Tuesday, September 5, 2017

मुस्तकबिल से मुख़्तसर सी मुलाकात!



पिछली बार ऐसे किसी इंसान से लगभग इतने ही वक्त के लिए मिला था तो दो दिन तक उसी के लहजे में बोलता रहा था. अब शायद तितली के पंख के रंग पक्के हो चले हैं. उतने उंगलियों पर नहीं रह जाते. मेरी उंगलियां भी शायद ज्यादा ही समझदार हो गई हैं जो पंखों के रंग में रंगने से खुद को बचा लेती हैं. पर मैं जानता हूं कि ये वही इंसान है और बार-बार भेस बदल मेरे पास आता है. मैं उसके तिलिस्म पर माइल रहा हूं और रहूंगा. वो इंसान है ये बात खूबसूरत है और उसके बार-बार देवता होने के प्रयास मेरा मनोरंजन करते हैं. मुझे इसी प्रयास से प्यार है.
मां अक्सर कहती हैं, ऐसे बनो की तुम्हें कोई कह ना सके. महानगरों के असर ने मुझे ऐसा नहीं रहने दिया. महानगरों ने सिखाया, ऐसे बनो कि कोई कुछ भी कहे तुम्हें असर ना पड़े. ऐसे कि जो तुम्हें सही लगता हो, वही सच हो. पर अचानक से उस इंसान में मुझे अपना भविष्य दिखने लगता है. कल भी उसकी जिम्मेदारी मुझे भाती थी. तब भी जब मैं जानता था जिम्मेदारी के बोझ से दबा वो देवता इच्छाओं को दमित करते हुए कष्ट से कराह उठता है. मैंने खुद के लिए हमेशा से ही बेपरवाही और गैरजिम्मेदारी चुनी. मैं खुश रहा. बात नहीं बनी तो तेजी से उसे भुला कर आगे चल दिया. यहां तक कि पीछे भी मुड़कर नहीं देखा. पर जाने क्यों मुझे रश्क़ होता है उनसे, जिनकी मां ने कहा ऐसे मत बनो कि तुम्हें कोई कुछ कह सके और उन्होंने मान जीवन भर वो सीख खुशी-खुशी निभाई.


मैंने इंसान होने की सारी शर्तें पूरी करने में जुटा रहा, जिस वक्त भी आदर्श विकसित होने लगे, उनकी पीठ में छुरा घोंप आया. पर वो मुझे आकर्षित करते हैं. मैं उनकी तरह नहीं होना चाहता पर मैं ऐसे लोगों को पसंद करता हूं. कभी-कभी लगता है, जैसे आधा पिघला मोम सारी धरती पर बह रहा है और मैं तमाम पक्षियों के शोर के बीच उसमें धंसा बड़ी मुश्किल से चलता चला जा रहा हूं. मुझे आगे की राह मधुमक्खियां दिखा रही हैं. और वहां मैं इन मधुमक्खियों के देवताओं से मिलता हूं. जो इनके चारों ओर चिपकी रहती हैं. कितना अच्छा लगता है, जब आपका भविष्य (कल्पनात्मक ही) आपके सामने बैठकर आपसे बातें करें. हंसकर अपनी कमजोरियां बताए और अपना मजाक उड़ाते हुए, खुद की बेवकूफियां गिनाना शुरू कर दे. मैंने देखा है. हां! मैंने देखा है. मैंने चार साल बाद फिर से वो जादू देखा है, जो मुझे अभिभूत कर देता है और मैं बरसों-बरस बल्कि ताउम्र उस तिलिस्म में बंधा रहना चाहता हूं...



