्माण किया

अफ्रीकी-एशियाई बुद्धिजीवी अपने स्वतंत्र राष्ट्र बनाने के लिए यूरोपीय विचारों और औपनिवेशिक शासन के अपने अनुभवों पर आगे बढ़े

प्रथम विश्व युद्ध ने यूरोप के बहुराष्ट्रीय साम्राज्यों को मार दिया. 1922 तक, ऑस्ट्रो-हंगेरियन, रूसी और ऑटोमन साम्राज्य खत्म हो चुके थे. महाद्वीप पर, उन्हें नए स्वतंत्र राष्ट्रों ने प्रतिस्थापित कर दिया था. लीग ऑफ नेशंस, एक ऐसा संगठन, जिसने इस तरह के राष्ट्रों को नये अंतरराष्ट्रीय मानदंड के तौर पर देखा, अब राजनयिक संबंधों की जिम्मेदारी ले चुका था, जिसे पहले साम्राज्यवादी नौकरशाही संभाला करती थी. हालांकि इसमें गैर-यूरोपीय दुनिया शामिल नहीं थी. राष्ट्रवाद के युग में यूरोपीय साम्राज्यों के उपनिवेशों का क्या होगा?

इसका कोई उत्तर सामने आने में देर नहीं लगी.

इस अंक का मुख्य उद्देश्य है- अफ्रीका और एशियाई बुद्धिजीवी अपने स्वतंत्र राष्ट्र बनाने के लिए यूरोपीय विचारों और औपनिवेशिक शासन के अपने अनुभवों पर आगे बढ़े.

तीन कारकों ने औपनिवेशिक दुनिया में एशियाई और अफ्रीकी लोगों की अपने भविष्य के राष्ट्र की कल्पना करने में मदद की.

पहली थी तकनीक. 1850 से लेकर बीसवीं शताब्दी की शुरुआत के बीच परिवहन और संचार में जबरदस्त तरक्की हुई. टेलीग्राफ केबल ने विचारों को पलक झपकते महानगरों से दूर-दराज के इलाकों तक पहुंचने की क्षमता दी और नए स्टीमशिप और रेलवे ने भौतिक रूप में सामान या मनुष्यों के एक से दूसरी जगह आने-जाने में अभूतपूर्व वृद्धि की. इसके बाद, इससे एशियाई और अफ्रीकी लोगों को, यूरोप की शाही राजधानियों में औपनिवेशिक तीर्थयात्रा की अनुमति मिल गई. यहां पर उनके दिमाग में क्रांतिकारी राजनीतिक विचारों को चुना, अन्य उपनिवेशों के अपने समकक्षों से मिले, और राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए किए गए यूरोपीय संघर्ष के बारे में जाना.

दूसरे, उपनिवेशों में शिक्षा प्रणाली अक्सर अत्यधिक केंद्रीकृत होती थी. उदाहरण के तौर पर डच ईस्ट इंडीज में, हजारों एक-दूसरे से अलग द्वीपों के छात्रों को एक जैसी पाठ्य-पुस्तकों से एक जैसी चीजें सीखने को मिलीं. जब वे इस प्रणाली के जरिए आगे बढ़े, तो उन्हें संख्या में बहुत कम स्कूलों में से एक में डाला गया, वे तब तक इस प्रक्रिया में रहे, जब तक वे इन दो शहरों- बटाविया, जो आज का जकार्ता है और बांडुंग नहीं पहुंच गए, जहां विश्वविद्यालय थे. इस अनुभव ने इन युवा इंडोनेशियाई लोगों के दिमाग में एक विचार को मजबूत किया कि जिस द्वीपसमूह में वे रह रहे थे, वह एक एकीकृत क्षेत्र था, भले ही इसके निवासियों में विविधता थी.

आखिरकार, यूरोपीय नस्लवाद ने भी इस विचार को और मजबूत किया कि एक क्षेत्र विशेष में रहने वाली औपनिवेशिक प्रजा एक-दूसरे का हमवतन होने के विचार को मजबूत किया. क्योंकि औपनिवेशिक अधिकारियों ने शायद ही कभी अलग-अलग भारतीय या इंडोनेशियाई समूहों के बीच अंतर करने की जहमत उठाई, और इसके बजाए सभी के साथ तिरस्कृत मूल निवासी जैसा व्यवहार किया. जिसके बाद इस प्रजा ने अक्सर खुद को एक सामूहिक जिसे 'भारत' या 'इंडोनेशिया' कहते हैं, के सदस्यों के तौर पर देखा.

इन कारकों ने साथ मिलकर एक नया वर्ग तैयार किया- दो भाषाएं बोलने वाला और पश्चिम शिक्षा पाया बुद्धिजीवी वर्ग. इसके अंतर्गत आने वाले यूरोपीय राष्ट्रवाद के इतिहास में पारंगत थे और उपनिवेश को, मौलिक खासियतें साझा करने वाले लोगों द्वारा बसाए सुसंगत इलाके के तौर पर देखते थे.

यह वही वर्ग था, जिसने आगे चलकर द्वितीय विश्व युद्ध से 1970 के दशक तक एक-दूसरे से बहुत अलग देशों अंगोला, मिस्र और वियतनाम की स्वतंत्रता का नेतृत्व किया.

राष्ट्रवाद, सीमित समुदायों के तौर पर राष्ट्र की कल्पना करता है, जिसमें समान हित और लक्षण, और सबसे जरूरी तौर पर भाषा साझा करने वाले लोग रहते हैं. यह एक राजनीतिक विचारधारा नहीं है, बल्कि यह धार्मिक विश्वासों जैसी एक सांस्कृतिक प्रणआली है, जो एक आकस्मिक दुनिया में निरंतरता की भावना प्रदान करती है. राष्ट्रवाद शुरू में 'प्रिंट पूंजीवाद' का बाईप्रॉडक्ट था. जैसे किताब बेचने वालों ने नए बाजार खोजे, उन्होंने लैटिन जैसी पवित्र भाषाओं को छोड़ दिया और जर्मन जैसी क्षेत्रीय भाषाओं का इस्तेमाल किया. इसने पाठक समूहों को क्षेत्र विशेष में रहने वाले, साझा हितों वाले एक समुदाय के तौर पर खुद के बारे में कल्पना करने की अनुमति दी. क्षेत्रीय भाषाओं के मानकीकरण और समाचार पत्रों के उभार ने इस साझे राष्ट्रीय हित के विचार को मजबूत किया, अंतत: यूरोप और व्यापक रूस से दुनिया में बहुराष्ट्रीय साम्राज्य होते गए.


********** समाप्त **********

किताब के बारे में-

काल्पनिक समुदाय की अवधारणा को बेनेडिक्ट एंडरसन ने 1983 मे आई अपनी किताब 'काल्पनिक समुदाय' (Imagined Communities) में राष्ट्रवाद का विश्लेषण करने के लिए विकसित किया था. एंडरसन ने राष्ट्र को सामाजिक रूप से बने एक समुदाय के तौर पर दिखाया है, जिसकी कल्पना लोग उस समुदाय का हिस्सा होकर करते हैं. एंडरसन कहते हैं गांव से बड़ी कोई भी संरचना अपने आप में एक काल्पनिक समुदाय ही है क्योंकि ज्यादातर लोग, उस बड़े समुदाय में रहने वाले ज्यादातर लोगों को नहीं जानते फिर भी उनमें एकजुटता और समभाव होता है.

अनुवाद के बारे में- 

बेनेडिक्ट एंडरसन के विचारों में मेरी रुचि ग्रेजुएशन के दिनों से थी. बाद के दिनों में इस किताब को और उनके अन्य विचारों को पढ़ते हुए यह और गहरी हुई. इस किताब को अनुवाद करने के पीछे मकसद यह है कि हिंदी माध्यम के समाज विज्ञान के छात्र और अन्य रुचि रखने वाले इसके जरिए एंडरसन के कुछ प्रमुख विचारों को जानें और इससे लाभ ले सकें. इसलिए आप उनके साथ इसे शेयर कर सकते हैं, जिन्हें इसकी जरूरत है.

(नोट: किताब का एक अंक रोज़ अनुवाद कर रहा था. पिछले अंक आप इससे पहले के ब्लॉग में पढ़ सकते हैं. आप मेरे लगातार लिखने वाले दिनों को ब्लॉग के होमपेज पर [सिर्फ डेस्कटॉप और टैब वर्जन में ] दाहिनी ओर सबसे ऊपर देख सकते हैं.)

Saturday, May 2, 2020

Benedict Anderson की किताब Imagined Communities का संक्षिप्त अनुवाद: राष्ट्रवाद ने यूरोप के बहुराष्ट्रीय साम्राज्यों को कमजोर किया

राष्ट्रवादी समाजों में लोग अपने जैसा बोलने और देखने वालों के हाथ में शासन सौंपना चाहते हैं (फोटो क्रेडिट: मीडियम)

राष्ट्रवाद के उदय ने यूरोप के बहुराष्ट्रीय साम्राज्यों को कमजोर कर दिया क्योंकि इसके सिद्धांत, राजशाही के साथ फिट नहीं बैठते थे


एक चेक राष्ट्रवादी की कल्पना कीजिए- हम उसे 19वीं शताब्दी के प्राग का एंटोनिन कह लेते हैं. वह जर्मन बोलता है, जो कि राज्य की आधिकारिक भाषा है, लेकिन साधारणत: अपनी मातृभाषा बोलना पसंद करता है. वह चेक उपन्यास और अख़बार पढ़ता है, और उसके पसंदीदा संगीतकार चेक देशभक्त स्मेताना और डावोक हैं. उसके राजनीतिक लक्ष्य क्या होंगे? संभावना है कि अपनी पसंदीदा सूची के साथ वह चेकों का शासन चुने. और इसी कयास के चलते जिन लोगों के पास शासन का अधिकार है, उनके लिए एंटोनिन एक समस्या बन जाता है.

क्यों? खैर, यही इस अंक का प्रमुख विचार है- राष्ट्रवाद के उदय ने यूरोप के बहुराष्ट्रीय साम्राज्यों को कमजोर कर दिया क्योंकि इसके सिद्धांत, राजशाही के साथ फिट नहीं बैठते थे.

19वीं शताब्दी का यूरोप बहुराष्ट्रीय साम्राज्यों से टांकी गई एक रजाई था. उदाहरण के तौर पर वियना में हैब्सबर्ग्स, आल्प्स से कार्पेथियन तक फैला एक विशाल क्षेत्र था, जिसमें हंगरी, जर्मन, क्रोएशिया के, स्लोवाकिया के, इटली के और चेक लोग शामिल थे. 19वीं सदी के यूरोप में सेंट पीटर्सबर्ग में फ्रांसीसी बोलने वाले रोमानोव लोगों ने टार्टर्स, लेट्स, आर्मेनियाई, रूसी और फिन लोगों वाले एक और बड़े साम्राज्य को पर सत्ता जमाई थी.

