Tuesday, May 5, 2020

शेखर कपूर की फिल्म Bandit Queen पर अरुंधति राय के आलोचनात्मक लेख The great Indian Rape-Trick I का हिंदी अनुवाद

बैंडिट क्वीन में शेखर कपूर ने कई थिएटर कलाकारों को एक्टिंग का मौका दिया, जो आगे इंडस्ट्री में बड़े नाम बने (फोटोः फर्स्टपोस्ट हिंदी)

महान भारतीय बलात्कार छल- 1


दिल्ली में बैंडिट क्वीन की प्रीमियर स्क्रीनिंग पर शेखर कपूर ने इन शब्दों के साथ फिल्म का परिचय दिया, मेरे पास सच और सौंदर्य के बीच एक चुनाव था. मैंने सच को चुना, क्योंकि सच पवित्र है.

इस बात पर जोर देना कि फिल्म सच बताती है ही उनके लिये सबसे बड़ी कॉमर्शियल और क्रिटिकल महत्व रखता है. बार-बार इंटरव्यू में, रिव्यू में और यहां तक कि फिल्म की शुरुआत में लिखा हुआ, 'यह एक सत्यकथा है' हमें यह भरोसा दिलाया जाता है.

अगर यह 'सच' नहीं होती. तो इसे उसी रेप और बदला थीम के क्लासिक वर्जन वाली चक्की से क्या बचाता जिसे हमेशा गाहे-बगाहे हमारी फिल्म इंडस्ट्री मथती रहती है. तो इसे इस सुपरिचित आरोप कि यह भारत को सही तरह से चित्रित नहीं किया गया है? वाकई कुछ भी नहीं.

यह 'सच' ही है जो इसे बचाता है. हर बार, जब यह स्विस चाकू लेकर सुपरमैन की तरह गोते लगाती है- और फिल्म को बेकार, नीरसता के जबड़े से खींच निकालती है. इसने सुर्खियां बनाईं. मुंहफट तर्क खींचे. और गहन आलोचना भी.

अगर आप कहें कि आपने फिल्म को बेमज़ा पाया, आपको बताया जायेगा- खैर ऐसा ही सच भी होता है- बेमजा. जोड़-तोड़ से भरा? ऐसी ही जिंदगी है- जोड़-तोड़ वाली.

यह ट्रकों के पीछे लिखे ऐसे ही डायलॉग जैसा कुछ-कुछ है -

प्यार ही ईश्वर है
जीवन कठिन है
सच ही पवित्र है
हॉर्न बजायें

चाहे हो या न हो सच और ज्यादा प्रासंगिक नहीं रह गया है. मसला यह है कि यह (अगर यह पहले से ही नहीं हो चुका है) - सच बन जायेगा.

फूलन देवी, एक औरत का महत्वपूर्ण होना खत्म हो चुका है. (हां यह भले ही सच है कि वह मौजूद है. उसकी आंखें हैं, कान हैं, अंग और बाल आदि हैं. बल्कि अब एक पता भी) लेकिन वह एक लीजेंड होने के शाप से ग्रसित हैं. वह केवल अपना एक वर्जन भर हैं. यहां उनके दूसरे वर्जन भी हैं जो कि ध्यान खींचने के लिये झगड़ रहे हैं. खासकर शेखर कपूर की एक सच्ची कथा. जिसपर फिलहाल हमें यकीन करने के लिये काफी जोर दिया जा रहा है.

डेरेक मैल्कम, द गार्डियन अख़बार में लिखते हैं, यह एक ऐसी कहानी है, जो अगर कोई फिक्शन का टुकड़ा होती, तो इसे क्रेडिट देना कठिन हो जाता कि यह फूलन देवी की असली कहानी है जो भारतीय बाल विवाहित है.

लेकिन क्या ऐसा है? यह सत्यकथा है? कोई कैसे यह तय करेगा? कौन तय करेगा?

शेखर कपूर कहते हैं कि फिल्म माला सेन की किताब - इंडिया की बैंडिट क्वीन : फूलन देवी की सच्ची कहानी (इंडियाज बैंडिट क्वीन : द ट्रू स्टोरी ऑफ फूलन देवी). किताब कहानी को पुनर्गठित करती है, इंटरव्यू के जरिये, न्यूजपेपर रिपोर्ट्स के जरिए, फूलन देवी से मुलाकातों के जरिए और फूलन देवी के लिखित वर्णन से लिए उद्धरणों के जरिए, जो कि जेल से उनसे मिलने जाने वालों ने तस्करी किये थे, हालांकि एक वक्त में कुछ एक पेज कर-करके ही.

