Monday, April 20, 2020

गुड इकॉनमिक्स फॉर हार्ड टाइम्स: अभिजीत बनर्जी-एस्थर डुफ्लो की किताब का हिंदी में संक्षिप्त अनुवाद- अर्थशास्त्रियों पर विश्वास

अभिजीत बनर्जी और एस्थर डुफ्लो की यह किताब दुनिया की तमाम परेशानियों का हल अर्थशास्त्र में ढूंढती है
भारतीय मूल के अर्थशास्त्री अभिजीत वी. बनर्जी और उनकी साथी एस्थर डुफ्लो की 2019 में उन्हें नोबेल मिलने के तुरंत बाद आई किताब गुड इकॉनमिक्स फॉर हार्ड टाइम्स (Good Economics for Hard Times) बहुत चर्चित रही. मैं इस किताब के प्रत्येक चैप्टर का संक्षिप्त अनुवाद पेश करने की कोशिश कर रहा हूं. अभिजीत के लिखे हुए को अनुवाद करने की मेरी इच्छा इस किताब के पहले चैप्टर को पढ़ने के बाद ही हुई. बता दूं कि इसके संक्षिप्त मुझे ब्लिंकिस्ट (Blinkist) नाम की एक ऐप पर मिले. बर्लिन, जर्मनी से संचालित इस ऐप का इसे संक्षिप्त रूप में उपलब्ध कराने के लिए आभार जताता हूं. अंग्रेजी में जिन्हें समस्या न हो वे इस ऐप पर अच्छी किताबों के संक्षिप्त पढ़ सकते हैं और उनका ऑडियो भी सुन सकते हैं. एक छोटी सी टीम के साथ काम करने वाली इस ऐप का इस्तेमाल मैं पिछले 2 सालों से लगातार कर रहा हूं और मुझे इससे बहुत फायदा मिला है. वैश्विक क्वारंटाइन के चलते विशेष ऑफर के तहत 25 अप्रैल तक आप इस पर उपलब्ध किसी भी किताब को पढ़-सुन सकते हैं. जिसके बाद से यह प्रतिदिन एक किताब ही मुफ्त में पढ़ने-सुनने को देगी.

अब किताब के बारे में-

इस किताब में दोनों लेखक तर्क करते हैं कि अर्थशास्त्र कई समस्याओं को लेकर नया दृष्टिकोण पेश कर उन्हें सुलझाने में हमारी मदद सकता है. चाहे वह जलवायु परिवर्तन का हल बिना गरीबों को नुकसान पहुंचाए हो, या बढ़ती हुए असमानता के चलते उभरने वाली सामाजिक समस्याओं से निपटना हो, या वैश्विक व्यापार, और प्रवासियों को लेकर फैलाया गया डर जैसे मुद्दे.

अभिजीत बनर्जी और एस्थर डुफ्लो ने 2019 में अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार डेलपलमेंट इकॉनमिक्स के क्षेत्र में अपने योगदान के लिए पाया. उनकी इससे पहले आई किताब 'पुअर इकॉनमिक्स' (Poor Economics- गरीब अर्थशास्त्र) एक शुरुआती खोज थी कि गरीबी क्या होती है और कैसे सबसे इससे जूझते समुदायों को सबसे प्रभावशाली तरीके से मदद पहुंचाई जाए. ये दोनों ही MIT में प्रोफेसर हैं और बहुत से अकादमिक सम्मान और पुरस्कार पा चुके हैं.

प्रस्तावना: अर्थशास्त्र किस तरह दुनिया पर सकारात्मक प्रभाव डाल सकता है?

दुनिया में इतनी ज्यादा चीजें गलत होती दिखती हैं कि आपको इन चीजों से अपना पल्ला झाड़ लेना ही बेहतर लगता है. हम सुनते रहते हैं कि प्रवासियों की समस्या नियंत्रण से बाहर है, कि सामान पर ऊंचे आयात कर लगाने से अर्थव्यवस्था पर भारी दबाव पड़ेगा, कि अगर हमने पर्यावरण को बचाया तो इसका मतलब लोगों की नौकरियों का बलिदान देना होगा, लेकिन अगर हम ऐसा नहीं करेंगे तो हम खत्म हो जाएंगे.

यह कयामत के दिन की तस्वीरें पेश करने वाला डरावना शोरगुल है. और जो चीज इसे और बुरा बना देती है वह यह है कि हमें अक्सर पता नहीं होता कि हमें किस पर भरोसा करना है. किसी ठोस बहस में शामिल होने के बजाए राजनीतिज्ञ भी एक-दूसरे पर चीखते-चिल्लाते दिखते हैं.

इस शोरगुल के बीच, हम कभी-कभी अर्थशास्त्रियों को टीवी पर भयानक भविष्यवाणियां करते, या किसी न किसी राजनीतिक उम्मीदवार की नीतियों की आलोचना करते देखते हैं. सीधे तौर पर अर्थशास्त्री भेदभाव करते, किसी व्यापार या राजनीतिक विचारधारा से जुड़े नज़र आते हैं. हम सच में नहीं समझ पाते, वे क्या करते हैं, या अपने निष्कर्षों तक किस तरह पहुंचते हैं.

