Thursday, April 23, 2020

Good Economics for Hard Times: अभिजीत बनर्जी-एस्थर डुफ्लो की किताब का हिंदी में संक्षिप्त अनुवाद- उचित टैक्स, आर्थिक असमानता का इलाज

अभिजीत बनर्जी और एस्थर डुफ्लो की यह किताब दुनिया की तमाम परेशानियों का हल अर्थशास्त्र में ढूंढती है

बुद्धिमान रोबोटों के आने से बहुत पहले से है आर्थिक असमानता

रोबोटों पर आर्थिक असमानता का दोष मढ़ना आकर्षक हो सकता है. वे हमारे समाज में सबसे बड़े घुसपैठिए विदेशी हैं, और इसलिए वे एक बहुत ही सुविधाजनक बलि का बकरा भी हैं.

लेकिन स्वयं को स्कैन कर लेने सुपरमार्केट के बिल काउंटर से बहुत पहले ही असमानता बढ़ रही थी. वास्तव में, हम श्रम बाजार की बड़ी तस्वीर देखे बिना और समग्र रूप से समाज में कमाई का बंटवारा कैसे होता है (जाने बिना) AI के श्रम बाजार पर प्रभावों को नहीं समझ सकते.

1980 तक संयुक्त राज्य अमेरिका में सबसे धनी 1% लोगों की राष्ट्रीय आय का हिस्सा लगातार घर रहा था. यह 1928 के 28% से 1979 आते-आते लगभग एक-तिहाई कम हो चुका था. लेकिन ये ट्रेंड 1980 के बाद से तेजी से उलट गए, जिससे कि असमानता फिर से 1928 के स्तर पर पहुंच गई. 1980 के बाद से धन असमानता लगभग दोगुनी हो चुकी है.

जबकि शीर्ष 1% लोगों की आय में तेज वृद्धि हुई है. श्रमिकों के लिए मजदूरी बढ़नी बंद हो गई है. दरअसल, 2014 में जब औसत मजदूरी को मुद्रास्फीति की के हिसाब से तुलना कर आंका गया तो यह 1979 से अधिक नहीं थी. कम से कम शिक्षित कामगारों के सामने एक कठिन समस्या और है- 2018 में पुरुष कामगारों का वास्तविक वेतन 1980 की तुलना में 10 से 20% कम था.

तो 1980 में ऐसा क्या हुआ जो असमानता में इस भारी वृद्धि की वजह बना. कई अर्थशास्त्री इसके लिए रोनाल्ड रीगन और मार्गरेट थैचर जैसे नेताओं की नीतियों की ओर इशारा करते हैं, जो बहुत अमीर लोगों के लिए करों को घटाने के लिए तैयार की गई आक्रामक नीतियों के साथ सत्ता में आए, जिसके पीछे तर्क था कि इनके कमाए वित्तीय लाभ 'ट्रिकल डाउन' (अमीरों के लाभ बढ़ने पर वे इसे गरीबों तक भी पहुंचाएंगे) होकर औसत कामगार तक पहुंचेंगे.

रीगन-थैचर काल के आर्थिक दर्शन ने इस विचार को भी वैध ठहराया कि कुछ लोग अत्यधिक वेतन के हकदार थे. इसके पीछे तर्क क्या था? कि वे बेहद प्रतिभाशाली थे और अच्छी कमाई से उन्हें और अधिक मेहनत से काम करने का प्रोत्साहन मिलेगा.

लेकिन यह (तर्क) इस तथ्य को झुठलाता है कि वित्तीय उद्योगों में CEO लोगों को अक्सर बिना कुछ किए मोटे बोनस की कमाई होती है. उनके वेतन के, कंपनी के बाजार मूल्य से जुड़े होने के चलते, उन्हें तब अधिक पैसा मिलता है, जब कंपनी अच्छा करती है. लेकिन उनके निम्न दर्जे के कर्मियों को अधिक पैसे मिलने का कोई प्रोत्साहन नहीं है. जो कि वास्तव में, इस तर्क के पूरी तरह से खिलाफ है.