कभी-कभी एक ही वाकये के कई सारे वर्जन - वर्जन जो एक-दूसरे से सीधे टकराते हैं जैसे फूलन का वर्जन, एक पत्रकार का वर्जन, और एक चश्मदीद गवाह का वर्जन - जिन सभी को किताब में पाठकों के लिए प्रस्तुत किया गया है. इससे जो उभरता है वह एक जटिल, बुद्धिमान और इंसानी किताब है. अस्पष्टता, चिंता और उत्सुकता से भरी कि जिस औरत को फूलन देवी कहा जाता है, वह असलियत में है क्या.

शेखर कपूर जिज्ञासु नहीं थे.

उन्होंने खुले तौर पर स्वीकार किया था कि उन्हें महसूस नहीं हुआ कि उन्हें फूलन से मिलने की जरूरत है.  उनके प्रोड्यूसर बॉबी बेदी इस फैसले का समर्थन करते हैं,  "शेखर उससे मिला होता अगर उसे इसकी जरूरत महसूस हुई होती." (संडे ऑब्जर्वर, 20 अगस्त, 1944)

जारी...

लेख के बारे में-

22 अगस्त 1994 को लिखा गया अरुंधति राय का लेख The Great Indian Rape-Trick I, शेखर कपूर की फिल्म बैंडिट क्वीन की मानवतावादी (न कि सिर्फ नारीवादी) दृष्टिकोण से फिल्म की आलोचना है. पॉपुलर आयामों में, खासकर कला को एक प्रॉडक्ट की शक्ल देते हुए, हो जाने वाली गलतियों को यह उजागर करता है.

अनुवाद के बारे में- 

करीब 2 साल से इस अनुवाद को पूरा करने की इच्छा थी ताकि हिंदी के पाठक जो अक्सर शेखर कपूर की इस फिल्म को लेकर कई वजहों से लहालोट रहते हैं, इसकी कमियों को भी बारीकी से समझें.

(नोट: इस बड़े लेख का कई हिस्सों में अनुवाद कर रहा हूं. इससे पहले किए किताबों के अनुवाद आप इससे पहले के ब्लॉग में पढ़ सकते हैं. आप मेरे लगातार लिखने वाले दिनों को ब्लॉग के होमपेज पर [सिर्फ डेस्कटॉप और टैब वर्जन में ] दाहिनी ओर सबसे ऊपर देख सकते हैं.)

Monday, May 4, 2020

Benedict Anderson की किताब Imagined Communities का संक्षिप्त अनुवाद: अफ्रीकी-एशियाई बुद्धिजीवियों ने अपने स्वतंत्र देशों के लिए यूरोपीय विचारों-औपनिवेशिक अनुभवों से ली प्रेरणा

अफ्रीकी-एशियाई बुद्धिजीवियों ने यूरोपीय विचारों और औपनिवेशिक अनुभवों से सीख अपने स्वतंत्र देश का निर्माण किया

अफ्रीकी-एशियाई बुद्धिजीवी अपने स्वतंत्र राष्ट्र बनाने के लिए यूरोपीय विचारों और औपनिवेशिक शासन के अपने अनुभवों पर आगे बढ़े

प्रथम विश्व युद्ध ने यूरोप के बहुराष्ट्रीय साम्राज्यों को मार दिया. 1922 तक, ऑस्ट्रो-हंगेरियन, रूसी और ऑटोमन साम्राज्य खत्म हो चुके थे. महाद्वीप पर, उन्हें नए स्वतंत्र राष्ट्रों ने प्रतिस्थापित कर दिया था. लीग ऑफ नेशंस, एक ऐसा संगठन, जिसने इस तरह के राष्ट्रों को नये अंतरराष्ट्रीय मानदंड के तौर पर देखा, अब राजनयिक संबंधों की जिम्मेदारी ले चुका था, जिसे पहले साम्राज्यवादी नौकरशाही संभाला करती थी. हालांकि इसमें गैर-यूरोपीय दुनिया शामिल नहीं थी. राष्ट्रवाद के युग में यूरोपीय साम्राज्यों के उपनिवेशों का क्या होगा?

इसका कोई उत्तर सामने आने में देर नहीं लगी.

इस अंक का मुख्य उद्देश्य है- अफ्रीका और एशियाई बुद्धिजीवी अपने स्वतंत्र राष्ट्र बनाने के लिए यूरोपीय विचारों और औपनिवेशिक शासन के अपने अनुभवों पर आगे बढ़े.

तीन कारकों ने औपनिवेशिक दुनिया में एशियाई और अफ्रीकी लोगों की अपने भविष्य के राष्ट्र की कल्पना करने में मदद की.