Wednesday, March 22, 2017

कविता- कवि


ईश्वर घोड़े के अलावा
जिसे रचकर पछताया
वो कवि ही था
जिसे समझदार इंसानों ने
बुरी तरह निराश कर
ईश्वर के सामने पेश किया
और वो ईश्वर के सामने
दुबला-पतला
मरियल सा
बेतरतीब बालों के साथ
फटे- चीथड़े कपड़ों में
आशाहीन आँखों के साथ
मुँह लटकाए
पहुँचा
ये कहानी सुनकर
मैंने कवियों की संगत की
और जाना
ये प्रजाति निराश है
पर मानती है
दुनिया बदलने का माद्दा उसमें है
यूं तो अक्सर इंटरनेशनल कवि
बीड़ी, सिगरेट या सिगार
पीते दिखते हैं
पर मैंने कवियों को
गाय के बछड़ों की तरह
गंदी नालियों से
पानी पीते देखा है
कवि प्रेमिकाओं का साथ चाहता है
पर उनका साथ देना नहीं चाहता
कवि समझता है
उसकी रचना तानाशाहों के
तख़्त पलट देगी
और इसी भ्रम में
तड़प-तड़प कर मर जाता है
छोड़ जाता है
भूखी- रोती- बिलखती
अपनी पीढियां
कवि जब रचता है
तब हँसता नहीं
मुस्कुरा सकता है
फिर भी अधिकांशतः
उद्वेगों में डूबा
कसमसाता रहता है
जिंदगी भर चिल्लाता रहने वाला कवि
जो विरोध का मूर्त रूप
माना जाने लगता है
अक्सर बिल्कुल शान्ति से मर जाता है
और उसकी कवितायें
उसकी कब्र पर
गाए जाने के
काम आती हैं

Thursday, March 16, 2017

कवि चार्ल्स बुकोव्स्की की कविता  'Alone With Everybody' का हिंदी अनुवाद- 'भीड़ में तन्हा'




मांस हड्डियों को ढंक लेता है
और वो एक दिमाग रख देते हैं
उसमें
और कभी-कभी एक आत्मा भी
फिर औरतें तोड़ती हैं फूलदान
दीवारों पर पटक कर
और आदमी
छककर पीते हैं
और कोई भी
दूसरे को नहीं पाता
फिर भी
एक-दूसरे को खोजते रहते हैं
एक-दूसरे के बिस्तरों से होकर
गुजरते रहते हैं.
फिर हड्डियां आती हैं
जिन्हें मांस ढंक लेता है
और मांस फिर खोजता है
निरे मांस से
कुछ ज्यादा

फिर भी यहां
कोई मौका नहीं
हम सभी जकड़े है
एक से
दुर्भाग्य में

कोई भी कभी नहीं पाता
दूसरे को

शहर की जेलें भर जाती हैं
कचरा पेटियां भर जाती हैं
पागलखाने भर जाते हैं
हस्पताल भर जाते हैं
कब्रिस्तान भर जाते हैं

और कुछ भी

नहीं भरता



Original Poem



the flesh covers the bone 
and they put a mind 
in there and 
sometimes a soul, 
and the women break 
vases against the walls 
and the men drink too 
much 
and nobody finds the 
one 
but keep 
looking 
crawling in and out 
of beds. 
flesh covers 
the bone and the 
flesh searches 
for more than 
flesh. 



there's no chance 
at all: 
we are all trapped 
by a singular 
fate. 



nobody ever finds 
the one. 



the city dumps fill 
the junkyards fill 
the madhouses fill 
the hospitals fill 
the graveyards fill 



nothing else 
fills. 
__________________________________________________________________

चार्ल्स बुकोव्स्की से मेरा पहला परिचय एक कविता के माध्यम से हुआ। ये कविता थी
'So You Want To Be A Writer'। 
मैंने इसका हिंदी अनुवाद पढ़ा था। जो कि कवि और गीतकार वरुण ग्रोवर ने किया था। कविता मुझे पसंद आई। मैंने बुकोव्स्की की और रचनाएं पढ़ीं तो मुझे उनकी ये रचना Alone With Everybody पसंद आई। इसका हिंदी अनुवाद आपके सामने है। बुकोव्स्की एक जर्मनी में पैदा हुए अमेरिकी कवि थे।
 उनकी एक पंक्ति 'We are here to laugh at the odds and live our lives so well that Death will tremble to take us' मुझे खासी पसंद है।