सबसे अधिक कमाने वालों और बाकी सभी के बीच यह बड़ी असमानता ज्यादा समय नहीं चल सकती. इसे सुधारने के लिए अमेरिका जैसे देशों को क्या बदलने की जरूरत है? एक शब्द में उत्तर दें तो: टैक्स (कर).

उचित कर लगाने से आर्थिक असमानता को हल करने में मदद मिल सकती है

अत्यधिक कमाई करने वाले और अन्य कामगारों के बीच समान आधार बनाने का एक रास्ता है: टैक्स. अध्ययनों से पता चला है कि जब शीर्ष 1% लोगों के लिए टैक्स की दर 70% या उससे अधिक होती है तो वेतन अधिक समान होते हैं. ऐसे में कॉरपोरेशन ऐसे सनकी स्तर के वेतन देना बंद कर देते हैं, क्योंकि टैक्स ऑफिस को सैलरी का 70% देने का कोई मतलब नहीं है.

जर्मनी, स्पेन और डेनमार्क जैसे देख, जिन्होंने करों (टैक्स) की दर इतनी अधिक कर रखी है, उनके यहां सर्वाधिक वेतन वाले और औसत कमाई वाले लोगों के बीच का अंतर अमेरिका, कनाडा और ब्रिटेन के मुकाबले कम है, जिन देशों ने 1970 के दशक के बाद अधिक वेतन पर करों को कम कर दिया है.

हालांकि असमानता से निपटने के लिए सरकारों को और अधिक संसाधनों की आवश्यकता पड़ने वाली है. इसका मतलब यह है कि हमें शीर्ष कमाई वालों के वेतन पर अधिक कर लगाने से अधिक की जरूरत है.

एक विकल्प बेहद अमीर लोगों की संपत्ति पर एक धन कर का है. 50 मिलियन डॉलर यानि करीब 380 करोड़ रुपये से अधिक की संपत्ति वाले लोगों पर 2% टैक्स और 1 बिलियन डॉलर यानि करीब 7500 करोड़ रुपये से अधिक की संपत्ति वालों पर 3% कर संभावित तौर पर अगले दस सालों में 2.7 ट्रिलियन डॉलर या 2 लाख अरब रुपये से ज्यादा पैदा किए जा सकते हैं. अरबपतियों के लिए यह महासागर में एक बूंद है लेकिन अगर उस पैसे का इस्तेमाल वैश्विक व्यापार से आहत होने के चलते बेरोजगार हुए लोगों की मदद के लिए या आवास और शिक्षा जैसे अन्य सार्वजनिक कार्यक्रमों के फंड के तौर पर किया जाए तो यह लाखों लोगों की जिंदगी में यह एक बड़ा अंतर ला सकता है.

लेकिन धन टैक्स ही पर्याप्त नहीं हैं. दरअसल परिवर्तन लाने के लिए सभी को योगदान करना होगा.

डेनमार्क और फ्रांस, गरीबी और असमानता से निपटने के लिए महत्वाकांक्षी कार्यक्रम चलाने दोनों देशों में, उनके सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का 46% टैक्स से आता है. इस टैक्स में से अधिकांश औसत कमाई वालों से आता है. इसके उलट, अमेरिकी सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का मात्र 27% ही टैक्स से आता है.

अधिक टैक्स देने का विचार अमेरिका में बेहद अलोकप्रिय है. आंशिक तौर पर ऐसा सरकार पर कम से कम विश्वास होने के चलते है. सरकारी कार्यक्रमों को अक्सर अक्षम और अधिकारियों को भ्रष्ट माना जाता है. लोगों को वैध चिताएं हैं कि उनका पैसा कहां जा रहा है.