पहली थी तकनीक. 1850 से लेकर बीसवीं शताब्दी की शुरुआत के बीच परिवहन और संचार में जबरदस्त तरक्की हुई. टेलीग्राफ केबल ने विचारों को पलक झपकते महानगरों से दूर-दराज के इलाकों तक पहुंचने की क्षमता दी और नए स्टीमशिप और रेलवे ने भौतिक रूप में सामान या मनुष्यों के एक से दूसरी जगह आने-जाने में अभूतपूर्व वृद्धि की. इसके बाद, इससे एशियाई और अफ्रीकी लोगों को, यूरोप की शाही राजधानियों में औपनिवेशिक तीर्थयात्रा की अनुमति मिल गई. यहां पर उनके दिमाग में क्रांतिकारी राजनीतिक विचारों को चुना, अन्य उपनिवेशों के अपने समकक्षों से मिले, और राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए किए गए यूरोपीय संघर्ष के बारे में जाना.

दूसरे, उपनिवेशों में शिक्षा प्रणाली अक्सर अत्यधिक केंद्रीकृत होती थी. उदाहरण के तौर पर डच ईस्ट इंडीज में, हजारों एक-दूसरे से अलग द्वीपों के छात्रों को एक जैसी पाठ्य-पुस्तकों से एक जैसी चीजें सीखने को मिलीं. जब वे इस प्रणाली के जरिए आगे बढ़े, तो उन्हें संख्या में बहुत कम स्कूलों में से एक में डाला गया, वे तब तक इस प्रक्रिया में रहे, जब तक वे इन दो शहरों- बटाविया, जो आज का जकार्ता है और बांडुंग नहीं पहुंच गए, जहां विश्वविद्यालय थे. इस अनुभव ने इन युवा इंडोनेशियाई लोगों के दिमाग में एक विचार को मजबूत किया कि जिस द्वीपसमूह में वे रह रहे थे, वह एक एकीकृत क्षेत्र था, भले ही इसके निवासियों में विविधता थी.

आखिरकार, यूरोपीय नस्लवाद ने भी इस विचार को और मजबूत किया कि एक क्षेत्र विशेष में रहने वाली औपनिवेशिक प्रजा एक-दूसरे का हमवतन होने के विचार को मजबूत किया. क्योंकि औपनिवेशिक अधिकारियों ने शायद ही कभी अलग-अलग भारतीय या इंडोनेशियाई समूहों के बीच अंतर करने की जहमत उठाई, और इसके बजाए सभी के साथ तिरस्कृत मूल निवासी जैसा व्यवहार किया. जिसके बाद इस प्रजा ने अक्सर खुद को एक सामूहिक जिसे 'भारत' या 'इंडोनेशिया' कहते हैं, के सदस्यों के तौर पर देखा.

इन कारकों ने साथ मिलकर एक नया वर्ग तैयार किया- दो भाषाएं बोलने वाला और पश्चिम शिक्षा पाया बुद्धिजीवी वर्ग. इसके अंतर्गत आने वाले यूरोपीय राष्ट्रवाद के इतिहास में पारंगत थे और उपनिवेश को, मौलिक खासियतें साझा करने वाले लोगों द्वारा बसाए सुसंगत इलाके के तौर पर देखते थे.

यह वही वर्ग था, जिसने आगे चलकर द्वितीय विश्व युद्ध से 1970 के दशक तक एक-दूसरे से बहुत अलग देशों अंगोला, मिस्र और वियतनाम की स्वतंत्रता का नेतृत्व किया.

राष्ट्रवाद, सीमित समुदायों के तौर पर राष्ट्र की कल्पना करता है, जिसमें समान हित और लक्षण, और सबसे जरूरी तौर पर भाषा साझा करने वाले लोग रहते हैं. यह एक राजनीतिक विचारधारा नहीं है, बल्कि यह धार्मिक विश्वासों जैसी एक सांस्कृतिक प्रणआली है, जो एक आकस्मिक दुनिया में निरंतरता की भावना प्रदान करती है. राष्ट्रवाद शुरू में 'प्रिंट पूंजीवाद' का बाईप्रॉडक्ट था. जैसे किताब बेचने वालों ने नए बाजार खोजे, उन्होंने लैटिन जैसी पवित्र भाषाओं को छोड़ दिया और जर्मन जैसी क्षेत्रीय भाषाओं का इस्तेमाल किया. इसने पाठक समूहों को क्षेत्र विशेष में रहने वाले, साझा हितों वाले एक समुदाय के तौर पर खुद के बारे में कल्पना करने की अनुमति दी. क्षेत्रीय भाषाओं के मानकीकरण और समाचार पत्रों के उभार ने इस साझे राष्ट्रीय हित के विचार को मजबूत किया, अंतत: यूरोप और व्यापक रूस से दुनिया में बहुराष्ट्रीय साम्राज्य होते गए.