'जॉन मिल्टन' की कविता 'ऑन हिज ब्लाइंडनेस' (ON HIS BLINDNESS) का हिंदी अनुवाद




जब मैं समझा ये दुनिया रोशनी खो चुकी है और मेरी आंखें अंधी हो चुकी हैं
फिर भी आधी जिंदगी और काटनी है; इस अंधेरे, बड़े संसार को बांटनी है
आज जब कर्म ही पूजा है मैं जानता हूं, आत्मा को मालिक की सेवा के और काबिल मानता हूं
पर वो कैसे कह सकता है सुंदर अक्षरों के लिए, जब खुद ही बुझाए हैं मेरी आंखों के दिए
मैं आसमान पर चिल्लाकर पूछना चाहता हूं,
पर धैर्य मेरी भुनभुनाहट का गला रेत देता है
हड़बड़ाया सा जवाब देता है, वो है ईश्वर!
इंसान क्या ही उसकी इच्छा पुराएगा? उसका मन उपहारों से लुभाएगा?
जो भी बैलों सी लगाम मुंह में डाले नधता जाता है
वही उस स्वर्गिक सत्ता वाले की सेवा कर पाता है
कहते हैं, उसका एक आदेश पाते ही हजारों  दौड़ जाते हैं, जमीन और सागरों के पार
यों ही वे उसकी सेवा करते हैं, जो लंगड़े होकर भी खड़े रहते हैं और करते हैं इंतजार

और जिसे मौत ही छीन सकती है मेरा वो फन, अब यूं फालतू है जैसे गरीब का यौवन
फिर सोचता हूं आज वो मुझे नकार देगा, सेवा न कर पाने पर फटकार देगा

______________________________________________________________________

Original Poem



When I consider how my light is spent

Ere half my days in this dark world and wide,

And that one talent which is death to hide

Lodg’d with me useless, though my soul more bent
To serve therewith my Maker, and present
My true account, lest he returning chide,
“Doth God exact day-labour, light denied?”
I fondly ask. But Patience, to prevent
That murmur, soon replies: “God doth not need
Either man’s work or his own gifts: who best
Bear his mild yoke, they serve him best. His state
Is kingly; thousands at his bidding speed
And post o’er land and ocean without rest:
They also serve who only stand and wait.”
_______________________________________________________________________

जॉन मिल्टन(1608-74) एक अंग्रेज कवि थे। अंग्रेजी के क्लासिक कवियों में उनका नाम लिया जाता है। मिल्टन की आँखों की रौशनी उनकी उम्र के 42वें साल में पूरी तरह से चली गई थी। उसके बाद मिल्टन ने इसी घटना पर एक ग्रंथ लिखा। जिसका नाम था PARADISE LOST। यह उनका सबसे चर्चित ग्रंथ भी है। प्रस्तुत कविता उनकी सबसे चर्चित कविताओं में से एक है। इस कविता को अंग्रेजी की सर्वकालिक महान कविताओं में स्थान प्राप्त है। यह कविता पहली बार मैंने 11वीं में पढ़ी थी। तब मुझे बताया गया था कि मिल्टन कविता के आखिरी में ईश्वर में अपना विश्वास प्रकट कर रहा है। पर जब मैं बड़ा हुआ और ये कविता मैंने कई बार पढ़ी तो मुझे लगा कि दरअसल मिल्टन बड़े ही कुलीन तरीके से ईश्वर पर तंज कस रहा है। इसलिए इसी बात को ध्यान में रखते हुए मैंने इस कविता का हिंदी में अनुवाद किया है। आशा है हम ईश्वर को लेकर अपनी तमाम बहसों में अपने-अपने स्तर से एक हल पर जल्द ही पहुंचेंगे।

Tuesday, March 14, 2017

अमेरिकी कवि 'एडगर एलन पो' की कविता 'ए ड्रीम विदइन ए ड्रीम' का हिंदी अनुवाद- 'इक ख्वाब के भीतर इक ख्वाब'


मेरा ये बोसा अपने माथे पर रख लो!
और, खुद से मुझे बिझड़ने दो
हां, बस इतना खुलकर कहने दो
तुम सही थी, जब कहती हर पल छिन
की ख्वाब हैं मेरे सारे दिन
फिर भी अगर आस सो गई
किसी रात, किसी दिन खो गई
समझते हुए या बिना समझे हमदम
क्या हमने खोया है कुछ कम?
जो कुछ भी हम देखते, समझते हैं
बस इक ख्वाब के भीतर इक ख्वाब संजोते हैं

तेज शोर के बीच मैं हूं खड़ा
समंदर के किनारे दुखों से भरा
उठा लेता हूं हथेली में उसी क्षण
सुनहरी रेत के महीन-महीन कण---
कितने कम हैं? फिर भी फिसल जाते हैं
उंगलियों के बीच से नीचे बिखर जाते हैं
उस दौरान रोता हूं, हां, सिर्फ और सिर्फ रोता हूं!
क्या मैं उन्हें नहीं समझा सकता, ऐ परवर!
ये सब बातें, जोर से गले लग कर?
क्या मैं नहीं बचा सकता, ऐ परवर!
निर्दयी लहरों से अपना हमसफर?
क्या वाकई हम जो देखते हैं, समझते हैं
बस इक ख्वाब के भीतर इक ख्वाब संजोते हैं?