पिछले अंक में हम जिन दार्शनिक क्रांतिकारियों से मिले, उन्होंने इन साम्राज्यों को एक गंभीर दुविधा वाला बताया. हैब्सबर्ग को ले लेते हैं. 1780 में सम्राट जोसेफ द्वितीय ने लैटिन से जर्मन भाषा को राज्य भाषा बनाने का फैसला किया. यह एक व्यावहारिक कदम था. लैटिन के विपरीत, जर्मन एक आधुनिक भाषा थी, जिसे पहले से ही बड़ी ऑस्ट्रो-हंगेरियन जनता बोलती आई थी. साथ ही इसका विशाल साहित्य भी मौजूद था. जिसने इसे साम्राज्य को एकजुट करने वाला वाला एक ठोस तत्व बनाया.

लेकिन एंटोनिन जैसे राष्ट्रवादियों ने इसे इस तरह से नहीं देखा. जितना ज्यादा हब्सबर्ग ने जर्मन को बढ़ावा दिया, उतना ही ज्यादा क्रोएशियन, हंगेरियन, चेक और अन्य भाषाएं बोलने वालों ने महसूस किया कि राज्य खुद को सिर्फ एक अल्पसंख्यक समूह के हितों से जोड़ रहा था और उनके हितों की अनदेखी कर रहा था. इस प्रक्रिया को उल्टा करना भी कोई विकल्प नहीं था. यदि हब्सबर्ग, कह लें कि हंगेरियन को बढ़ावा देता, तो इससे नाराज राष्ट्रीयताओं का एक अन्य समूह पैदा हो जाता, जिसमें अब जर्मन बोलने वाले भी शामिल होते.

कुछ साम्राज्यों ने सबसे बड़े जातीय समूह के साथ राष्ट्रवाद को जोड़कर, ऊपर से नीचे चलने वाली व्यवस्था या आधिकारिक लोगों को खुद से मिलाकर इस बंधन को तोड़ने की कोशिश की. वह भी अल्पसंख्यकों के साथ ऐसा तब किया गया, जब लोकप्रिय, या नीचे से ऊपर की ओर चलने वाली व्यवस्था, राष्ट्रवाद के चैंपियन थे. यही काम रूसी साम्राज्य ने 19वीं सदी के अंत में किया. इसने रूसीकरण की शुरुआत की, यह एक ऐसी प्रक्रिया थी, जिसके तहत अल्पसंख्यकों की भाषाओं पर प्रतिबंद लगा दिया गया और रूसी को राज्य, संस्कृति और सार्वजनिक जीवन की भाषा बना दिया गया. यह एक अंधा कुआं था, और इसमें आगे बड़े पैमाने पर अशांति और खुले विद्रोह की घटनाएं हुईं.

यह आश्चर्य की बात नहीं है कि यह समस्या साम्राज्यों के लिए चुभने वाला कांटा बन गईं. राष्ट्रवाद के केंद्र में यह विचार होता है कि राष्ट्र पर उन लोगों का शासन होना चाहिए, जो उनकी तरह ही देखते और बात करते हों, और यह बहुराष्ट्रीय साम्राज्यों के तर्क के बिल्कुल उल्टा एक तर्क है.

किताब के बारे में-

काल्पनिक समुदाय की अवधारणा को बेनेडिक्ट एंडरसन ने 1983 मे आई अपनी किताब 'काल्पनिक समुदाय' (Imagined Communities) में राष्ट्रवाद का विश्लेषण करने के लिए विकसित किया था. एंडरसन ने राष्ट्र को सामाजिक रूप से बने एक समुदाय के तौर पर दिखाया है, जिसकी कल्पना लोग उस समुदाय का हिस्सा होकर करते हैं. एंडरसन कहते हैं गांव से बड़ी कोई भी संरचना अपने आप में एक काल्पनिक समुदाय ही है क्योंकि ज्यादातर लोग, उस बड़े समुदाय में रहने वाले ज्यादातर लोगों को नहीं जानते फिर भी उनमें एकजुटता और समभाव होता है.

अनुवाद के बारे में- 

बेनेडिक्ट एंडरसन के विचारों में मेरी रुचि ग्रेजुएशन के दिनों से थी. बाद के दिनों में इस किताब को और उनके अन्य विचारों को पढ़ते हुए यह और गहरी हुई. इस किताब को अनुवाद करने के पीछे मकसद यह है कि हिंदी माध्यम के समाज विज्ञान के छात्र और अन्य रुचि रखने वाले इसके जरिए एंडरसन के कुछ प्रमुख विचारों को जानें और इससे लाभ ले सकें. इसलिए आप उनके साथ इसे शेयर कर सकते हैं, जिन्हें इसकी जरूरत है.

(नोट: किताब का एक अंक रोज़ अनुवाद कर रहा हूं. आप मेरे लगातार लिखने वाले दिनों को ब्लॉग के होमपेज पर [सिर्फ डेस्कटॉप और टैब वर्जन में ] दाहिनी ओर सबसे ऊपर देख सकते हैं.)

Benedict Anderson की किताब Imagined Communities का संक्षिप्त अनुवाद: यूरोप में 19वीं सदी की भाषाई क्रांति और राष्ट्रवाद

अमेरिका जैसे महाद्वीपों की खोज के बाद चली प्रक्रिया से यूरोप के सांस्कृतिक अहं को नुकसान हुआ

एक भाषाई क्रांति ने यूरोप में 19वीं शताब्दी के राष्ट्रवाद को बढ़ाया


सदियों तक यूरोप खुद को दुनिया में अकेला महाद्वीप मानता आया था. इसे विश्वास था कि इसे ईसाईयत और प्राचीन ग्रीस की सांस्कृतिक और नैतिक विरासत के उत्तराधिकारी के तौर पर दिव्य रूप से चुना गया था. इसका मतलब यह था कि यह केवल एक श्रेष्ठ सभ्यता नहीं थी, यह दुनिया की एकमात्र सभ्यता थी. लेकिन, यह विश्वविजयी दृष्टिकोण, यूरोप के अमेरिका की खोज कर लेने के बाद जीवित नहीं रह सका.

1500 से अन्य सभ्यताओं के संपर्क में आने के बाद, यूरोपीय लोग भाषाओं के अध्ययन में अधिक रूचि लेने लगे. शुरुआत में यह आवश्यकता के चलते हुआ- नाविकों और व्यापारियों को आखिरकार उन लोगों से संवाद की जरूरत होती थी, जिनसे उनका यात्राओं के दौरान सामना होता था.

हालांकि, समय बीतने के साथ, संस्कृत और मिस्र की चित्रलिपि जैसी प्राचीन भाषाओं के अध्ययन के जरिए कुछ चौंकाने वाली खोजें सामने आईं. यह था कि न केवल प्राचीनता अधिक विविधतापूर्ण थी बल्कि कई सभ्यताएं तो ग्रीक और यहूदी दुनिया, जिनके आधार पर यूरोपीय संस्कृति विकसित हुई थी, से बहुत पुरानी थीं. एक बहुलवादी दुनिया में, लोगों ने यह निष्कर्ष निकाला कि साधारण तरह से यूरोप सिर्फ कई सभ्यताओं में से एक है और जरूरी नहीं है कि यह सबसे अच्छा है.

इस खोज ने पहले वैज्ञानिक विषय- भाषा अध्ययन की शुरुआत की. जो भाषाई विकास का तुलनात्मक अध्ययन था. इसने अपने केंद्र में विकास को रखा. जिसके बाद हुई भाषाई क्रांति ने लैटिन, ग्रीक और हिब्रू जैसी पवित्र भाषाओं के खत्म होने का नेतृत्व किया. ये भाषाएं, विशिष्ट रूप से प्राचीन और दैवीय प्रेरणा वाली होने का दावा किया करती थीं. जब यह धारणा समाप्त हो गई तो वे अपनी प्रतिद्वंदी जनसाधारण की स्थानीय भाषाओं के साथ बराबरी पर आ गईं.

लेकिन अगर सभी भाषाओं ने एक जैसी, दुनियावी स्थिति साझा की तो क्या वे सभी अध्ययन और प्रशंसा के लिए समान रूप से योग्य नहीं होंगी? 19वीं शताब्दी के यूरोपियों के लिए, यह उत्तर एक 'हां' की गूंज था. इसने एक शब्दकोष संबंधी क्रांति की शुरुआत की क्योंकि भाषा विज्ञानियों और व्याकरणविदों ने लोककथाओं और साहित्यिक इतिहास के साथ-साथ स्थानीय भाषा के शब्दकोषों को संकलित करना शुरू कर दिया.

इन विद्वानों ने स्थानीय भाषाओं पर जिनती अधिक देर गौर किया, वे उतने ही ज्यादा आश्वस्त हुए कि उन्हें बोलने वालों ने विशिष्ट समुदायों का गठन किया है. यह खोज वह आधार था, जिसके आधार पर राष्ट्रवादी संगठनों ने स्वतंत्र पहचान का तर्क दिया.

उदाहरण के लिए पहला यूक्रेनी व्याकरण, 1819 में सामने आया. दस सालों के अंदर, यूक्रेनियन को कवि और लोकगीतकार तारास शेवचेंको द्वारा एक आधुनिक साहित्यिक भाषा के तौर पर ढाल दिया गया. 1846 में पहला यूक्रेनी राष्ट्रवादी संगठन कीव में स्थापित किया गया. बेरूत से, जहां अमेरिका शिक्षित ईसाईयों ने 1860 में आधुनिक अरबी का मानकीकरण किया, वहीं 1870 के दशक में यह मानकीकरण ओस्लो में हुआ, जहां 1850 में नॉर्वे का पहला शब्दकोष छपा था, इसी पैटर्न को दोहराया गया था. क्षेत्रीय भाषाओं को व्यवस्थित किया जाना, राष्ट्रीय समुदाय की कल्पना का एक तरीका ही नहीं था, यह इसे अस्तित्व में लाने का एक तरीका था.

हर व्यक्ति विशिष्ट है, उसका अपना राष्ट्रीय चरित्र है, जो उसकी अपनी भाषा द्वारा व्यक्त होता है. - जर्मन कवि जॉन गॉटफ्रेड हेर्डर (1744-1803)

किताब के बारे में-

काल्पनिक समुदाय की अवधारणा को बेनेडिक्ट एंडरसन ने 1983 मे आई अपनी किताब 'काल्पनिक समुदाय' (Imagined Communities) में राष्ट्रवाद का विश्लेषण करने के लिए विकसित किया था. एंडरसन ने राष्ट्र को सामाजिक रूप से बने एक समुदाय के तौर पर दिखाया है, जिसकी कल्पना लोग उस समुदाय का हिस्सा होकर करते हैं. एंडरसन कहते हैं गांव से बड़ी कोई भी संरचना अपने आप में एक काल्पनिक समुदाय ही है क्योंकि ज्यादातर लोग, उस बड़े समुदाय में रहने वाले ज्यादातर लोगों को नहीं जानते फिर भी उनमें एकजुटता और समभाव होता है.