********** समाप्त **********

किताब के बारे में-

काल्पनिक समुदाय की अवधारणा को बेनेडिक्ट एंडरसन ने 1983 मे आई अपनी किताब 'काल्पनिक समुदाय' (Imagined Communities) में राष्ट्रवाद का विश्लेषण करने के लिए विकसित किया था. एंडरसन ने राष्ट्र को सामाजिक रूप से बने एक समुदाय के तौर पर दिखाया है, जिसकी कल्पना लोग उस समुदाय का हिस्सा होकर करते हैं. एंडरसन कहते हैं गांव से बड़ी कोई भी संरचना अपने आप में एक काल्पनिक समुदाय ही है क्योंकि ज्यादातर लोग, उस बड़े समुदाय में रहने वाले ज्यादातर लोगों को नहीं जानते फिर भी उनमें एकजुटता और समभाव होता है.

अनुवाद के बारे में- 

बेनेडिक्ट एंडरसन के विचारों में मेरी रुचि ग्रेजुएशन के दिनों से थी. बाद के दिनों में इस किताब को और उनके अन्य विचारों को पढ़ते हुए यह और गहरी हुई. इस किताब को अनुवाद करने के पीछे मकसद यह है कि हिंदी माध्यम के समाज विज्ञान के छात्र और अन्य रुचि रखने वाले इसके जरिए एंडरसन के कुछ प्रमुख विचारों को जानें और इससे लाभ ले सकें. इसलिए आप उनके साथ इसे शेयर कर सकते हैं, जिन्हें इसकी जरूरत है.

(नोट: किताब का एक अंक रोज़ अनुवाद कर रहा था. पिछले अंक आप इससे पहले के ब्लॉग में पढ़ सकते हैं. आप मेरे लगातार लिखने वाले दिनों को ब्लॉग के होमपेज पर [सिर्फ डेस्कटॉप और टैब वर्जन में ] दाहिनी ओर सबसे ऊपर देख सकते हैं.)

Saturday, May 2, 2020

Benedict Anderson की किताब Imagined Communities का संक्षिप्त अनुवाद: राष्ट्रवाद ने यूरोप के बहुराष्ट्रीय साम्राज्यों को कमजोर किया

राष्ट्रवादी समाजों में लोग अपने जैसा बोलने और देखने वालों के हाथ में शासन सौंपना चाहते हैं (फोटो क्रेडिट: मीडियम)

राष्ट्रवाद के उदय ने यूरोप के बहुराष्ट्रीय साम्राज्यों को कमजोर कर दिया क्योंकि इसके सिद्धांत, राजशाही के साथ फिट नहीं बैठते थे


एक चेक राष्ट्रवादी की कल्पना कीजिए- हम उसे 19वीं शताब्दी के प्राग का एंटोनिन कह लेते हैं. वह जर्मन बोलता है, जो कि राज्य की आधिकारिक भाषा है, लेकिन साधारणत: अपनी मातृभाषा बोलना पसंद करता है. वह चेक उपन्यास और अख़बार पढ़ता है, और उसके पसंदीदा संगीतकार चेक देशभक्त स्मेताना और डावोक हैं. उसके राजनीतिक लक्ष्य क्या होंगे? संभावना है कि अपनी पसंदीदा सूची के साथ वह चेकों का शासन चुने. और इसी कयास के चलते जिन लोगों के पास शासन का अधिकार है, उनके लिए एंटोनिन एक समस्या बन जाता है.

क्यों? खैर, यही इस अंक का प्रमुख विचार है- राष्ट्रवाद के उदय ने यूरोप के बहुराष्ट्रीय साम्राज्यों को कमजोर कर दिया क्योंकि इसके सिद्धांत, राजशाही के साथ फिट नहीं बैठते थे.

19वीं शताब्दी का यूरोप बहुराष्ट्रीय साम्राज्यों से टांकी गई एक रजाई था. उदाहरण के तौर पर वियना में हैब्सबर्ग्स, आल्प्स से कार्पेथियन तक फैला एक विशाल क्षेत्र था, जिसमें हंगरी, जर्मन, क्रोएशिया के, स्लोवाकिया के, इटली के और चेक लोग शामिल थे. 19वीं सदी के यूरोप में सेंट पीटर्सबर्ग में फ्रांसीसी बोलने वाले रोमानोव लोगों ने टार्टर्स, लेट्स, आर्मेनियाई, रूसी और फिन लोगों वाले एक और बड़े साम्राज्य को पर सत्ता जमाई थी.

पिछले अंक में हम जिन दार्शनिक क्रांतिकारियों से मिले, उन्होंने इन साम्राज्यों को एक गंभीर दुविधा वाला बताया. हैब्सबर्ग को ले लेते हैं. 1780 में सम्राट जोसेफ द्वितीय ने लैटिन से जर्मन भाषा को राज्य भाषा बनाने का फैसला किया. यह एक व्यावहारिक कदम था. लैटिन के विपरीत, जर्मन एक आधुनिक भाषा थी, जिसे पहले से ही बड़ी ऑस्ट्रो-हंगेरियन जनता बोलती आई थी. साथ ही इसका विशाल साहित्य भी मौजूद था. जिसने इसे साम्राज्य को एकजुट करने वाला वाला एक ठोस तत्व बनाया.

