Monday, April 27, 2020

Benedict Anderson की किताब Imagined Communities का संक्षिप्त अनुवाद: पवित्र भाषाओं, बड़े साम्राज्यों और धार्मिक समुदायों की सांठ-गांठ

यहूदी, ईसाई और मुस्लिम तीनों ही धर्मों में पवित्र माने जाने वाले शहर जेरूसलम की तस्वीर (फोटो क्रेडिट- Getty Images)

पवित्र भाषाओं ने बड़े साम्राज्यों और धार्मिक समुदायों को जोड़े रखा


इस चित्र की कल्पना कीजिए. यह सत्रहवीं शताब्दी है और हम इस्लाम के सबसे पवित्र शहर मक्का में हैं, जहां हमारी मुलाकात दो तीर्थयात्रियों से होती है. एक फिलीपींस की एक सल्तनत मगिंडनाओ से है, और दूसरा मोरक्को की पहाड़ियों से आया नाई है. ये दोनों अजनबी कभी नहीं मिले, एक-दूसरे की मातृभाषाओं को नहीं समझते, और विभिन्न संस्कृतियों के रीति-रिवाज मानते हैं, फिर भी वे एक दूसरे को 'भाई' मानते हैं. क्यों? बहरहाल, क्योंकि वहां एक चीज ऐसी है जिसे वे दोनों साझा करते हैं- अरबी, कुरान और सभी मुसलमानों की पवित्र भाषा.

यहां हमें यह महत्वपूर्ण संदेश मिलता है कि
पवित्र भाषाएं बड़े साम्राज्यों और धार्मिक समुदायों को साथ रखने वाली गोंद थीं.
धार्मिक और साम्राज्यों की भाषाएं जैसे कुरान की अरबी, चीनी और लैटिन की व्याख्या तीन विशेषताओं के आधार पर की गई. सबसे पहली बात, उन्हें बोलने से बजाए पहले लिखा और पढ़ा गया. अलग तरह से कहें तो उन्होंने ध्वनियों के समुदाय बनाने के बजाए संकेतों के समुदाय बनाए. अगर आप गणितीय संकेतों की ओर देखें तो आप समझ सकते हैं कि यह कैसे काम करता है. उदाहरण के तौर पर थाई और रोमानियन भाषाओं में "प्लस" चिन्ह के लिए अलग-अलग नाम हैं लेकिन दोनों 'क्रॉस' प्रतीक को एक ही तरह से पहचानते हैं.

दूसरी बात, ये भाषाएँ सत्य की भाषाएँ थीं. उन्हें सीखने की तुलना फ्रेंच (जैसी भाषाएँ) सीखने से नहीं की जा सकती है. ऐसा इसलिए क्योंकि देशी भाषाएँ और सामान्य भाषाएँ दैविक तरह से प्रेरित नहीं थीं, जिस तरह से लैटिन या कुरान की अरबी थी. वे चीजों की वास्तविक प्रकृति तक पहुँच नहीं करा सकती थीं, यही वजह है कि शिक्षित यूरोपीय लोगों ने शलजम की खेती के बारे में जर्मन या स्वीडिश में बात की लेकिन दर्शन और धर्मशास्त्र पर चर्चा के लिए उन्होंने लैटिन को चुना.

इसी के चलते कई कैथोलिक लूथर के इस विचार से भयभीत हो गए थे कि बाइबिल का देशी भाषाओं में अनुवाद किया जा सकता है. जबकि वे मानते थे, धार्मिक सत्य सिर्फ विशेषाधिकार प्राप्त भाषाओं में बोले-लिखे-पढ़े जा सकते थे.

कुछ भाषाओं की पवित्रता की इस बात और उनकी सत्य तक पहुंच प्रदान करने की क्षमता ने साम्राज्यों और धार्मिक समुदायों की काल्पनिक सदस्यता को के लिए रास्ता खोला. उदाहरण के लिए चीनी साम्राज्य के शासक वर्ग ने, 'बर्बरों' को मान्यता दी, जो धीरे-धीरे मध्य साम्राज्य के प्रतीकों को चित्रित करना सीख रहे थे- इसका मतलब यह माना गया कि वे सभ्य हो रहे थे. यह इन सत्य की भाषाओं पर महारथ ही थी, जिसने मंगोलों को चीनी बनने और तुर्की खानाबदोशों को मुस्लिम बनने की अनुमति दी.

अगर किसी को इन धार्मिक समुदायों और साम्राज्यों में शामिल किया जा सकता था, तो इसका कोई कारण नहीं था कि ये समूह अनंत काल तक न बढ़ते रहें. तब क्यों, मध्य युग के अंत में धर्म में गिरावट आई? एक शब्द में कहें तो 'देशीकरण' के चलते- जो कि सत्य की भाषाओं का विखंडन है और उनका स्थानीय भाषाओं से प्रतिस्थापन है. जैसा हम अगले अंक में पढ़ेंगे, यह प्रक्रिया बड़े पैमाने पर पूंजीवाद और प्रिंटिंग प्रेस द्वारा चलाई गई.

किताब के बारे में-

काल्पनिक समुदाय की अवधारणा को बेनेडिक्ट एंडरसन ने 1983 मे आई अपनी किताब 'काल्पनिक समुदाय' (Imagined Communities) में राष्ट्रवाद का विश्लेषण करने के लिए विकसित किया था. एंडरसन ने राष्ट्र को सामाजिक रूप से बने एक समुदाय के तौर पर दिखाया है, जिसकी कल्पना लोग उस समुदाय का हिस्सा होकर करते हैं. एंडरसन कहते हैं गांव से बड़ी कोई भी संरचना अपने आप में एक काल्पनिक समुदाय ही है क्योंकि ज्यादातर लोग, उस बड़े समुदाय में रहने वाले ज्यादातर लोगों को नहीं जानते फिर भी उनमें एकजुटता और समभाव होता है.

अनुवाद के बारे में- 

बेनेडिक्ट एंडरसन के विचारों में मेरी रुचि ग्रेजुएशन के दिनों से थी. बाद के दिनों में इस किताब को और उनके अन्य विचारों को पढ़ते हुए यह और गहरी हुई. इस किताब को अनुवाद करने के पीछे मकसद यह है कि हिंदी माध्यम के समाज विज्ञान के छात्र और अन्य रुचि रखने वाले इसके जरिए एंडरसन के कुछ प्रमुख विचारों को जानें और इससे लाभ ले सकें. इसलिए आप उनके साथ इसे शेयर कर सकते हैं, जिन्हें इसकी जरूरत है.

(नोट: आप मेरे लगातार लिखने वाले दिनों को ब्लॉग के होमपेज पर [सिर्फ डेस्कटॉप और टैब वर्जन में ] दाहिनी ओर सबसे ऊपर देख सकते हैं.)

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