Wednesday, March 22, 2017

कविता- कवि


ईश्वर घोड़े के अलावा
जिसे रचकर पछताया
वो कवि ही था
जिसे समझदार इंसानों ने
बुरी तरह निराश कर
ईश्वर के सामने पेश किया
और वो ईश्वर के सामने
दुबला-पतला
मरियल सा
बेतरतीब बालों के साथ
फटे- चीथड़े कपड़ों में
आशाहीन आँखों के साथ
मुँह लटकाए
पहुँचा
ये कहानी सुनकर
मैंने कवियों की संगत की
और जाना
ये प्रजाति निराश है
पर मानती है
दुनिया बदलने का माद्दा उसमें है
यूं तो अक्सर इंटरनेशनल कवि
बीड़ी, सिगरेट या सिगार
पीते दिखते हैं
पर मैंने कवियों को
गाय के बछड़ों की तरह
गंदी नालियों से
पानी पीते देखा है
कवि प्रेमिकाओं का साथ चाहता है
पर उनका साथ देना नहीं चाहता
कवि समझता है
उसकी रचना तानाशाहों के
तख़्त पलट देगी
और इसी भ्रम में
तड़प-तड़प कर मर जाता है
छोड़ जाता है
भूखी- रोती- बिलखती
अपनी पीढियां
कवि जब रचता है
तब हँसता नहीं
मुस्कुरा सकता है
फिर भी अधिकांशतः
उद्वेगों में डूबा
कसमसाता रहता है
जिंदगी भर चिल्लाता रहने वाला कवि
जो विरोध का मूर्त रूप
माना जाने लगता है
अक्सर बिल्कुल शान्ति से मर जाता है
और उसकी कवितायें
उसकी कब्र पर
गाए जाने के
काम आती हैं

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