लेकिन एंटोनिन जैसे राष्ट्रवादियों ने इसे इस तरह से नहीं देखा. जितना ज्यादा हब्सबर्ग ने जर्मन को बढ़ावा दिया, उतना ही ज्यादा क्रोएशियन, हंगेरियन, चेक और अन्य भाषाएं बोलने वालों ने महसूस किया कि राज्य खुद को सिर्फ एक अल्पसंख्यक समूह के हितों से जोड़ रहा था और उनके हितों की अनदेखी कर रहा था. इस प्रक्रिया को उल्टा करना भी कोई विकल्प नहीं था. यदि हब्सबर्ग, कह लें कि हंगेरियन को बढ़ावा देता, तो इससे नाराज राष्ट्रीयताओं का एक अन्य समूह पैदा हो जाता, जिसमें अब जर्मन बोलने वाले भी शामिल होते.

कुछ साम्राज्यों ने सबसे बड़े जातीय समूह के साथ राष्ट्रवाद को जोड़कर, ऊपर से नीचे चलने वाली व्यवस्था या आधिकारिक लोगों को खुद से मिलाकर इस बंधन को तोड़ने की कोशिश की. वह भी अल्पसंख्यकों के साथ ऐसा तब किया गया, जब लोकप्रिय, या नीचे से ऊपर की ओर चलने वाली व्यवस्था, राष्ट्रवाद के चैंपियन थे. यही काम रूसी साम्राज्य ने 19वीं सदी के अंत में किया. इसने रूसीकरण की शुरुआत की, यह एक ऐसी प्रक्रिया थी, जिसके तहत अल्पसंख्यकों की भाषाओं पर प्रतिबंद लगा दिया गया और रूसी को राज्य, संस्कृति और सार्वजनिक जीवन की भाषा बना दिया गया. यह एक अंधा कुआं था, और इसमें आगे बड़े पैमाने पर अशांति और खुले विद्रोह की घटनाएं हुईं.

यह आश्चर्य की बात नहीं है कि यह समस्या साम्राज्यों के लिए चुभने वाला कांटा बन गईं. राष्ट्रवाद के केंद्र में यह विचार होता है कि राष्ट्र पर उन लोगों का शासन होना चाहिए, जो उनकी तरह ही देखते और बात करते हों, और यह बहुराष्ट्रीय साम्राज्यों के तर्क के बिल्कुल उल्टा एक तर्क है.

किताब के बारे में-

काल्पनिक समुदाय की अवधारणा को बेनेडिक्ट एंडरसन ने 1983 मे आई अपनी किताब 'काल्पनिक समुदाय' (Imagined Communities) में राष्ट्रवाद का विश्लेषण करने के लिए विकसित किया था. एंडरसन ने राष्ट्र को सामाजिक रूप से बने एक समुदाय के तौर पर दिखाया है, जिसकी कल्पना लोग उस समुदाय का हिस्सा होकर करते हैं. एंडरसन कहते हैं गांव से बड़ी कोई भी संरचना अपने आप में एक काल्पनिक समुदाय ही है क्योंकि ज्यादातर लोग, उस बड़े समुदाय में रहने वाले ज्यादातर लोगों को नहीं जानते फिर भी उनमें एकजुटता और समभाव होता है.

अनुवाद के बारे में- 

बेनेडिक्ट एंडरसन के विचारों में मेरी रुचि ग्रेजुएशन के दिनों से थी. बाद के दिनों में इस किताब को और उनके अन्य विचारों को पढ़ते हुए यह और गहरी हुई. इस किताब को अनुवाद करने के पीछे मकसद यह है कि हिंदी माध्यम के समाज विज्ञान के छात्र और अन्य रुचि रखने वाले इसके जरिए एंडरसन के कुछ प्रमुख विचारों को जानें और इससे लाभ ले सकें. इसलिए आप उनके साथ इसे शेयर कर सकते हैं, जिन्हें इसकी जरूरत है.

(नोट: किताब का एक अंक रोज़ अनुवाद कर रहा हूं. आप मेरे लगातार लिखने वाले दिनों को ब्लॉग के होमपेज पर [सिर्फ डेस्कटॉप और टैब वर्जन में ] दाहिनी ओर सबसे ऊपर देख सकते हैं.)