अनुवाद के बारे में- 

बेनेडिक्ट एंडरसन के विचारों में मेरी रुचि ग्रेजुएशन के दिनों से थी. बाद के दिनों में इस किताब को और उनके अन्य विचारों को पढ़ते हुए यह और गहरी हुई. इस किताब को अनुवाद करने के पीछे मकसद यह है कि हिंदी माध्यम के समाज विज्ञान के छात्र और अन्य रुचि रखने वाले इसके जरिए एंडरसन के कुछ प्रमुख विचारों को जानें और इससे लाभ ले सकें. इसलिए आप उनके साथ इसे शेयर कर सकते हैं, जिन्हें इसकी जरूरत है.

(नोट: किताब का एक अंक रोज़ अनुवाद कर रहा हूं. आप मेरे लगातार लिखने वाले दिनों को ब्लॉग के होमपेज पर [सिर्फ डेस्कटॉप और टैब वर्जन में ] दाहिनी ओर सबसे ऊपर देख सकते हैं.)

Friday, May 1, 2020

Benedict Anderson की किताब Imagined Communities का संक्षिप्त अनुवाद: काल्पनिक समुदाय 'राष्ट्र' के निर्माण में अखबारों का योगदान

अखबार 'आधुनिक व्यक्ति' के लिए सुबह की प्रार्थना का एक विकल्प थे- हीगल

स्थानीय भाषा के अखबारों ने साझा हित वाले लोगों को एक सामूहिकता में बांधा


लैटिन और अरबी जैसी पवित्र भाषाओं के जरिए धार्मिक समुदायों की कल्पना की गई थी. इन्होंने (भाषाओं ने) लाखों आस्तिकों को ईश्वर से उनके एक से संबंध के जरिए एक-दूसरे से जुड़ा महसूस करवाया. जैसी हम चर्चा भी कर चुके हैं, छपाई ने राष्ट्रीय भाषाओं के मानकीकरण में मदद की, और इससे पाठकों ने खुद के बारे में एक धर्मनिरपेक्ष समुदाय के सदस्य के तौर पर कल्पना करने करने की शुरुआत की.

लेकिन यह सामान्य तौर पर सिर्फ छपाई नहीं थी, जिसने इस प्रक्रिया को चलाया- यह एक विशेष प्रक्रिया के तहत हुआ.

यहां यह प्रमुख संदेश है- स्थानीय भाषा के अखबारों ने साझा हित वाले लोगों को एक सामूहिकता में बांधा.

उन्नीसवीं सदी के जर्मन दार्शनिक हीगल ने एक बार टिप्पणी की थी कि अखबार 'आधुनिक व्यक्ति' के लिए सुबह की प्रार्थना का एक विकल्प थे. ठीक है, नीचे इसकी व्याख्या करते हैं.

प्रार्थना एक निजी कार्य है, जिसे मान्यता प्राप्त तरीके से अंजाम दिया जाता है. जब धर्म विशेष के लोग प्रार्थना करते हैं, तो वे जानते हैं कि जिस समारोह में वे प्रदर्शन कर रहे हैं, उसे लाखों आस्तिकों द्वारा साथ-साथ दोहराया जा रहा है. अभी, उन्हें इस बात का जरा भी पता नहीं है कि ये दूसरे लोग कौन हैं, लेकिन वे अपने अस्तित्व के बारे में बिल्कुल निश्चित होते हैं.

एक अख़बार पढ़ना भी इसी तरह का एक 'समारोह' है. प्रत्येक सुबह, पाठक एक साथ अपने अख़बार खोलते हैं. प्रार्थना कर रहे आस्तिकों की तरह, वे जानते हैं कि हजारों या लाखों लोग उसी समय बिल्कुल ऐसा ही कर रहे हैं. यह एक तथ्य है कि ये पाठक मेट्रो में यात्रा के दौरान और नाई के यहां अपने बाल कटाते हुए देखते हैं कि अन्य लोग भी उनकी ही तरह अख़बार अपने हाथों में खोले हुए हैं, वे इस तरह से इस बात को पक्का कर लेते हैं कि उनकी काल्पनिक दुनिया केवल एक गल्प नहीं है.

इस साथ-साथ किए जा रहे काम का मतलब है कि पाठक एक साझा राष्ट्रीय लेंस के जरिए घटनाओं के गवाह बन रहे हैं. उदाहरण के लिए मैक्सिको के लोगों को अर्जेंटीना में हुए एक तख्तापलट के बारे में पता चलता है लेकिन ऐसा उन्हें यह जानकारी मैक्सिको के समाचार पत्रों के माध्यम से होती है न कि अर्जेंटीना में रहने वाले साथी नागरिकों के जरिए. अगर ये अखबार ब्यूनस आयर्स की घटनाओं पर रिपोर्ट नहीं करते, तो ऐसा नहीं होता कि पाठकों के लिए अर्जेंटीना की किसी तरह की मौजूदगी खत्म हो जाती. इसके बजाए, वे यह मानते कि, किसी उपन्यास के उस चरित्र की तरह, जो एक-दो अध्यायों में बिल्कुल नदारद रहता है, उसी तरह यह दक्षिणी अमेरिकी देश, फिर से उभरकर सामने आएगा, जब यह घटनाक्रम में आगे कोई जरूरी पड़ाव आएगा.

इसे अलग तरह से कहें, तो अखबार जिस तरह से किसी सूचना के खबर होने को परिभाषित करते हैं, वह एक राष्ट्रीय हित की भावना पैदा करता है. अगर अभी मैक्सिको के लोग अर्जेंटीना के बारे में नहीं पढ़ रहे हैं क्योंकि फिलहाल अर्जेंटीना मैक्सिको के लिए अप्रासंगिक है.

एक ही समाचार के अज्ञात पाठकों द्वारा एक ही भाषा में, साझे सामूहिक हितों की यह भावना पनपना ही राष्ट्र के कल्पित समुदाय के केंद्र में है. यह वही है जो एक अमेरिकी, जो अपने 32 करोड़ हमवतनों में से मुट्ठीभर से ज्यादा से कभी नहीं मिलेगा, को यह निश्चितता देता है कि 31 करोड़, 99 लाख, 99 हजार, 999 अन्य अमेरिकी, जो उसी की तरह हैं, किसी 'संयुक्त राज्य अमेरिका' नाम की किसी चीज के हिस्से हैं.

किताब के बारे में-

काल्पनिक समुदाय की अवधारणा को बेनेडिक्ट एंडरसन ने 1983 मे आई अपनी किताब 'काल्पनिक समुदाय' (Imagined Communities) में राष्ट्रवाद का विश्लेषण करने के लिए विकसित किया था. एंडरसन ने राष्ट्र को सामाजिक रूप से बने एक समुदाय के तौर पर दिखाया है, जिसकी कल्पना लोग उस समुदाय का हिस्सा होकर करते हैं. एंडरसन कहते हैं गांव से बड़ी कोई भी संरचना अपने आप में एक काल्पनिक समुदाय ही है क्योंकि ज्यादातर लोग, उस बड़े समुदाय में रहने वाले ज्यादातर लोगों को नहीं जानते फिर भी उनमें एकजुटता और समभाव होता है.

अनुवाद के बारे में- 

बेनेडिक्ट एंडरसन के विचारों में मेरी रुचि ग्रेजुएशन के दिनों से थी. बाद के दिनों में इस किताब को और उनके अन्य विचारों को पढ़ते हुए यह और गहरी हुई. इस किताब को अनुवाद करने के पीछे मकसद यह है कि हिंदी माध्यम के समाज विज्ञान के छात्र और अन्य रुचि रखने वाले इसके जरिए एंडरसन के कुछ प्रमुख विचारों को जानें और इससे लाभ ले सकें. इसलिए आप उनके साथ इसे शेयर कर सकते हैं, जिन्हें इसकी जरूरत है.

(नोट: किताब का एक अंक रोज़ अनुवाद कर रहा हूं. आप मेरे लगातार लिखने वाले दिनों को ब्लॉग के होमपेज पर [सिर्फ डेस्कटॉप और टैब वर्जन में ] दाहिनी ओर सबसे ऊपर देख सकते हैं.)

Thursday, April 30, 2020

क्या इरफान साब, इतना भी खुद्दार क्या होना कि हमारी दुआएं लेने से भी इंकार कर गए...

फिल्म 'लंचबॉक्स' के एक दृश्य में इरफान खान
इरफान खान की मौत पर भरोसा नहीं है. अंतिम खबर आने से पहले 2 साल तक हमेशा लगा, 'वो वापस आएंगे, फिर से फिल्में करेंगे' लेकिन जैसा वरुण ग्रोवर ने कहा कि इरफान ने "एकतरफा हमें दिया, हमसे लिया कुछ नहीं". वैसे ही पिछले दो सालों में दिल से कई बार निकली दुआ कि 'वो जल्दी से ठीक हो जाएं और फिर से एक के बाद एक फिल्म करें' को भी इरफान खान ने लेने से इंकार कर दिया. मैं ऐसे पेशे में हूं जिसके चलते उनके एक दिन पहले हॉस्पिटल में भर्ती होने की खबर मिल गई थी और यह भी सोचा था कि कोरोना के प्रसार के खतरनाक समय में कैसे तबीयत बिगड़ गई, फिर सोचा, 'कोई बात नहीं, वो इरफान खान हैं, सही होकर वापस आ जाएंगे.'

वापस आने की बात पर इतना विश्वास था कि अगले दिन सवेरे 11 बजे के बाद जब मेरे मित्र अजय ने मुझसे पूछा कि इरफान पर कुछ लिखा है क्या तुमने? तो मैंने उन्हें पलट कर जवाब दिया, "याद तो नहीं लेकिन क्यों लिखना है, वो तो ठीक हो जाएंगे न!" मुझे विश्वास ही नहीं था कि उन्हें कुछ हो सकता है. अंतिम खबर पा जाने के बाद भी इरफान के बारे में लिखना कई वजहों से टालता रहा. लेकिन अजय ने कई बार कहा तो मैंने तय किया लिखूंगा. हालांकि अब भी मुझे खुद पर विश्वास नहीं है. ऐसा लग रहा है कि सूरज को टॉर्च की रौशनी दिखाने जा रहा हूं. फिर भी अपनी बात रखता हूं.

