Saturday, July 4, 2020

कर्फ्यूड नाइट: एक लंबी काली सुरंग, जिसकी जमीन लाशों और खून से पटी हुई है

बशारत पीर की किताब कश्मीर में 1990 के दशक में आतंकवाद के उभार के बाद के ज्यादातर किस्से बताती है...
त्रासदी के किस्से सुनकर आगे बढ़ा जा सकता है. इस बात पर हामी भर फिर अपने काम में लगा जा सकता है कि फिलिस्तीन, सीरिया, या यमन में हालात बहुत खराब हैं. लेकिन अगर यह त्रासदी का डॉक्यूमेंटेशन एक मुकम्मल किताब की शक्ल में हमारे सामने हो और वह भी एक ऐसी काली डरावनी सुरंग की तरह, जिसमें लाशें ही लाशें पड़ी हैं और हमें कई दिनों के सफर में उससे होकर गुजरना है तो इस सुरंग का एक स्थायी प्रभाव दिमाग पर रह जाता है. ऐसा ही है बशारत पीर की किताब कर्फ्यूड नाइट को पढ़ने का अनुभव.

कश्मीर पर लिखी ज्यादातर किताबों में उसके इतिहास से जुड़ी बातें हैं. आतंकवाद के उभार के दौर का जिक्र है. वाजपेयी और अब्दुल्ला के किस्से हैं. मुफ्ती और अलगाववादियों की पॉलिटिक्स का जिक्र है. पाकिस्तान में लड़ाके बनने की ट्रेनिंग लेने जा रहे लड़कों का जिक्र है. भारतीय सेना और अर्धसैनिक बलों की लंबी तैनाती से आए सामाजिक परिवर्तनों का जिक्र है और गायब हुए-मारे गए कश्मीरियों के आंकड़ों का जिक्र है. लेकिन जिस तरह से कर्फ्यूड नाइट में कश्मीर में हुई मौतों के ये आंकड़े किस्से-कहानियों में बदलते हैं, कल्पनाशील पाठक केवल कश्मीर के माहौल की कल्पना कर सहम जाता है.

पहले एक संस्मरण और बाद में रिपोर्टिंग के तौर पर लिखी गई इस किताब में कश्मीर त्रासदी पर एक कश्मीरी का नजरिया उभर कर सामने आता है. यह भी पता चलता है कि जैसे अक्सर कश्मीर के हालात को बाकी देश कश्मीर समस्या कहकर पुकारता है और इस समस्या के समाधान की संभावनाएं तलाशता है या कम से कम कल्पना कर खुश होता है. वहीं कश्मीरी लेखक बशारत पीर इसे एक त्रासदी के तौर पर सामने रखते हैं, जिसमें समस्या जैसी कोई बात नहीं, जहां से वापसी संभव हो सके बल्कि बात है त्रासदी की, जिसमें जो बुरा होना था वह हो चुका है और अब वह कई पीढ़ियों पर अपना असर बनाए रखने वाला है.

किताब विस्तार से पाकिस्तान के रिमोट कंट्रोल से संचालित होने वाले कश्मीरी युवाओं, सेना की ज्यादतियों, सैनिकों-अर्धसैनिकों के रेप के अपराध, कश्मीरियों के निहित स्वार्थ के व्यवहार, कश्मीरियों के हित के नाम पर उन्हें खुद से और दूर करने की नीति आदि के बारे में खुलकर बात करती है. लेकिन एक सोचने वाली बात यह भी है कि ये सारे दिल दहलाने वाले किस्से, ये सारी ज्यादतियां सामने रखने, कहने की छूट उन्हें इसी देश में मिली. इतना ही नहीं किताब को पुरस्कृत भी किया गया. देश के बेहतरीन डायरेक्टर में से एक ने कश्मीर पर बनी अपनी फिल्म के लिए उससे प्रेरणा ली. और वह यहां की शिक्षा ही थी, जिसके बल पर दुनिया भर के बेहतरीन समाचार संस्थानों में काम करने और NYT में ओपिनियन एडिटर के तौर पर काम कर रहे हैं. त्रासदी के स्तर पर चीजों के खराब होने के बावजूद यह एक कश्मीरियों के दुख, उनकी पीड़ा का ख्याल और चिंता इस देश में अब भी है.

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