यहां आपके पास अर्थशास्त्र पर फिर से एक बार विश्वास कर पाने का मौका है. नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्रियों के व्यावहारिक दृष्टि के जरिए आप सीखेंगे कि राजनीतिज्ञों द्वारा जिन अर्थशास्त्र के सिद्धांतों की बहुत तारीफ की जाती है, वे कमियों से भरे हुए हैं और जिन सामाजिक समस्याओं को सबसे ज्यादा दुसाध्य माना जाता है, उनके सामान्य अर्थशास्त्रीय हल हो सकते हैं.

इस किताब से आप यह भी सीखेंगे कि-


  • क्यों चीनी स्टील पर टैरिफ लगाने के चलते अमेरिकी किसानों को अपनी नौकरी गंवानी पड़ी
  • कैसे रोबोट अकाउंटिंग की नौकरी तो छीन सकते हैं लेकिन कुत्तों को नहीं घुमा सकते; और
  • कैसे प्रवासियों की बड़ी तादाद स्थानीय लोगों के लिए नौकरी की संभावनाओं में सुधार कर सकती है

पहला अध्याय- MEGA: Make Economics Great Again

अर्थशास्त्री हमें दुनिया की सबसे गंभीर समस्याओं को हल करने में मदद कर सकते हैं लेकिन पहले उन्हें हमारा विश्वास हासिल करना होगा.

एक सर्वेक्षण में लोगों से पूछा गया कि वे अलग-अलग पेशे के लोगों की राय पर कितना भरोसा करते हैं. इसमें नर्सें सबसे आगे रहीं और बिना किसी आश्चर्य के राजनेता सबसे नीचे. आश्चर्य की बात यह है कि अर्थशास्त्रियों को राजनीतिज्ञों से केवल थोड़ा ऊपर रखा गया है. उनकी राय को बहुत अविश्वसनीय माना जाता है.

लेकिन क्यों? शायद इसलिए क्योंकि जिन मुखर अर्थशास्त्रियों को हम न्यूज में देखते हैं, वे सबसे भरोसेमंद नहीं हैं. अक्सर, वे एक कंपनी द्वारा नौकरी पर रखे गए होते हैं और बाजार के हितों की रक्षा के लिए उनके पास एक निश्चित एजेंडा होता है.

इससे इतर, वे एक्सट्रीम विचारों वाले अकादमिक अर्थशास्त्री भी हो सकते हैं. चाहे दक्षिणपंथी हो या वामपंथी, एक विचारधारा की कुल्हाड़ी से विषय को काटने वाले हमेशा सबसे बारीक, भरोसेमंद विश्लेषण नहीं देते. यहां तक कि अक्सर अच्छे अर्थशास्त्री भी तर्कों और सबूतों को इस तरह समझाने के लिए कि अन्य लोग भी समझ सकें, समय नहीं लगाते हैं. इससे भी बुरा तब होता है, जब अकादमिक अर्थशास्त्रियों की राय साधारण समझ से अलग और अतार्किक लगती है क्योंकि उनके विचार राजनेताओं द्वारा बताए गए तरीकों से मेल नहीं खाते हैं.

यह तथ्य कि लोग अर्थशास्त्रियों पर भरोसा नहीं करते, समस्या पैदा करने वाला है. क्यों? क्योंकि वे हमें दुनिया की कुछ सबसे महत्वपूर्ण समस्याओं को हल करने की जानकारी दे सकते हैं. ऐसे में अर्थशास्त्री कैसे हमारा विश्वास जीतना शुरू कर सकते हैं और मुद्दों पर किस तरह ऐसे बात कर सकते हैं, जो कि हमें समझ में आए?

शुरुआत के लिए उन्हें अपनी विचार प्रक्रिया और उसके निष्कर्षों को साझा करने के लिए तैयार रहना होगा. जिस डेटा का वे सबूत के तौर पर इस्तेमाल करते हैं, उन तक हम पहुंच सकें और जान सकें कि वे इन सबूत के बारे में कैसे सोचते हैं, तो हमारी उन पर विश्वास करने की संभावना बढ़ जाती है.
इससे भी ज्यादा जरूरी बात यह है कि, उन्हें यह स्वीकार करने के लिए तैयार रहना होगा कि वे भी चूक सकते हैं. आज की राजनीतिक और आर्थिक बहस सिर्फ एक चिल्लाने का मुकाबला बन चुकी है, जहां दोनों तरफ के लोग अपने-अपने दृष्टिकोण से चिपके रहते हैं. अर्थशास्त्रियों को खुले दिमाग से सबूत देखने के लिए तैयार रहना होगा, और जहां जरूरी हो वहां अपनी राय में बदलाव करने के साथ जहां गलती हो उसे स्वीकार करना होगा.

(नोट: कल इस किताब के अगले दो चैप्टर का हिंदी अनुवाद पेश करने की मेरी कोशिश होगी. आप मेरे लगातार लिखने वाले दिनों को ब्लॉग के होमपेज पर [सिर्फ डेस्कटॉप और टैब वर्जन में ] दाहिनी ओर सबसे ऊपर देख सकते हैं.)

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