पहली बात मुझे अब भी विश्वास नहीं कि वो नहीं रहे. लिखना इसलिए भी टाला कि लग रहा था जब लिखूंगा तो स्वीकारना पड़ेगा, वो नहीं रहे. दूसरी बात, इरफान खान को जब-जब एक्टिंग करते देखा तो लगा कि जैसे यही तो सहजता है, कोई प्रयास ही नहीं. कोई परफॉर्मेंस प्रेशर नहीं. ये आदमी यही तो कर रहा है, हमेशा से. इसके लिए क्या तारीफ करूं. मेरे लिए इरफान की एक्टिंग सूरज की तरह थी, जो आती-जाती रहती है. उसकी कमी तब महसूस हो रही है, जब धीरे-धीरे एहसास हो रहा है कि अब वह नहीं होगी, कभी नहीं होगी. हमें पता होता था, इरफान खान फिल्म में हैं तो बिना ज्यादा सोचे फिल्म देख लेनी है, फिल्म से कुछ मिले न मिले, इरफान निराश नहीं करेंगे. मैंने कभी एक लेख में लिखा था कि रवि किशन जिस फिल्म में झांककर चले जाते हैं, उसमें भी उनका रोल याद रह जाता है. क्या यह इरफान पर लागू नहीं होता. कुछ सेकेंड का सीन 'सलाम बॉम्बे' का मुझे आज भी याद है. एक 'डॉक्टर की मौत' का रिपोर्टर, कोई भूल सकता है उसे क्या?

उनके न रहने पर मेरी शुरुआती प्रतिक्रिया इस खबर को नकारने वाली थी. मैंने इस पर न सोचने, इसे न मानने का निश्चय किया था. वैसे मेरे लिए एक बात चौंकाने वाली रही. मैंने देखा लोग उनकी अंतिम खबर पर रो रहे थे. मैंने दसियों लोगों से इस पर रोते देखा और सुना. मैंने इंस्टा चेक किया, हर एक पोस्ट इरफान पर थी. मैंने वॉट्सएप स्टोरी चेक की, हर स्टोरी इरफान पर थी. मैंने सोचा ऐसा क्या था इस बंदे में कि सिनेमा-विनेमा से कोई लगाव न रखने वाले लोग भी इस तरह से महसूस कर रहे हैं. मैंने अपनी भावनाओं में इसका उत्तर ढूंढने की कोशिश की. मुझे समझ आया कि ये सारे ही लोग अभी इरफान से बहुत कुछ चाहते थे, मेरी ही तरह ये रोज सूरज को दिन लेकर आते देखना चाहते थे. उन्हें एहसास हो रहा है कि अब उनकी एक्टिंग और देखने को नहीं मिलेगी और वो रो रहे हैं, मातम कर रहे हैं. यह सोचकर मेरा दिल बैठने लगा. तबसे से जब-जब कभी न देख पाने का एहसास हो रहा है. बहुत बुरा लग रहा है. मैं अब भी स्वीकारना नहीं चाहता ऐसा हुआ है.

एक और बात बता दूं कि मैं इरफान खान का फैन नहीं रहा हूं. मैंने अपने आपको जिनके फैन के तौर पर हमेशा स्वीकारा है, वे हैं केके मेनन और विजयराज. इन दोनों के पास लोगों को चौंकाने के लिए पर्याप्त उपकरण होते हैं. लेकिन यह मानूंगा कि इरफान इनसे कहीं ज्यादा वास्तविक और सहज थे. केके मेनन और विजयराज के बीच कहीं. वह इंटेंसिटी भी और अपना मजाक बनाकर सारी महफिल खींच लेने का माद्दा भी. फिर भी इरफान इतने सहज थे कि उनपर अलग से नोटिस की जरूरत नहीं पड़ती थी, मुझे हमेशा लगा कि यह इरफान नहीं, फिल्म का वह किरदार ही तो है. एक और बात जिसके चलते मैंने लोगों को दुख करते देखा शायद वह यह था कि अभी उन्होंने किया ही क्या था, कितना सब तो अपने साथ लेकर चले गए. अरे आखिर पिछले दशक तक इरफान फिल्मों के केंद्र में कहां थे? वो कहानी में कहीं साइड पर खड़े पूरी फिल्म का ताना-बाना सुलझा रहे होते थे. लेकिन जबसे 'सात खून माफ' और 'लाइफ ऑफ पाई' जैसी फिल्में आईं तब तय हुआ कि इरफान वापस टीवी में खर्च होने नहीं जाएंगे. उनका एक मुकाम है, वे यहीं रहेंगे, सिल्वर स्क्रीन पर प्रमुखता के साथ.

इस घोषणा के बाद हमें वे 'हैदर', 'साहब बीवी और...' फिर अपने सबसे ऊंचे मकाम 'पान सिंह तोमर', 'लंचबॉक्स' और 'पीकू' में दिखे. तय हो गया कि वो इंडस्ट्री को अब तक मिले सबसे बेहतरीन एक्टर्स में से एक हैं. अखबार, मैग्जीन के कॉलम उनकी तारीफों से पटे रहने लगे. लेकिन तबसे उन्होंने फिल्में ही कितनी कीं. बहुत ज्यादा तो 10. दरअसल हम अभी उनसे बहुत चाहते थे, बहुत कुछ. लेकिन एक बंदा जो समाज से ले कुछ नहीं रहा, कब तक एक तरफा देने की प्रक्रिया चलाए रखता, उस खुद्दार शख्स ने तो ईश्वर को हमारी दुआएँ तक कुबूल करने से मना कर दिया था...

PS: बहुत दुख के साथ आज लगातार 21वें दिन (किसी काम की आदत डालने के लिए इतने दिन वह काम करना जरूरी होता है) के ब्लॉग को लिखते हुए मुझे 'द इमैजिंड कम्युनिटीज' के अगले अंक की जगह इरफान खान की मौत के बारे में लिखना पड़ रहा है. अब भी चाहता हूं काश ये बुरा सपना टूटे और मेरी आंख खुल जाए.

(नोट: आप मेरे लगातार लिखने वाले दिनों को ब्लॉग के होमपेज पर [सिर्फ डेस्कटॉप और टैब वर्जन में ] दाहिनी ओर सबसे ऊपर देख सकते हैं.)

Tuesday, April 28, 2020

Benedict Anderson की किताब Imagined Communities का संक्षिप्त अनुवाद: प्रिंट पूंजीवाद ने राष्ट्रीय भाषाओं को मजबूती दी, रखी राष्ट्रवाद की नींव

1500-1600 के बीच यूरोपीय भाषाओं को मानकीकृत किया जाना शुरू हुआ

प्रिंट पूंजीवाद ने विशिष्ट राष्ट्रीय भाषाओं को मजबूती दी और रखी राष्ट्रवाद की नींव


पंद्रहवीं शताब्दी में प्रिंटिंग प्रेस के आविष्कार ने संचार में क्रांति ला दी. पहले किताबों की बेहद मेहनत के साथ हाथ से नकल की जाती थी, और पुस्तकालय खुद को एक दर्जन संस्करणों के साथ भाग्यशाली माना करते थे. फिर किताबें बड़े पैमाने पर व्यापार की एक वस्तु बन गईं. 1500 तक, करीब 2 करोड़ किताबें छप चुकी थीं. 1500 से 1600 के बीच लगभग 20 करोड़ और किताबों का उत्पादन हुआ. जैसा कि अंग्रेजी दार्शनिक फ्रांसिस बेकन ने इस अद्भुत सदी के अंत में लिखा था, "छपाई ने दुनिया का रूप और अवस्था" बदल दी थी.

वह सही थे. जल्द ही, यहां तक कि भाषाओं को भी (मानकीकरण के जरिए) बदला गया.

तो ये सारी किताबें कौन छाप रहा था? जाहिर है, व्यवसायी. पुस्तक की छपाई यूरोप में उभरने वाले पूंजीवादी उद्यमों के शुरुआती रूपों में से एक था और पूंजीवादी के हर रूप की तरह, व्यापार का यह प्रभाव हुआ कि नए बाजारों की बेचैनी से खोज की जाने लगी.

इससे शायद ही कोई आश्चर्य हो. जब पहली बार छपाई हुई, तो प्रकाशकों ने मुख्यत: महाद्वीप के छोटे से लैटिन पाठक समूह को ही आकर्षित किया. यह बाजार जल्द ही संतृप्त हो गया, हालांकि, अभी जनसंख्या की एक भाषा भाषी बहुसंख्यक जनता बची रही. उनको आकर्षित करने के लिए, आपको उन भाषाओं में किताबों की छपाई करनी थी, जिसे वे समझते थे. और यही प्रकाशकों ने करना शुरू कर दिया.

यह काम पर लग चुका प्रिंट पूंजीवाद था, जो स्थानीय भाषाओं में छपाई की ओर ले गया. इसके साथ ही साथ धर्म सुधार और सोलहवीं शताब्दी का कैथोलिक चर्च में सुधार का आंदोलन भी चल रहा था. छपाई से पहले, रोम ने चुनौती पेश करने वाले विधर्मियों को सहजता से कुचल दिया था. यह ऐसा करने में कैसे सक्षम था? आसान सी बात है- यह सारे संचार को नियंत्रित करता था.

लेकिन जब लूथर ने 1517 में जर्मन में अपना शोध पूरा किया, यह बदल चुका था. किताबों के व्यापार की बदौलत, अब जर्मन भाषा के ग्रंथों के लिए बड़े पैमाने पर बाजार था. 15 दिनों के भीतर, देश के हर भाग में लूथर की बातें पहुंच गईं. यह दो चीजों का सबूत था, जो पहले कभी मौजूद नहीं थीं- एक छपी हुई स्थानीय भाषा और पूरी तरह अनपढ़ जनता और द्विभाषी लैटिन के पाठक वर्ग के बीच के स्थित एक पढ़ सकने वाली वाला वर्ग. जैसे-जैसे यह प्रक्रिया पूरे यूरोपीय महाद्वीप में दोहराई गई, स्थानीय भाषाओं को मानकीकृत किया गया. बड़ी संख्या में अपने अलग अंदाज में फ्रांसीसी, अंग्रेजी और स्पेनिश भाषा बोलने वाले, जो शायद एक-दूसरे को बातचीत के दौरान नहीं समझ पाते, अब छपे हुए में एक-दूसरे से संवाद करते थे.

उसी समय पाठकों को धीरे-धीरे उन लाखों लोगों के बारे में पता चला जो उन्हीं की भाषा बोलते थे, साथ ही उन लोगों के बारे में भी जो उनकी भाषा हीं बोलते थे. राष्ट्रीय विशेषताओं के आधार पर किसी समुदाय की कल्पना करने का यह पहला कदम था.

ये सह-पाठक, जिनके साथ लोग छपाई के जरिए जुड़े थे, इन्होंने मिलकर राष्ट्रीय स्तर के काल्पनिक समुदाय का भ्रूण तैयार किया.