Benedict Anderson की किताब Imagined Communities का संक्षिप्त अनुवाद: यूरोप में 19वीं सदी की भाषाई क्रांति और राष्ट्रवाद

अमेरिका जैसे महाद्वीपों की खोज के बाद चली प्रक्रिया से यूरोप के सांस्कृतिक अहं को नुकसान हुआ

एक भाषाई क्रांति ने यूरोप में 19वीं शताब्दी के राष्ट्रवाद को बढ़ाया


सदियों तक यूरोप खुद को दुनिया में अकेला महाद्वीप मानता आया था. इसे विश्वास था कि इसे ईसाईयत और प्राचीन ग्रीस की सांस्कृतिक और नैतिक विरासत के उत्तराधिकारी के तौर पर दिव्य रूप से चुना गया था. इसका मतलब यह था कि यह केवल एक श्रेष्ठ सभ्यता नहीं थी, यह दुनिया की एकमात्र सभ्यता थी. लेकिन, यह विश्वविजयी दृष्टिकोण, यूरोप के अमेरिका की खोज कर लेने के बाद जीवित नहीं रह सका.

1500 से अन्य सभ्यताओं के संपर्क में आने के बाद, यूरोपीय लोग भाषाओं के अध्ययन में अधिक रूचि लेने लगे. शुरुआत में यह आवश्यकता के चलते हुआ- नाविकों और व्यापारियों को आखिरकार उन लोगों से संवाद की जरूरत होती थी, जिनसे उनका यात्राओं के दौरान सामना होता था.

हालांकि, समय बीतने के साथ, संस्कृत और मिस्र की चित्रलिपि जैसी प्राचीन भाषाओं के अध्ययन के जरिए कुछ चौंकाने वाली खोजें सामने आईं. यह था कि न केवल प्राचीनता अधिक विविधतापूर्ण थी बल्कि कई सभ्यताएं तो ग्रीक और यहूदी दुनिया, जिनके आधार पर यूरोपीय संस्कृति विकसित हुई थी, से बहुत पुरानी थीं. एक बहुलवादी दुनिया में, लोगों ने यह निष्कर्ष निकाला कि साधारण तरह से यूरोप सिर्फ कई सभ्यताओं में से एक है और जरूरी नहीं है कि यह सबसे अच्छा है.

इस खोज ने पहले वैज्ञानिक विषय- भाषा अध्ययन की शुरुआत की. जो भाषाई विकास का तुलनात्मक अध्ययन था. इसने अपने केंद्र में विकास को रखा. जिसके बाद हुई भाषाई क्रांति ने लैटिन, ग्रीक और हिब्रू जैसी पवित्र भाषाओं के खत्म होने का नेतृत्व किया. ये भाषाएं, विशिष्ट रूप से प्राचीन और दैवीय प्रेरणा वाली होने का दावा किया करती थीं. जब यह धारणा समाप्त हो गई तो वे अपनी प्रतिद्वंदी जनसाधारण की स्थानीय भाषाओं के साथ बराबरी पर आ गईं.

लेकिन अगर सभी भाषाओं ने एक जैसी, दुनियावी स्थिति साझा की तो क्या वे सभी अध्ययन और प्रशंसा के लिए समान रूप से योग्य नहीं होंगी? 19वीं शताब्दी के यूरोपियों के लिए, यह उत्तर एक 'हां' की गूंज था. इसने एक शब्दकोष संबंधी क्रांति की शुरुआत की क्योंकि भाषा विज्ञानियों और व्याकरणविदों ने लोककथाओं और साहित्यिक इतिहास के साथ-साथ स्थानीय भाषा के शब्दकोषों को संकलित करना शुरू कर दिया.

इन विद्वानों ने स्थानीय भाषाओं पर जिनती अधिक देर गौर किया, वे उतने ही ज्यादा आश्वस्त हुए कि उन्हें बोलने वालों ने विशिष्ट समुदायों का गठन किया है. यह खोज वह आधार था, जिसके आधार पर राष्ट्रवादी संगठनों ने स्वतंत्र पहचान का तर्क दिया.

उदाहरण के लिए पहला यूक्रेनी व्याकरण, 1819 में सामने आया. दस सालों के अंदर, यूक्रेनियन को कवि और लोकगीतकार तारास शेवचेंको द्वारा एक आधुनिक साहित्यिक भाषा के तौर पर ढाल दिया गया. 1846 में पहला यूक्रेनी राष्ट्रवादी संगठन कीव में स्थापित किया गया. बेरूत से, जहां अमेरिका शिक्षित ईसाईयों ने 1860 में आधुनिक अरबी का मानकीकरण किया, वहीं 1870 के दशक में यह मानकीकरण ओस्लो में हुआ, जहां 1850 में नॉर्वे का पहला शब्दकोष छपा था, इसी पैटर्न को दोहराया गया था. क्षेत्रीय भाषाओं को व्यवस्थित किया जाना, राष्ट्रीय समुदाय की कल्पना का एक तरीका ही नहीं था, यह इसे अस्तित्व में लाने का एक तरीका था.