मूल कविता-



Take this kiss upon the brow!


And, in parting from you now,

Thus much let me avow--

You are not wrong, who deem

That my days have been a dream;

Yet if hope has flown away
In a night, or in a day,
In a vision, or in none,
Is it therefore the less gone?
All that we see or seem
Is but a dream within a dream.

I stand amid the roar

Of a surf-tormented shore,
And I hold within my hand
Grains of the golden sand--
How few! yet how they creep
Through my fingers to the deep,
While I weep--while I weep!
O God! can I not grasp
Them with a tighter clasp?
O God! can I not save
One from the pitiless wave?
Is all that we see or seem
But a dream within a dream?
_____________________________________________________
एडगर एलन पो पैदा अमेरिका के बोस्टन में हुए थे। बचपन में ही वो अनाथ हो गए थे। एक अमेरिकी तंबाकू व्यापारी ने उन्हें पाला और पढ़ने के लिए ब्रिटेन भेज दिया। एलन पो अपनी शॉर्ट स्टोरी THE TELL- TALE HEART से मुझे बहुत पसंद आना शुरू हुए। मैंने उनकी कुछ कविताएं पढ़ीं तो ये कविता मुझे हमेशा ही सम्मोहित करती रही। इसलिए मैं इसका अनुवाद पेश कर रहा हूं। यूं तो एडगर कुल 40 वर्ष ही जिए 19वीं सदी के पूर्वाध में, पर उनका अंग्रेजी के साहित्य पर गहरा प्रभाव है। उनके बाद के कई लेखकों ने उनकी अद्भुत शैली को अपनाया। उनके नाम का एक रहस्यमयी किरदार हॉलीवुड फिल्म 'THE RAVEN' में भी है।

ताऊजी


छवि- प्रतिरूप मात्र (इंस्टाग्राम)


महानगर में

लोगों के उजाड़ जंगलों के बीच
जब नए दरख्तों के साथ
पौधे भी कीट खाए
सड़े जाते हैं
घने पीपल के पेड़ सरीखे
अपनी मैली सफेद लुंगी में
अक्सर दिख जाते हैं
वो
बूढ़े हैं
पर जाने क्यों इलाके के जवान भी
उन्हें कहते हैं बच्चा
और वैसे ही रहते हैं सतर्क
कि जाने कब कर बैठें वो कोई शैतानी
उन्हें चिढ़ाते हैं
टांग खींचते हैं
पर मजाल कि वो कभी चिढ़ें या खिसियाएं
पलट कर उससे भी मजाकिया अंदाज में
देते हैं मुंह बंद कर देने वाले जवाब
तुनककर जवान बोल उठते हैं
अरे बिहारी बाभन हैं
मोहल्ले-गली के बच्चों से लेकर
बूढ़े-बूढ़ियों तक
हर इंसान की पूरी खबर रखते हैं
उनकी आंखों के नीचे पोपली होकर लटक आई खाल
किसी वटवृक्ष पर बांधे मधुमक्खी के छत्ते जैसी लगती है
मैंने बचपन में उनसे सीखे थे कुछ जुमले
पर सीखने को कहीं ज्यादा था
ये जवानी में जाना
जब उन्हें लगातार बुढ़ापे के दौर में
बिना शुगर
बिना किसी बीमारी
अपनी कुचैली लुंगी उठाकर
जवान लड़कों को
जो शराब के नशे में भटक कर नालियों में गिर गए थे
उठाकर उनके घर लाते देखा
उनके गोरे चेहरे पर दाढ़ी जब छिल जाती हैं
तो यूं लगता है जैसे किसी पीली घास के मैदान में
ओस बरसी हो
मैं उनके चेहरे पर कितने चक्कर मार चुका हूं
इसी सुकून की तलाश में
जो मुझे याद दिलाता है
कि मैं कहूं
महानगर में
लोगों के उजाड़ दरख्तों के बीच
जब नए पेड़ों के साथ
पौधे भी कीट खाए
सड़े जाते हैं
घने पीपल के पेड़ सरीखे
अपनी मैली सफेद लुंगी में
अक्सर दिख जाते हैं
वो