किताब के बारे में-

काल्पनिक समुदाय की अवधारणा को बेनेडिक्ट एंडरसन ने 1983 मे आई अपनी किताब 'काल्पनिक समुदाय' (Imagined Communities) में राष्ट्रवाद का विश्लेषण करने के लिए विकसित किया था. एंडरसन ने राष्ट्र को सामाजिक रूप से बने एक समुदाय के तौर पर दिखाया है, जिसकी कल्पना लोग उस समुदाय का हिस्सा होकर करते हैं. एंडरसन कहते हैं गांव से बड़ी कोई भी संरचना अपने आप में एक काल्पनिक समुदाय ही है क्योंकि ज्यादातर लोग, उस बड़े समुदाय में रहने वाले ज्यादातर लोगों को नहीं जानते फिर भी उनमें एकजुटता और समभाव होता है.

अनुवाद के बारे में- 

बेनेडिक्ट एंडरसन के विचारों में मेरी रुचि ग्रेजुएशन के दिनों से थी. बाद के दिनों में इस किताब को और उनके अन्य विचारों को पढ़ते हुए यह और गहरी हुई. इस किताब को अनुवाद करने के पीछे मकसद यह है कि हिंदी माध्यम के समाज विज्ञान के छात्र और अन्य रुचि रखने वाले इसके जरिए एंडरसन के कुछ प्रमुख विचारों को जानें और इससे लाभ ले सकें. इसलिए आप उनके साथ इसे शेयर कर सकते हैं, जिन्हें इसकी जरूरत है.

(नोट: आप मेरे लगातार लिखने वाले दिनों को ब्लॉग के होमपेज पर [सिर्फ डेस्कटॉप और टैब वर्जन में ] दाहिनी ओर सबसे ऊपर देख सकते हैं.)

Monday, April 27, 2020

Benedict Anderson की किताब Imagined Communities का संक्षिप्त अनुवाद: पवित्र भाषाओं, बड़े साम्राज्यों और धार्मिक समुदायों की सांठ-गांठ

यहूदी, ईसाई और मुस्लिम तीनों ही धर्मों में पवित्र माने जाने वाले शहर जेरूसलम की तस्वीर (फोटो क्रेडिट- Getty Images)

पवित्र भाषाओं ने बड़े साम्राज्यों और धार्मिक समुदायों को जोड़े रखा


इस चित्र की कल्पना कीजिए. यह सत्रहवीं शताब्दी है और हम इस्लाम के सबसे पवित्र शहर मक्का में हैं, जहां हमारी मुलाकात दो तीर्थयात्रियों से होती है. एक फिलीपींस की एक सल्तनत मगिंडनाओ से है, और दूसरा मोरक्को की पहाड़ियों से आया नाई है. ये दोनों अजनबी कभी नहीं मिले, एक-दूसरे की मातृभाषाओं को नहीं समझते, और विभिन्न संस्कृतियों के रीति-रिवाज मानते हैं, फिर भी वे एक दूसरे को 'भाई' मानते हैं. क्यों? बहरहाल, क्योंकि वहां एक चीज ऐसी है जिसे वे दोनों साझा करते हैं- अरबी, कुरान और सभी मुसलमानों की पवित्र भाषा.

यहां हमें यह महत्वपूर्ण संदेश मिलता है कि
पवित्र भाषाएं बड़े साम्राज्यों और धार्मिक समुदायों को साथ रखने वाली गोंद थीं.
धार्मिक और साम्राज्यों की भाषाएं जैसे कुरान की अरबी, चीनी और लैटिन की व्याख्या तीन विशेषताओं के आधार पर की गई. सबसे पहली बात, उन्हें बोलने से बजाए पहले लिखा और पढ़ा गया. अलग तरह से कहें तो उन्होंने ध्वनियों के समुदाय बनाने के बजाए संकेतों के समुदाय बनाए. अगर आप गणितीय संकेतों की ओर देखें तो आप समझ सकते हैं कि यह कैसे काम करता है. उदाहरण के तौर पर थाई और रोमानियन भाषाओं में "प्लस" चिन्ह के लिए अलग-अलग नाम हैं लेकिन दोनों 'क्रॉस' प्रतीक को एक ही तरह से पहचानते हैं.

दूसरी बात, ये भाषाएँ सत्य की भाषाएँ थीं. उन्हें सीखने की तुलना फ्रेंच (जैसी भाषाएँ) सीखने से नहीं की जा सकती है. ऐसा इसलिए क्योंकि देशी भाषाएँ और सामान्य भाषाएँ दैविक तरह से प्रेरित नहीं थीं, जिस तरह से लैटिन या कुरान की अरबी थी. वे चीजों की वास्तविक प्रकृति तक पहुँच नहीं करा सकती थीं, यही वजह है कि शिक्षित यूरोपीय लोगों ने शलजम की खेती के बारे में जर्मन या स्वीडिश में बात की लेकिन दर्शन और धर्मशास्त्र पर चर्चा के लिए उन्होंने लैटिन को चुना.

इसी के चलते कई कैथोलिक लूथर के इस विचार से भयभीत हो गए थे कि बाइबिल का देशी भाषाओं में अनुवाद किया जा सकता है. जबकि वे मानते थे, धार्मिक सत्य सिर्फ विशेषाधिकार प्राप्त भाषाओं में बोले-लिखे-पढ़े जा सकते थे.

कुछ भाषाओं की पवित्रता की इस बात और उनकी सत्य तक पहुंच प्रदान करने की क्षमता ने साम्राज्यों और धार्मिक समुदायों की काल्पनिक सदस्यता को के लिए रास्ता खोला. उदाहरण के लिए चीनी साम्राज्य के शासक वर्ग ने, 'बर्बरों' को मान्यता दी, जो धीरे-धीरे मध्य साम्राज्य के प्रतीकों को चित्रित करना सीख रहे थे- इसका मतलब यह माना गया कि वे सभ्य हो रहे थे. यह इन सत्य की भाषाओं पर महारथ ही थी, जिसने मंगोलों को चीनी बनने और तुर्की खानाबदोशों को मुस्लिम बनने की अनुमति दी.

अगर किसी को इन धार्मिक समुदायों और साम्राज्यों में शामिल किया जा सकता था, तो इसका कोई कारण नहीं था कि ये समूह अनंत काल तक न बढ़ते रहें. तब क्यों, मध्य युग के अंत में धर्म में गिरावट आई? एक शब्द में कहें तो 'देशीकरण' के चलते- जो कि सत्य की भाषाओं का विखंडन है और उनका स्थानीय भाषाओं से प्रतिस्थापन है. जैसा हम अगले अंक में पढ़ेंगे, यह प्रक्रिया बड़े पैमाने पर पूंजीवाद और प्रिंटिंग प्रेस द्वारा चलाई गई.

किताब के बारे में-

काल्पनिक समुदाय की अवधारणा को बेनेडिक्ट एंडरसन ने 1983 मे आई अपनी किताब 'काल्पनिक समुदाय' (Imagined Communities) में राष्ट्रवाद का विश्लेषण करने के लिए विकसित किया था. एंडरसन ने राष्ट्र को सामाजिक रूप से बने एक समुदाय के तौर पर दिखाया है, जिसकी कल्पना लोग उस समुदाय का हिस्सा होकर करते हैं. एंडरसन कहते हैं गांव से बड़ी कोई भी संरचना अपने आप में एक काल्पनिक समुदाय ही है क्योंकि ज्यादातर लोग, उस बड़े समुदाय में रहने वाले ज्यादातर लोगों को नहीं जानते फिर भी उनमें एकजुटता और समभाव होता है.

अनुवाद के बारे में- 

बेनेडिक्ट एंडरसन के विचारों में मेरी रुचि ग्रेजुएशन के दिनों से थी. बाद के दिनों में इस किताब को और उनके अन्य विचारों को पढ़ते हुए यह और गहरी हुई. इस किताब को अनुवाद करने के पीछे मकसद यह है कि हिंदी माध्यम के समाज विज्ञान के छात्र और अन्य रुचि रखने वाले इसके जरिए एंडरसन के कुछ प्रमुख विचारों को जानें और इससे लाभ ले सकें. इसलिए आप उनके साथ इसे शेयर कर सकते हैं, जिन्हें इसकी जरूरत है.

(नोट: आप मेरे लगातार लिखने वाले दिनों को ब्लॉग के होमपेज पर [सिर्फ डेस्कटॉप और टैब वर्जन में ] दाहिनी ओर सबसे ऊपर देख सकते हैं.)

Benedict Anderson की किताब Imagined Communities का संक्षिप्त अनुवाद: राष्ट्रवाद, धर्म नहीं लेकिन धर्म जैसा ही विचार

गांव से बड़े सभी समुदाय किसी न किसी तरह से काल्पनिक हैं (फोटो क्रेडिट- Verso Books)
इतिहास में ज्यादातर, मानवता का बड़ा भाग साम्राज्यों में रहा है. आधुनिक राष्ट्र-राज्यों से अलग, साम्राज्यों की दृढ़ सीमाएं नहीं होती थीं. शाही शादियां, अधीन बनाने के लिए किए गये युद्ध और धर्मांतरण साम्राज्यों के विस्तार के तरीके थे. इस तरह से जो आधुनिक स्पेन, ब्रिटेन और इटली का इलाका है, वह एक ही साम्राज्य- रोमन साम्राज्य; वहीं फारस, अफगानिस्तान; और भारत एक अन्य साम्राज्य, मुगल साम्राज्य हुआ करते थे.

फिर, अठारहवीं सदी के अंत में, एक नया विचार उभरा- राष्ट्रवाद. इससे यह स्थापित हुआ कि बुल्गारिया के लोगों, चेक लोगों और सर्बिया के लोगों को उस एक ही इलाके में नहीं रहना चाहिए, जिस पर ऑस्ट्रो-हंगेरियन राज परिवार का शासन हो बल्कि उनके पास अपने अलग-अलग राज्य होने चाहिए.

यह एक नए तरह का 'काल्पनिक समुदाय' था. एक गांव से बड़े सभी समुदाय किसी न किसी तरह से काल्पनिक हैं क्योंकि असली जीवन में उसके लोग अपने साथी निवासियों में से मुट्ठी भर से ज्यादा को नहीं जान पाते. साम्राज्यों की सदस्यता अक्सर धार्मिक या राजवंशीय हुआ करती थी. जबकि राज्य, इससे अलग हैं. समान समुदाय से होने का मतलब है, समान राष्ट्रीयता से संबंध रखना, फिर पहले उसे भी परिभाषित करना होता है.

तो स्पेन वाले कैसे स्पेनिश बने और अल्जीरिया वाले अल्जीरियन? आगे हम आपको बतायेंगे कि कैसे राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद का जन्म हुआ. इस किताब से आप सीखेंगे-

1. क्यों राष्ट्रवाद, राजनीतिक विचारधारा के बजाए धार्मिक तरह का विचार ज्यादा लगता है?

2. कैसे किताबों का कारोबार करने वाले राष्ट्रवाद के योगदान के जरिए नए बाजारों की तलाश करते हैं?

3. क्यों भाषाओं की शिक्षा साम्राज्यों के शासकों के लिए एक सिरदर्द बनकर रह गई?