टैक्स को अच्छे उपयोग में लाने के लिए सरकारों को जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए. लेकिन उनका काम जरूरी है. जैसा कि हम देख चुके हैं, जब इंसानों का ख्याल रखे जाने की बात आती है तो बाजार हमेशा इसमें कार्य-कुशल नहीं साबित होता. वैश्विक व्यापार, AI, जलवायु परिवर्तन और आने वाली अनगिनत चुनौतियों से प्रभावित कामगारों को सहायता देने के लिए मजबूत सार्वजनिक कार्यक्रमों की जरूरत है. उन कार्यक्रमों में पैसे देने के लिए हमें टैक्स से पैसे जुटाने की जरूरत है.

किताब के बारे में-

इस किताब में दोनों लेखक तर्क करते हैं कि अर्थशास्त्र कई समस्याओं को लेकर नया दृष्टिकोण पेश कर उन्हें सुलझाने में हमारी मदद सकता है. चाहे वह जलवायु परिवर्तन का हल बिना गरीबों को नुकसान पहुंचाए हो, या बढ़ती हुए असमानता के चलते उभरने वाली सामाजिक समस्याओं से निपटना हो, या वैश्विक व्यापार, और प्रवासियों को लेकर फैलाया गया डर जैसे मुद्दे.

अभिजीत बनर्जी और एस्थर डुफ्लो ने 2019 में अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार डेलपलमेंट इकॉनमिक्स के क्षेत्र में अपने योगदान के लिए पाया. उनकी इससे पहले आई किताब 'पुअर इकॉनमिक्स' (Poor Economics- गरीब अर्थशास्त्र) एक शुरुआती खोज थी कि गरीबी क्या होती है और कैसे सबसे इससे जूझते समुदायों को सबसे प्रभावशाली तरीके से मदद पहुंचाई जाए. ये दोनों ही MIT में प्रोफेसर हैं और बहुत से अकादमिक सम्मान और पुरस्कार पा चुके हैं.

अनुवाद के बारे में-

भारतीय मूल के अर्थशास्त्री अभिजीत वी. बनर्जी और उनकी साथी एस्थर डुफ्लो की 2019 में उन्हें नोबेल मिलने के तुरंत बाद आई किताब गुड इकॉनमिक्स फॉर हार्ड टाइम्स (Good Economics for Hard Times) बहुत चर्चित रही. मैं इस किताब के प्रत्येक चैप्टर का संक्षिप्त अनुवाद पेश करने की कोशिश कर रहा हूं. अभिजीत के लिखे हुए को अनुवाद करने की मेरी इच्छा इस किताब के पहले चैप्टर को पढ़ने के बाद ही हुई. बता दूं कि इसके संक्षिप्त मुझे ब्लिंकिस्ट (Blinkist) नाम की एक ऐप पर मिले. बर्लिन, जर्मनी से संचालित इस ऐप का इसे संक्षिप्त रूप में उपलब्ध कराने के लिए आभार जताता हूं. अंग्रेजी में जिन्हें समस्या न हो वे इस ऐप पर अच्छी किताबों के संक्षिप्त पढ़ सकते हैं और उनका ऑडियो भी सुन सकते हैं. एक छोटी सी टीम के साथ काम करने वाली इस ऐप का इस्तेमाल मैं पिछले 2 सालों से लगातार कर रहा हूं और मुझे इससे बहुत फायदा मिला है. वैश्विक क्वारंटाइन के चलते विशेष ऑफर के तहत 25 अप्रैल तक आप इस पर उपलब्ध किसी भी किताब को पढ़-सुन सकते हैं. जिसके बाद से यह प्रतिदिन एक किताब ही मुफ्त में पढ़ने-सुनने को देगी.

(नोट: कल इस किताब के अगले दो चैप्टर का हिंदी अनुवाद पेश करने की मेरी कोशिश होगी. आप मेरे लगातार लिखने वाले दिनों को ब्लॉग के होमपेज पर [सिर्फ डेस्कटॉप और टैब वर्जन में ] दाहिनी ओर सबसे ऊपर देख सकते हैं.)

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