हर व्यक्ति विशिष्ट है, उसका अपना राष्ट्रीय चरित्र है, जो उसकी अपनी भाषा द्वारा व्यक्त होता है. - जर्मन कवि जॉन गॉटफ्रेड हेर्डर (1744-1803)

किताब के बारे में-

काल्पनिक समुदाय की अवधारणा को बेनेडिक्ट एंडरसन ने 1983 मे आई अपनी किताब 'काल्पनिक समुदाय' (Imagined Communities) में राष्ट्रवाद का विश्लेषण करने के लिए विकसित किया था. एंडरसन ने राष्ट्र को सामाजिक रूप से बने एक समुदाय के तौर पर दिखाया है, जिसकी कल्पना लोग उस समुदाय का हिस्सा होकर करते हैं. एंडरसन कहते हैं गांव से बड़ी कोई भी संरचना अपने आप में एक काल्पनिक समुदाय ही है क्योंकि ज्यादातर लोग, उस बड़े समुदाय में रहने वाले ज्यादातर लोगों को नहीं जानते फिर भी उनमें एकजुटता और समभाव होता है.

अनुवाद के बारे में- 

बेनेडिक्ट एंडरसन के विचारों में मेरी रुचि ग्रेजुएशन के दिनों से थी. बाद के दिनों में इस किताब को और उनके अन्य विचारों को पढ़ते हुए यह और गहरी हुई. इस किताब को अनुवाद करने के पीछे मकसद यह है कि हिंदी माध्यम के समाज विज्ञान के छात्र और अन्य रुचि रखने वाले इसके जरिए एंडरसन के कुछ प्रमुख विचारों को जानें और इससे लाभ ले सकें. इसलिए आप उनके साथ इसे शेयर कर सकते हैं, जिन्हें इसकी जरूरत है.

(नोट: किताब का एक अंक रोज़ अनुवाद कर रहा हूं. आप मेरे लगातार लिखने वाले दिनों को ब्लॉग के होमपेज पर [सिर्फ डेस्कटॉप और टैब वर्जन में ] दाहिनी ओर सबसे ऊपर देख सकते हैं.)

Friday, May 1, 2020

Benedict Anderson की किताब Imagined Communities का संक्षिप्त अनुवाद: काल्पनिक समुदाय 'राष्ट्र' के निर्माण में अखबारों का योगदान

अखबार 'आधुनिक व्यक्ति' के लिए सुबह की प्रार्थना का एक विकल्प थे- हीगल

स्थानीय भाषा के अखबारों ने साझा हित वाले लोगों को एक सामूहिकता में बांधा


लैटिन और अरबी जैसी पवित्र भाषाओं के जरिए धार्मिक समुदायों की कल्पना की गई थी. इन्होंने (भाषाओं ने) लाखों आस्तिकों को ईश्वर से उनके एक से संबंध के जरिए एक-दूसरे से जुड़ा महसूस करवाया. जैसी हम चर्चा भी कर चुके हैं, छपाई ने राष्ट्रीय भाषाओं के मानकीकरण में मदद की, और इससे पाठकों ने खुद के बारे में एक धर्मनिरपेक्ष समुदाय के सदस्य के तौर पर कल्पना करने करने की शुरुआत की.

लेकिन यह सामान्य तौर पर सिर्फ छपाई नहीं थी, जिसने इस प्रक्रिया को चलाया- यह एक विशेष प्रक्रिया के तहत हुआ.

यहां यह प्रमुख संदेश है- स्थानीय भाषा के अखबारों ने साझा हित वाले लोगों को एक सामूहिकता में बांधा.

उन्नीसवीं सदी के जर्मन दार्शनिक हीगल ने एक बार टिप्पणी की थी कि अखबार 'आधुनिक व्यक्ति' के लिए सुबह की प्रार्थना का एक विकल्प थे. ठीक है, नीचे इसकी व्याख्या करते हैं.

प्रार्थना एक निजी कार्य है, जिसे मान्यता प्राप्त तरीके से अंजाम दिया जाता है. जब धर्म विशेष के लोग प्रार्थना करते हैं, तो वे जानते हैं कि जिस समारोह में वे प्रदर्शन कर रहे हैं, उसे लाखों आस्तिकों द्वारा साथ-साथ दोहराया जा रहा है. अभी, उन्हें इस बात का जरा भी पता नहीं है कि ये दूसरे लोग कौन हैं, लेकिन वे अपने अस्तित्व के बारे में बिल्कुल निश्चित होते हैं.