Sunday, March 12, 2017

आत्ममुग्ध अमित शाह और मिस्टर मोदी, अगर आप लोकतंत्र मानते तो गोवा में जनता के फैसले का आपको सम्मान करना आया होता



भाजपा को लोकतांत्रिक नीतियां सीखने में वक्त लगने वाला है। लोकतांत्रिक नीचता के सारे पैंतरे उसे आते हैं। या ये कहें कि सत्ता का पहले-पहले मुंह देख रही ये पार्टी राजनीतिक कुलीनता से बिल्कुल भी अवगत नहीं है। यही वजह है कि गोवा में हार का मुंह देखने के बाद भी सारे पैंतरे आजमा कर भाजपा सरकार बनाने के सारे जोड़-तोड़ खेल रही है।
दरअसल कल रात ग्यारह बजे अचानक से अभी तक देश के रक्षा मंत्री रहे मनोहर पार्रिकर को गोवा भेजकर मुख्यमंत्री बना दिया गया है। ये तब हुआ है जब बीजेपी को गोवा में इस बार के विधानसभा चुनावों में 40 में से मात्र 13 सीटें मिली थीं। इतना ही नहीं उसकी सरकार में मंत्री रहे 8 में से 6 विधायक चुनाव हार गए थे। फिर स्वयं मुख्यमंत्री लक्ष्मीकांत पारसेकर अपना भी चुनाव जीत पाने में असफल रहे थे। यानी को बीजेपी के लिए गोवा की जनता का सीधा नकार था। पर सत्ता के मद में चूर प्रधानमंत्री मोदी ने और बीजेपी के चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह (हालांकि इससे बड़ा चाणक्य का अपमान शायद ही कुछ हो।) ने अपने लालच को पोसने के लिए जनता के फैसले को ठेंगा दिखा दिया है।
सारे ही मीडिया चैनल उनके इस फैसले को सेलिब्रेट करने में लगे हैं, इस तथ्य के बावजूद कि ऐसे यूपी के मामले में 'जनता के फैसले- जनता के फैसले' चिल्लाते रहने वाले हमारे धृतराष्ट्र स्वरूप प्रधानमंत्री की नजर में गोवा और मणिपुर नहीं आते। मणिपुर में भी कांग्रेस के MLA काटने में भाजपा के चाणक्य (चाणक्य से माफी सहित) और उनके गुर्गे लगे हुए हैं। कांग्रेस ने जिस तरह से राज्य सरकारों के साथ भेदभाव और खिलवाड़ किया वो आलोचना का सबब है। पर जो ये हो रहा है इसे राज्यों के संदर्भ में सबसे काले पक्षों में से एक के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए।
यह साफ है कि भाजपा का यह प्रयास उसकी बढ़ती आभासी छवि को पुख्ता करने का एक प्रयास भर है। पर ये भी साफ है कि ऐसा करके उसे कुछ खास फायदा होने वाला नहीं है। सारा फायदा कामों से होता है। जिसके लिए भाजपा के पास कोई रोडमैप नहीं है, सिवाए पूंजीपतियों को फायदा देने और देश में सांप्रदायिकता का माहौल बनाकर उसका फायदा उठाने के। इसलिए भाजपा को कुछ इंटेलेक्चुअल्स को अपने साथ जोड़ लेना चाहिए और उनके साथ आगे के भारत का एक रोडमैप तैयार कर लेना चाहिए। नहीं तो जिन बेरोजगार युवाओं को सदस्य बनाकर भाजपा ऊपर चढ़ी है। और सांप्रदायिकता के साथ अपना पथ प्रशस्त कर रही है वो जिस दिन असंतुष्ट हो गए, उसी दिन उसी गति से वापसी भी कर जाएगी।
आत्ममुग्ध अमित शाह और मोदी के लिए एक ही संदेश है कि सत्ता बहुत काम और जनता से जुड़ाव और कड़ी मेहनत चाहती है। लालच के लिए भारतीय राजनीति को बर्बाद न करें और जनता के फैसले का सम्मान करना सीखें।