Monday, April 13, 2020

द प्लेटफॉर्म: हर स्थापित सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था की सीमाएं दिखाने वाली फिल्म

स्पेनिश डायस्टोपियन फिल्म एल होयो (द प्लेटफॉर्म) का एक दृश्य
द प्लेटफॉर्म (The Platform- El Hoyo) पिछले दिनों खासी चर्चित रही. मुझे फिल्म अच्छी लगी लेकिन एक बार फिर अजय कुमार को फिल्म अच्छी नहीं लगी. अच्छा-बुरा लगना अक्सर हमारी समझ, हमारे वैचारिक दायरे और हमारे मूल्यों पर निर्भर करता है. मुझे लगता है कमोबेश एक जैसी ही मानसिकता वाले हम दोनों पर प्रभाव का ऐसा अंतर समझ न आने वाली बात है.

अजय ने मुझे विस्तार से तो नहीं बताया कि उनपर फिल्म के प्रभाव के पीछे क्या वजहें रहीं लेकिन मैं यहां अपने ऊपर पड़े इसके अच्छे प्रभाव की कुछ वजहें बता रहा हूं-


काफ्का के साहित्य जैसा है फिल्म का प्रभाव

फिल्म द प्लेटफॉर्म की सबसे अच्छी बात है कि उसमें डायस्टोपिक तरीके से सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था चलाने के सभी हालिया तरीकों पर एक साथ व्यंग्य करती है. इसके 'काफाएस्क' जैसी बात भी दिखती है. मतलब काफ्का के साहित्य जैसी. एक ऐसी प्रक्रिया जिसमें लोग उलझे हुए हैं और उस प्रक्रिया का कोई मतलब नहीं है. इस प्रक्रिया में सफलता जैसी बातें ही निरर्थक हो जाती हैं. यह भी प्रभावित करने वाली बात रही कि दुनिया में आधुनिक दौर में राजनीतिक व्यवस्था पर हावी रही दो विचारधाराओं पूंजीवाद और समाजवाद दोनों पर ही फिल्म एक साथ तंज करती है.

फिल्म की बारीकियों पर फिर कभी विस्तार से लिखूंगा लेकिन मात्र मेरे अनुभव में ही नहीं बल्कि फिल्म बनाते हुए डायरेक्टर के दिमाग में भी व्यवस्थाओं पर व्यंग्य वाली बात हावी थी. इसके लिए मैं इसके डायरेक्टर गज़्तेलु उरुतिया के एक इंटरव्यू का अनुवादित अंश पेश कर रहा हूं, जिसकी बातों से मेरी भी सहमति है.

फिल्म में पूंजीवाद और समाजवाद दोनों की ही आलोचना

प्लेटफॉर्म के डायरेक्टर गज़्तेलु उरुतिया (Gaztelu-Urrutia) ने एक बार फिल्म के अंत को लेकर बात की थी. जिसके बारे में बताने से पहले फिल्म के स्क्रिप्ट राइटर के नाम बता देता हूं- डेविड डेसोरा और पेद्रो रिवेरो. उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा था, "जिस तरह से प्लेटफॉर्म खत्म होती है. यह सीधे तौर पर दिखाता है कि शुरुआत में द प्लेटफॉर्म पूंजीवाद की आलोचना करती है लेकिन फिल्म जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, इसका ध्यान और संदेश दोनों ही बदलते हैं."

गज़्तेलु उरुतिया ने समझाया,

"हम यह बिल्कुल मानते हैं कि पूंजी का बेहतर तरीके से बंटवारा होना चाहिए लेकिन फिल्म पूरी तरह से पूंजीवाद के बारे में नहीं है. भले ही शुरुआत में पूंजीवाद की आलोचना हो लेकिन हम यह भी देखते हैं कि जैसे ही गोरंग और बहारत समाजवाद के जरिए इसके हल की कोशिश करते हैं कि सभी अपनी इच्छा से अपना खाना शेयर करें. अंत आते-आते वे जिनकी मदद के लिए निकले होते हैं, उनमें से आधे को मारकर अपनी प्रक्रिया को भी खत्म कर देते हैं."


डायरेक्टर ने कहा- हमने अंत को दर्शकों की व्याख्या के लिए छोड़ दिया है

उन्होंने यह भी कहा, "समस्या तब सामने आती है, जब वे सभी के सहयोग के लिए प्रयास करते हैं और आप अंत में देखते हैं कि वे कोई बड़ी उपलब्धि नहीं प्राप्त करते. भले ही गोरंग आखिरी स्तर तक 'पना कोटा' को ले आता हो और बच्ची को ढूंढ लेता हो लेकिन वह खाना शेयर करने के लिए किसी का ह्रदय परिवर्तन कर पाने में  असफल रहता है. मेरे लिए इसका आखिरी स्तर, कहीं है ही नहीं. गोरंग यहां आने से पहले ही मर चुका है. और यह (आखिरी स्तर) केवल उस अहसास को व्यक्त करता है, जिसके मुताबिक गोरंग को महसूस होता है कि उसे क्या करना है."

अंतत: गज़्तेलु उरुतिया का 'द प्लेटफॉर्म' में फिल्म के अंतिम दृश्य का मकसद इसे तमाम कयासों के लिए खुला रखना है. वे चाहते हैं कि लोग खुद समझें कि क्या यह प्लान काम करता है और क्या ऊपर बैठे लोगों को नीचे वालों की फिक्र होती है. उन्होंने यह भी बताया है कि फिल्म का बिना लड़की के सीन के भी एक अंत फिल्माया गया था लेकिन वह हमारे सामने नहीं आया. गज़्तेलु उरुतिया कहते हैं,

"मैंने आपकी कल्पना पर छोड़ दिया है कि इससे क्या होता है."
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P.S.: यह सारी बातें 'द प्लेटफॉर्म' फिल्म पर कुछ विचारों के जैसी हैं. इन्हें किसी रिव्यू से कन्फ्यूज न किया जाए.

(नोट: आप मेरे लगातार लिखने वाले दिनों को ब्लॉग के होमपेज पर [सिर्फ डेस्कटॉप और टैब वर्जन में ] दाहिनी ओर सबसे ऊपर देख सकते हैं.) 

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