राष्ट्रवाद धर्म नहीं लेकिन आधुनिक राजनीतिक विचारधारा होने के बजाए धार्मिक विश्वास के तरीकों के ज्यादा करीब


जब हम दुनिया में आते हैं तो सारी चीजें हमारी चुनाव की शक्तियों से परे होती है. हमारी आनुवांशिक विरासत, हमारे माता-पिता, हमारी शारीरिक शक्तियां सभी संयोग पर आधारित होती हैं. जीवन में एक मात्र निश्चित बात मृत्यु होती है. इन दो तथ्यों- हमारे अस्तित्व की आकस्मिकता और मृत्यु की अवश्यंभाविता पर इंसानों द्वारा हमेशा से बहुत जोर दिया गया है. ज्यादातर पारंपरिक आस्था वाले तंत्रों में इन्हें समझने के प्रयास केंद्र में होते हैं. इसके विपरीत विचारों की आधुनिक शैली उन सवालों के जवाब में खामोश रह जाती है, जिनका निपटारा विज्ञान के जरिए नहीं हो सकता है, जिसके चलते न ही उदारवादी और न ही मार्क्सवादियों के पास अमरता के बारे में बहुत कुछ कहने को है. जबकि राष्ट्रवादियों के पास है.

और यही इस पाठ का प्रमुख संदेश भी है- राष्ट्रवाद धर्म नहीं है, लेकिन यह आधुनिक राजनीतिक विचारधारा के बजाए धार्मिक विश्वास के तरीकों के ज्यादा करीब है.

इस तरह से हम सैनिकों की याद में बनाए गए स्मारकों को, राष्ट्रवाद के सबसे रोचक प्रतीकों में से एक मान लेते हैं. ये स्मारक अज्ञात सैनिकों को समर्पित होते हैं, और यह यही अज्ञातता होती है जो कि इन भूतिया गुंबदों को उनका अर्थ देती है. क्योंकि वे 'अज्ञात सैनिकों' का स्मरण करते हैं जिनकी कोई व्यक्तिगत पहचान नहीं है, लेकिन वे किसी बड़ी चीज के प्रतीक बन गए हैं. वे सबसे बड़े बलिदान को प्रदर्शित करते हैं- किसी के उसके देश के लिए मर जाने को. स्मारक यह सुझाते समझ आते हैं कि जिन्होंने किसी बड़ी चीज के लिए अपनी जिंदगी दी, वे खुद हमेशा के लिए जिंदा रहेंगे.

ऐसे में, राष्ट्रवाद धार्मिक दुनिया के विश्वासों जैसा नजर आता है. आस्थाएं जैसे बौद्ध, ईसाईयत, और इस्लाम, उदाहरण के लिए हजारों सालों तक दर्जनों अलग-अलग समाजों में इसलिए जिंदा रह सके क्योंकि वे इंसान के सहज बोध में घुस गए. ये आस्थाएं यह विश्वास लेकर आती हैं कि जीवन में जो बेतरतीब नुकसान हो रहे हैं और जिस तरह जिंदगी का प्रवाह चल रहा है, उसमें जरूर कोई गहरा मतलब छिपा होगा. चाहे वे इसे कर्म कहें या मौत के बाद की दुनिया, धर्म मरे हुओं, जीवितों और अभी पैदा होने वालों को मौत और फिर से जन्मने के एक अनन्त चक्र में जोड़कर इस अर्थ को पाते हैं.

राष्ट्रवाद और धार्मिक विचारों के बीच इस समानता को देखते हुए, यह आश्चर्यजनक नहीं है कि पहले वाला तुरंत उभरा जब बाद वाला कमजोर पड़ रहा था. हजारों सालों तक बिना प्रमाण के सही माने जाते रहने के बाद, अठारहवीं शताब्दी के यूरोप में धर्म अपनी स्वत: स्पष्ट रहने वाली स्थिति खो रहा था. यह प्रबोधन का युग था, एक ऐसा बौद्धिक आंदोलन जिसमें लोग धार्मिक परंपराओं के बजाए मानवीय तर्क पर जोर दे रहे थे. निश्चित रूप से धर्म का पतन नहीं हुआ, फिर भी इससे उस यातना का खात्मा हो गया, जो धर्म का अंग हुआ करती थी.

वास्तव में, इस पतन ने वर्तमान जीवन के दिल में एक खाली जगह छोड़ दी. बिना स्वर्ग के, अस्तित्व असहनीय रूप से मनमाना महूसस होने लगा. मोक्ष की संभावनाओं के बिना और उसके बाद की जिंदगी के ख्यालों के बिना, राष्ट्रों के काल्पनिक समुदाय और भी ज्यादा आकर्षक लगे. लेकिन इससे पहले कि हम राष्ट्रवाद का ही परीक्षण करें, उस सांस्कृतिक तंत्र पर एक नज़र डालते हैं, जो इसे लेकर आया.
राष्ट्रवाद को उसके पूर्ववर्ती सांस्कृतिक तंत्र के साथ जोड़कर, उनकी ही पंक्ति में खड़े विचार की तरह देखा जाना चाहिए, न कि सोच-समझकर स्वीकारी गई राजनीतिक विचारधाराओं की तरह.

किताब के बारे में-

काल्पनिक समुदाय की अवधारणा को बेनेडिक्ट एंडरसन ने 1983 मे आई अपनी किताब 'काल्पनिक समुदाय' (Imagined Communities) में राष्ट्रवाद का विश्लेषण करने के लिए विकसित किया था. एंडरसन ने राष्ट्र को सामाजिक रूप से बने एक समुदाय के तौर पर दिखाया है, जिसकी कल्पना लोग उस समुदाय का हिस्सा होकर करते हैं. एंडरसन कहते हैं गांव से बड़ी कोई भी संरचना अपने आप में एक काल्पनिक समुदाय ही है क्योंकि ज्यादातर लोग, उस बड़े समुदाय में रहने वाले ज्यादातर लोगों को नहीं जानते फिर भी उनमें एकजुटता और समभाव होता है.

अनुवाद के बारे में- 

बेनेडिक्ट एंडरसन के विचारों में मेरी रुचि ग्रेजुएशन के दिनों से थी. बाद के दिनों में इस किताब को और उनके अन्य विचारों को पढ़ते हुए यह और गहरी हुई. इस किताब को अनुवाद करने के पीछे मकसद यह है कि हिंदी माध्यम के समाज विज्ञान के छात्र और अन्य रुचि रखने वाले इसके जरिए एंडरसन के कुछ प्रमुख विचारों को जानें और इससे लाभ ले सकें. इसलिए आप उनके साथ इसे शेयर कर सकते हैं, जिन्हें इसकी जरूरत है.

(नोट: आप मेरे लगातार लिखने वाले दिनों को ब्लॉग के होमपेज पर [सिर्फ डेस्कटॉप और टैब वर्जन में ] दाहिनी ओर सबसे ऊपर देख सकते हैं.)

Saturday, April 25, 2020

Good Economics for Hard Times: अभिजीत बनर्जी-एस्थर डुफ्लो की किताब का हिंदी में संक्षिप्त अनुवाद- गरीबी का हल और लोकतंत्र

अभिजीत बनर्जी और एस्थर डुफ्लो की यह किताब दुनिया की तमाम परेशानियों का हल अर्थशास्त्र में ढूंढती है

CASH AND CARE

गरीबी कम करने के लिए हर स्थिति में काम आ जाने वाला कोई एक उपाय नहीं है लेकिन गरीबों की इज्जत को प्राथमिकता देना जरूरी है

कल्पना कीजिए एक बहीखाता देखने के वाले के तौर पर आपकी नौकरी एक रोबोट ने छीन ली है. या चीन के साथ चल रहे व्यापार युद्ध के प्रभाव के चलते  आपका एक जैविक खेत में रोज़ का काम खत्म हो चुका है. या भारतीय कपड़ों के कारखाने में आपका काम खत्म हो जाता है क्योंकि पश्चिम के लिए कोरियाई कपड़ा आयात करना ज्यादा किफायती है.

इन नौकरियों के नुकसान का आपके और आपके परिवार पर गहरा आर्थिक प्रभाव पड़ेगा. लेकिन पैसा वह एकमात्र चीज नहीं होगा, जिसे आप खोएंगे. आप अपना कार्य समुदाय, कार्यस्थल में अपनी पहचान और शायद अपनी इज्जत का अहसास भी खो देंगे.

एक सामाजिक सुरक्षा के जाल (सोशल सेफ्टी नेट) के बिना लोग बहुत तेजी से गरीब हो सकते हैं. एक छंटनी एक पूरे परिवार को गरीबी में डुबा सकती है. ऐसे में सहायता के किसी भी प्रयास को न सिर्फ परिवार की वित्तीय जरूरतों को ध्यान में रखना चाहिए बल्कि बहुत ही मानवीय जरूरत- 'सम्मान के व्यवहार' को भी ध्यान रखना चाहिए.

दुर्भाग्यपूर्ण रूप से कई सहायता कार्यक्रम इसके बजाए गरीबों को बदनाम करते हैं.

नीति निर्माता मानते हैं कि गरीबों पर भरोसा नहीं किया जाना चाहिए कि वे भोजन और शिक्षा जैसी उपयोगी चीजों पर अपना पैसा खर्च करेंगे और इसलिए उन्हें नकद पैसे नहीं दिए जाने चाहिए. जरूरतमंदों को पैसा देने के प्रस्ताव के आलोचकों का तर्क होता है कि अगर लोगों को इस तरह से समर्थन दिया जाता है, तो उनके पास काम करने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं होगा; इसके बजाए, वे लक्ष्यहीन होकर बाकी दिन इधर-उधर पड़े रहेंगे.

लेकिन ये आशंकाएं निराधार हैं. 119 विकासशील देशों में किए गए गरीबों को प्रत्यक्ष वित्तीय सहायता (यूनिवर्सल बेसिक इनकम) देने के प्रयोगों से मिला डेटा दिखाता है कि इससे लाभार्थियों के पोषण और स्वास्थ्य के स्तर में काफी हद तक सुधार होता है. वे इसे शराब और तंबाकू पर खर्च नहीं करते.

बेसिक इनकम पाने के बावजूद लोग काम करने से नहीं बचते. लेखकों में से एक के घाना में किए प्रयोग में, प्रतिभागियों को बैग बनाने के लिए प्रोत्साहित किया गया, जिसे एक अच्छी राशि देकर खरीदा जाना था. कुछ प्रतिभागियों को बकरियां भी दी गईं, जिनका उपयोग आगे की आय पैदा करने के लिए किया जा सकता था. प्रयोग से सामने आया कि न केवल बकरियों के मालिक लाभार्थियों ने उन लोगों की तुलना में अधिक बैग का उत्पादन किया, जिन्हें बकरियां नहीं मिली थीं बल्कि उन्होंने अच्छी क्वालिटी वाले बैग भी बनाए.