एक अख़बार पढ़ना भी इसी तरह का एक 'समारोह' है. प्रत्येक सुबह, पाठक एक साथ अपने अख़बार खोलते हैं. प्रार्थना कर रहे आस्तिकों की तरह, वे जानते हैं कि हजारों या लाखों लोग उसी समय बिल्कुल ऐसा ही कर रहे हैं. यह एक तथ्य है कि ये पाठक मेट्रो में यात्रा के दौरान और नाई के यहां अपने बाल कटाते हुए देखते हैं कि अन्य लोग भी उनकी ही तरह अख़बार अपने हाथों में खोले हुए हैं, वे इस तरह से इस बात को पक्का कर लेते हैं कि उनकी काल्पनिक दुनिया केवल एक गल्प नहीं है.

इस साथ-साथ किए जा रहे काम का मतलब है कि पाठक एक साझा राष्ट्रीय लेंस के जरिए घटनाओं के गवाह बन रहे हैं. उदाहरण के लिए मैक्सिको के लोगों को अर्जेंटीना में हुए एक तख्तापलट के बारे में पता चलता है लेकिन ऐसा उन्हें यह जानकारी मैक्सिको के समाचार पत्रों के माध्यम से होती है न कि अर्जेंटीना में रहने वाले साथी नागरिकों के जरिए. अगर ये अखबार ब्यूनस आयर्स की घटनाओं पर रिपोर्ट नहीं करते, तो ऐसा नहीं होता कि पाठकों के लिए अर्जेंटीना की किसी तरह की मौजूदगी खत्म हो जाती. इसके बजाए, वे यह मानते कि, किसी उपन्यास के उस चरित्र की तरह, जो एक-दो अध्यायों में बिल्कुल नदारद रहता है, उसी तरह यह दक्षिणी अमेरिकी देश, फिर से उभरकर सामने आएगा, जब यह घटनाक्रम में आगे कोई जरूरी पड़ाव आएगा.

इसे अलग तरह से कहें, तो अखबार जिस तरह से किसी सूचना के खबर होने को परिभाषित करते हैं, वह एक राष्ट्रीय हित की भावना पैदा करता है. अगर अभी मैक्सिको के लोग अर्जेंटीना के बारे में नहीं पढ़ रहे हैं क्योंकि फिलहाल अर्जेंटीना मैक्सिको के लिए अप्रासंगिक है.

एक ही समाचार के अज्ञात पाठकों द्वारा एक ही भाषा में, साझे सामूहिक हितों की यह भावना पनपना ही राष्ट्र के कल्पित समुदाय के केंद्र में है. यह वही है जो एक अमेरिकी, जो अपने 32 करोड़ हमवतनों में से मुट्ठीभर से ज्यादा से कभी नहीं मिलेगा, को यह निश्चितता देता है कि 31 करोड़, 99 लाख, 99 हजार, 999 अन्य अमेरिकी, जो उसी की तरह हैं, किसी 'संयुक्त राज्य अमेरिका' नाम की किसी चीज के हिस्से हैं.

किताब के बारे में-

काल्पनिक समुदाय की अवधारणा को बेनेडिक्ट एंडरसन ने 1983 मे आई अपनी किताब 'काल्पनिक समुदाय' (Imagined Communities) में राष्ट्रवाद का विश्लेषण करने के लिए विकसित किया था. एंडरसन ने राष्ट्र को सामाजिक रूप से बने एक समुदाय के तौर पर दिखाया है, जिसकी कल्पना लोग उस समुदाय का हिस्सा होकर करते हैं. एंडरसन कहते हैं गांव से बड़ी कोई भी संरचना अपने आप में एक काल्पनिक समुदाय ही है क्योंकि ज्यादातर लोग, उस बड़े समुदाय में रहने वाले ज्यादातर लोगों को नहीं जानते फिर भी उनमें एकजुटता और समभाव होता है.

अनुवाद के बारे में- 

बेनेडिक्ट एंडरसन के विचारों में मेरी रुचि ग्रेजुएशन के दिनों से थी. बाद के दिनों में इस किताब को और उनके अन्य विचारों को पढ़ते हुए यह और गहरी हुई. इस किताब को अनुवाद करने के पीछे मकसद यह है कि हिंदी माध्यम के समाज विज्ञान के छात्र और अन्य रुचि रखने वाले इसके जरिए एंडरसन के कुछ प्रमुख विचारों को जानें और इससे लाभ ले सकें. इसलिए आप उनके साथ इसे शेयर कर सकते हैं, जिन्हें इसकी जरूरत है.

(नोट: किताब का एक अंक रोज़ अनुवाद कर रहा हूं. आप मेरे लगातार लिखने वाले दिनों को ब्लॉग के होमपेज पर [सिर्फ डेस्कटॉप और टैब वर्जन में ] दाहिनी ओर सबसे ऊपर देख सकते हैं.)