गरीब लोगों को हतोत्साहित करने के बजाए, वित्तीय सहायता लाभार्थियों को रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़े बीमार कर देने वाले तनाव से बचा सकती है, और उन्हें कड़ी मेहनत करने, कुछ नया करने या स्थानांतरित होने के लिए स्वतंत्र कर सकती है.

गरीबी मिटाने के लिए हर स्थिति में काम आ जाने वाला कोई उपाय नहीं है. एक समाधान जो घाना में काम करता है, हो सकता है अमेरिका में काम न करे. जरूरी यह है कि सामाजिक संदर्भों को ध्यान में रखा जाए और लाभार्थियों के इसे कर सकने की क्षमता और उनकी इज्जत को प्राथमिकता दी जाए.

लोकतंत्र को खत्म करने वाले राजनीतिक ध्रुवीकरण और पूर्वाग्रह को ठीक करने के लिए हमें एक-दूसरे की बात सुननी होगी


एफबीआई (FBI) के मुताबिक, 2017 में अमेरिका में घृणा अपराधों (हेट क्राइम्स) की संख्या में 17% की बढ़ोत्तरी हुई है. यह लगातार तीसरा साल था, जब ऐसे अपराधों में बढ़ोत्तरी हुई. 2015 से पहले एक लंबे समय तक या तो हेट क्राइम्स की संख्या सपाट थी या घट रही थी.

हम इन बढ़ते आंकड़ों को कैसे समझ सकते हैं? क्यों कोई अश्वेत लोगों, या अप्रवासियों, या अलग सामाजिक वर्ग के लोगों से नफरत करने लगता है? क्या ऐसा है कि कुछ लोग पैदा ही पूर्वाग्रहों के साथ होते हैं और उसी तरह बड़े होते हैं? या यह मीडिया का प्रभाव है और डोनाल्ड ट्रंप जैसे एक अप्रवासी विरोधी राष्ट्रपति की बयानबाजी का?

ये सवाल अर्थशास्त्रियों और अन्य समाज विज्ञानियों को परेशान करते हैं. यह कहना अजीब है कि लोगों का नस्लवाद और पूर्वाग्रहों के प्रति स्वाभाविक झुकाव होता है, क्योंकि यह (बात) उनके इतिहास और सामाजिक संदर्भों की अनदेखी करना है. लेकिन यह कहना कि मीडिया ने लोगों का ब्रेनवॉश कर दिया है, उनकी बुद्धिमत्ता और कुछ कर सकने की क्षमता को कम आंकना होगा. उत्तर (इससे) ज्यादा जटिल है.

हालांकि लोगों की व्यक्तिगत प्राथमिकताएं होती हैं, ये ज्यादातर उन सामाजिक समूहों और उन परिस्थिति विशेष से निर्मित होती हैं, जिसमें वे खुद को पाते हैं. लोग अपने जैसे ही अन्य लोगों की ओर खिंचते हैं. इस तरह से एक समुदाय एक विचार विशेष के लिए एक तरह के प्रतिध्विन कक्ष (इको चैंबर- जिसमें एक ही ध्वनि गूंजती रहे) बन जाते हैं, जिसमें लोग बाहरी विचारों के संपर्क में आए बिना एक-दूसरे के विश्वासों को मजबूत बनाते रहते हैं.

इसका मतलब यह है कि ग्लोबल वॉर्मिंग जैसे वैज्ञानिक तथ्यों पर भी, लोगों की बेहद अलग-अलग राय होती है. जबकि 41% अमेरिकी कहते हैं कि ग्लोबल वॉर्मिंग मानव प्रदूषण के चलते होती है, इतने ही प्रतिशत लोग या तो यह नहीं मानते कि यह हो रही है या सोचते हैं कि यह एक प्राकृतिक घटना है. इन मान्यताओं को राजनीतिक धाराओं में विभाजित किया गया है: डेमोक्रेट्स ग्लोबल वॉर्मिंग में विश्वास की ओर झुकाव रखते हैं, जबकि रिपब्लिकन ऐसा नहीं करते.

यह इको चेम्बर में फेसबुक जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के जरिए शोर और बढ़ जाता है. जहां हम नेटवर्क के अन्य सदस्यों द्वारा शेयर की गई सामग्री को देखते हैं, जिससे हमारे पहले से ही माने जा रहे विचारों को और मजबूती मिलती है.

यदि हम मायने रखने वाले मुद्दों पर एक-दूसरे के साथ संवाद नहीं करते हैं, लोकतंत्र टूटना शुरू हो जाता है. हम केवल जीतने के लिए वैचारिक युद्ध लड़ते हुए बिखरी हुई जनजातियों में टूट जाते हैं.

यहां तक कि सबसे प्रभावी पूर्वाग्रह को भी बदला जा सकता है. लेकिन ऐसा होने के लिए हमें विभिन्न विचारों वाले विभिन्न प्रकार के लोगों के संपर्क में आने की आवश्यकता है. स्कूल और विश्वविद्यालय ऐसी विविध सामाजिक बातचीत के लिए महत्वपूर्ण जगहें हैं, जैसे अमीरों और गरीबों के मिले-जुले पड़ोस होते हैं.

केवल खुली चर्चा के माध्यम से हम अपने समाजों में आ गई कई दरारों को भरना शुरू कर सकते हैं.

GOOD AND BAD ECONOMICS


अर्थशास्त्रियों की साख खराब हुई है, लेकिन वे हमारे सामने आने वाले सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर प्रकाश डाल सकते हैं, जैसे कि आर्थिक असमानता और व्यापार के चलते होने वाले नौकरियों के नुकसान से कैसे निपटा जाए, जलवायु परिवर्तन से कैसे जूझें, और AI के विकास से प्रभावित कामगारों की मदद कैसे करें. इन मुद्दों के प्रभावी समाधान के लिए सरकारों की ओर से मजबूत हस्तक्षेप की जरूरत होगी. करों को बढ़ाकर और नए सामाजिक कार्यक्रम बनाकर जो कि गरीबों को वित्तीय सहायता और नौकरियों के अवसर दें, पूंजी को निष्पक्ष रूप से पुनर्वितरित किए जाने की जरूरत है. सबसे महत्वपूर्ण बात, हमें इस धारणा पर फिर से विचार करने की जरूरत है कि आर्थिक विकास से सभी को फायदा होगा, और धरती और इंसानों की सेहत के लिए चुकाई जा रही वास्तविक लागतों को भी देखना होगा.

किताब के बारे में-


इस किताब में दोनों लेखक तर्क करते हैं कि अर्थशास्त्र कई समस्याओं को लेकर नया दृष्टिकोण पेश कर उन्हें सुलझाने में हमारी मदद सकता है. चाहे वह जलवायु परिवर्तन का हल बिना गरीबों को नुकसान पहुंचाए हो, या बढ़ती हुए असमानता के चलते उभरने वाली सामाजिक समस्याओं से निपटना हो, या वैश्विक व्यापार, और प्रवासियों को लेकर फैलाया गया डर जैसे मुद्दे.

अभिजीत बनर्जी और एस्थर डुफ्लो ने 2019 में अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार डेलपलमेंट इकॉनमिक्स के क्षेत्र में अपने योगदान के लिए पाया. उनकी इससे पहले आई किताब 'पुअर इकॉनमिक्स' (Poor Economics- गरीब अर्थशास्त्र) एक शुरुआती खोज थी कि गरीबी क्या होती है और कैसे सबसे इससे जूझते समुदायों को सबसे प्रभावशाली तरीके से मदद पहुंचाई जाए. ये दोनों ही MIT में प्रोफेसर हैं और बहुत से अकादमिक सम्मान और पुरस्कार पा चुके हैं.


अनुवाद के बारे में-


भारतीय मूल के अर्थशास्त्री अभिजीत वी. बनर्जी और उनकी साथी एस्थर डुफ्लो की 2019 में उन्हें नोबेल मिलने के तुरंत बाद आई किताब गुड इकॉनमिक्स फॉर हार्ड टाइम्स (Good Economics for Hard Times) बहुत चर्चित रही. मैं इस किताब के प्रत्येक चैप्टर का संक्षिप्त अनुवाद पेश करने की कोशिश कर रहा हूं. अभिजीत के लिखे हुए को अनुवाद करने की मेरी इच्छा इस किताब के पहले चैप्टर को पढ़ने के बाद ही हुई. बता दूं कि इसके संक्षिप्त मुझे ब्लिंकिस्ट (Blinkist) नाम की एक ऐप पर मिले. बर्लिन, जर्मनी से संचालित इस ऐप का इसे संक्षिप्त रूप में उपलब्ध कराने के लिए आभार जताता हूं. अंग्रेजी में जिन्हें समस्या न हो वे इस ऐप पर अच्छी किताबों के संक्षिप्त पढ़ सकते हैं और उनका ऑडियो भी सुन सकते हैं. एक छोटी सी टीम के साथ काम करने वाली इस ऐप का इस्तेमाल मैं पिछले 2 सालों से लगातार कर रहा हूं और मुझे इससे बहुत फायदा मिला है. वैश्विक क्वारंटाइन के चलते विशेष ऑफर के तहत 25 अप्रैल तक आप इस पर उपलब्ध किसी भी किताब को पढ़-सुन सकते हैं. जिसके बाद से यह प्रतिदिन एक किताब ही मुफ्त में पढ़ने-सुनने को देगी.

(नोट: अभिजीत वी. बनर्जी और उनकी साथी एस्थर डुफ्लो की 2019 में उन्हें नोबेल मिलने के तुरंत बाद आई किताब गुड इकॉनमिक्स फॉर हार्ड टाइम्स के संक्षिप्त अनुवाद का यह आखिरी अंश था, आगे मेरी कोशिश मशहूर पॉलीमाथ बेनेडिक्ट एंडरसन की किताब द इमैजिन्ड कम्युनिटीज को अनुवाद करने की रहेगी. आप मेरे लगातार लिखने वाले दिनों को ब्लॉग के होमपेज पर [सिर्फ डेस्कटॉप और टैब वर्जन में ] दाहिनी ओर सबसे ऊपर देख सकते हैं.)

Thursday, April 23, 2020

Good Economics for Hard Times: अभिजीत बनर्जी-एस्थर डुफ्लो की किताब का हिंदी में संक्षिप्त अनुवाद- उचित टैक्स, आर्थिक असमानता का इलाज

अभिजीत बनर्जी और एस्थर डुफ्लो की यह किताब दुनिया की तमाम परेशानियों का हल अर्थशास्त्र में ढूंढती है

बुद्धिमान रोबोटों के आने से बहुत पहले से है आर्थिक असमानता

रोबोटों पर आर्थिक असमानता का दोष मढ़ना आकर्षक हो सकता है. वे हमारे समाज में सबसे बड़े घुसपैठिए विदेशी हैं, और इसलिए वे एक बहुत ही सुविधाजनक बलि का बकरा भी हैं.

लेकिन स्वयं को स्कैन कर लेने सुपरमार्केट के बिल काउंटर से बहुत पहले ही असमानता बढ़ रही थी. वास्तव में, हम श्रम बाजार की बड़ी तस्वीर देखे बिना और समग्र रूप से समाज में कमाई का बंटवारा कैसे होता है (जाने बिना) AI के श्रम बाजार पर प्रभावों को नहीं समझ सकते.

1980 तक संयुक्त राज्य अमेरिका में सबसे धनी 1% लोगों की राष्ट्रीय आय का हिस्सा लगातार घर रहा था. यह 1928 के 28% से 1979 आते-आते लगभग एक-तिहाई कम हो चुका था. लेकिन ये ट्रेंड 1980 के बाद से तेजी से उलट गए, जिससे कि असमानता फिर से 1928 के स्तर पर पहुंच गई. 1980 के बाद से धन असमानता लगभग दोगुनी हो चुकी है.

जबकि शीर्ष 1% लोगों की आय में तेज वृद्धि हुई है. श्रमिकों के लिए मजदूरी बढ़नी बंद हो गई है. दरअसल, 2014 में जब औसत मजदूरी को मुद्रास्फीति की के हिसाब से तुलना कर आंका गया तो यह 1979 से अधिक नहीं थी. कम से कम शिक्षित कामगारों के सामने एक कठिन समस्या और है- 2018 में पुरुष कामगारों का वास्तविक वेतन 1980 की तुलना में 10 से 20% कम था.

तो 1980 में ऐसा क्या हुआ जो असमानता में इस भारी वृद्धि की वजह बना. कई अर्थशास्त्री इसके लिए रोनाल्ड रीगन और मार्गरेट थैचर जैसे नेताओं की नीतियों की ओर इशारा करते हैं, जो बहुत अमीर लोगों के लिए करों को घटाने के लिए तैयार की गई आक्रामक नीतियों के साथ सत्ता में आए, जिसके पीछे तर्क था कि इनके कमाए वित्तीय लाभ 'ट्रिकल डाउन' (अमीरों के लाभ बढ़ने पर वे इसे गरीबों तक भी पहुंचाएंगे) होकर औसत कामगार तक पहुंचेंगे.

रीगन-थैचर काल के आर्थिक दर्शन ने इस विचार को भी वैध ठहराया कि कुछ लोग अत्यधिक वेतन के हकदार थे. इसके पीछे तर्क क्या था? कि वे बेहद प्रतिभाशाली थे और अच्छी कमाई से उन्हें और अधिक मेहनत से काम करने का प्रोत्साहन मिलेगा.

लेकिन यह (तर्क) इस तथ्य को झुठलाता है कि वित्तीय उद्योगों में CEO लोगों को अक्सर बिना कुछ किए मोटे बोनस की कमाई होती है. उनके वेतन के, कंपनी के बाजार मूल्य से जुड़े होने के चलते, उन्हें तब अधिक पैसा मिलता है, जब कंपनी अच्छा करती है. लेकिन उनके निम्न दर्जे के कर्मियों को अधिक पैसे मिलने का कोई प्रोत्साहन नहीं है. जो कि वास्तव में, इस तर्क के पूरी तरह से खिलाफ है.

सबसे अधिक कमाने वालों और बाकी सभी के बीच यह बड़ी असमानता ज्यादा समय नहीं चल सकती. इसे सुधारने के लिए अमेरिका जैसे देशों को क्या बदलने की जरूरत है? एक शब्द में उत्तर दें तो: टैक्स (कर).

उचित कर लगाने से आर्थिक असमानता को हल करने में मदद मिल सकती है

अत्यधिक कमाई करने वाले और अन्य कामगारों के बीच समान आधार बनाने का एक रास्ता है: टैक्स. अध्ययनों से पता चला है कि जब शीर्ष 1% लोगों के लिए टैक्स की दर 70% या उससे अधिक होती है तो वेतन अधिक समान होते हैं. ऐसे में कॉरपोरेशन ऐसे सनकी स्तर के वेतन देना बंद कर देते हैं, क्योंकि टैक्स ऑफिस को सैलरी का 70% देने का कोई मतलब नहीं है.

जर्मनी, स्पेन और डेनमार्क जैसे देख, जिन्होंने करों (टैक्स) की दर इतनी अधिक कर रखी है, उनके यहां सर्वाधिक वेतन वाले और औसत कमाई वाले लोगों के बीच का अंतर अमेरिका, कनाडा और ब्रिटेन के मुकाबले कम है, जिन देशों ने 1970 के दशक के बाद अधिक वेतन पर करों को कम कर दिया है.

हालांकि असमानता से निपटने के लिए सरकारों को और अधिक संसाधनों की आवश्यकता पड़ने वाली है. इसका मतलब यह है कि हमें शीर्ष कमाई वालों के वेतन पर अधिक कर लगाने से अधिक की जरूरत है.

एक विकल्प बेहद अमीर लोगों की संपत्ति पर एक धन कर का है. 50 मिलियन डॉलर यानि करीब 380 करोड़ रुपये से अधिक की संपत्ति वाले लोगों पर 2% टैक्स और 1 बिलियन डॉलर यानि करीब 7500 करोड़ रुपये से अधिक की संपत्ति वालों पर 3% कर संभावित तौर पर अगले दस सालों में 2.7 ट्रिलियन डॉलर या 2 लाख अरब रुपये से ज्यादा पैदा किए जा सकते हैं. अरबपतियों के लिए यह महासागर में एक बूंद है लेकिन अगर उस पैसे का इस्तेमाल वैश्विक व्यापार से आहत होने के चलते बेरोजगार हुए लोगों की मदद के लिए या आवास और शिक्षा जैसे अन्य सार्वजनिक कार्यक्रमों के फंड के तौर पर किया जाए तो यह लाखों लोगों की जिंदगी में यह एक बड़ा अंतर ला सकता है.

लेकिन धन टैक्स ही पर्याप्त नहीं हैं. दरअसल परिवर्तन लाने के लिए सभी को योगदान करना होगा.

डेनमार्क और फ्रांस, गरीबी और असमानता से निपटने के लिए महत्वाकांक्षी कार्यक्रम चलाने दोनों देशों में, उनके सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का 46% टैक्स से आता है. इस टैक्स में से अधिकांश औसत कमाई वालों से आता है. इसके उलट, अमेरिकी सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का मात्र 27% ही टैक्स से आता है.

अधिक टैक्स देने का विचार अमेरिका में बेहद अलोकप्रिय है. आंशिक तौर पर ऐसा सरकार पर कम से कम विश्वास होने के चलते है. सरकारी कार्यक्रमों को अक्सर अक्षम और अधिकारियों को भ्रष्ट माना जाता है. लोगों को वैध चिताएं हैं कि उनका पैसा कहां जा रहा है.

टैक्स को अच्छे उपयोग में लाने के लिए सरकारों को जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए. लेकिन उनका काम जरूरी है. जैसा कि हम देख चुके हैं, जब इंसानों का ख्याल रखे जाने की बात आती है तो बाजार हमेशा इसमें कार्य-कुशल नहीं साबित होता. वैश्विक व्यापार, AI, जलवायु परिवर्तन और आने वाली अनगिनत चुनौतियों से प्रभावित कामगारों को सहायता देने के लिए मजबूत सार्वजनिक कार्यक्रमों की जरूरत है. उन कार्यक्रमों में पैसे देने के लिए हमें टैक्स से पैसे जुटाने की जरूरत है.

किताब के बारे में-

इस किताब में दोनों लेखक तर्क करते हैं कि अर्थशास्त्र कई समस्याओं को लेकर नया दृष्टिकोण पेश कर उन्हें सुलझाने में हमारी मदद सकता है. चाहे वह जलवायु परिवर्तन का हल बिना गरीबों को नुकसान पहुंचाए हो, या बढ़ती हुए असमानता के चलते उभरने वाली सामाजिक समस्याओं से निपटना हो, या वैश्विक व्यापार, और प्रवासियों को लेकर फैलाया गया डर जैसे मुद्दे.

अभिजीत बनर्जी और एस्थर डुफ्लो ने 2019 में अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार डेलपलमेंट इकॉनमिक्स के क्षेत्र में अपने योगदान के लिए पाया. उनकी इससे पहले आई किताब 'पुअर इकॉनमिक्स' (Poor Economics- गरीब अर्थशास्त्र) एक शुरुआती खोज थी कि गरीबी क्या होती है और कैसे सबसे इससे जूझते समुदायों को सबसे प्रभावशाली तरीके से मदद पहुंचाई जाए. ये दोनों ही MIT में प्रोफेसर हैं और बहुत से अकादमिक सम्मान और पुरस्कार पा चुके हैं.

अनुवाद के बारे में-

भारतीय मूल के अर्थशास्त्री अभिजीत वी. बनर्जी और उनकी साथी एस्थर डुफ्लो की 2019 में उन्हें नोबेल मिलने के तुरंत बाद आई किताब गुड इकॉनमिक्स फॉर हार्ड टाइम्स (Good Economics for Hard Times) बहुत चर्चित रही. मैं इस किताब के प्रत्येक चैप्टर का संक्षिप्त अनुवाद पेश करने की कोशिश कर रहा हूं. अभिजीत के लिखे हुए को अनुवाद करने की मेरी इच्छा इस किताब के पहले चैप्टर को पढ़ने के बाद ही हुई. बता दूं कि इसके संक्षिप्त मुझे ब्लिंकिस्ट (Blinkist) नाम की एक ऐप पर मिले. बर्लिन, जर्मनी से संचालित इस ऐप का इसे संक्षिप्त रूप में उपलब्ध कराने के लिए आभार जताता हूं. अंग्रेजी में जिन्हें समस्या न हो वे इस ऐप पर अच्छी किताबों के संक्षिप्त पढ़ सकते हैं और उनका ऑडियो भी सुन सकते हैं. एक छोटी सी टीम के साथ काम करने वाली इस ऐप का इस्तेमाल मैं पिछले 2 सालों से लगातार कर रहा हूं और मुझे इससे बहुत फायदा मिला है. वैश्विक क्वारंटाइन के चलते विशेष ऑफर के तहत 25 अप्रैल तक आप इस पर उपलब्ध किसी भी किताब को पढ़-सुन सकते हैं. जिसके बाद से यह प्रतिदिन एक किताब ही मुफ्त में पढ़ने-सुनने को देगी.

(नोट: कल इस किताब के अगले दो चैप्टर का हिंदी अनुवाद पेश करने की मेरी कोशिश होगी. आप मेरे लगातार लिखने वाले दिनों को ब्लॉग के होमपेज पर [सिर्फ डेस्कटॉप और टैब वर्जन में ] दाहिनी ओर सबसे ऊपर देख सकते हैं.)