Thursday, July 2, 2020

क्यों फिल्म 'बुलबुल' तर्क से परे जाकर जरूर देखे जाने के लिए बनी है?

नेटफ्लिक्स फिल्म 'बुलबुल' के एक सीन में तृप्ति डिमरी
हम सबके आसपास के परिवेश में कुछ किस्से होते हैं, जो आख्यानों की शक्ल ले लेते हैं. मैं जिस स्कूल में पढ़ता था, उसके ड्रेसकोड में टाई शामिल नहीं थी. उस इलाके के नामी-गिरामी सरकारी स्कूल में इसे लेकर एक किस्सा सुनाया जाता था- पहले इस स्कूल में टाई ड्रेसकोड में शामिल थी. लेकिन करीब 10 साल पहले कुछ स्टूडेंट्स ने मिलकर एक सहपाठी को स्कूल बिल्डिंग के पीछे निर्माण के बाद निकली रह गई सरिया में टाई से लटकाकर फांसी दे दी थी. बस इसके बाद से स्कूल में टाई बैन कर दी गई. मैं उन चंद लोगों में था, जिन्होंने इसे वैरिफाई करना चाहा था. इसलिए मैं 10 साल पहले उसी स्कूल से पासआउट एक शख्स से यह पूछने गया. उसने कहा कि ऐसा कुछ नहीं है और यह 10 साल हमेशा दस साल ही रहे हैं, मैंने भी अपने बैच में यह कहानी 10 साल पहले के लिए ही सुनी थी. मेरे यह लिखने का मतलब यह नहीं कि किंवदंतियों का काल नहीं हो सकता, हो सकता है उनका स्पष्ट देशकाल हो लेकिन उनमें कभी परफेक्शन नहीं खोजा जा सकता. उनकी डिटेलिंग नहीं पाई जा सकती. उनमें कार्यकारण संबंध खोजने पर उनका जादू मरता है.

ऐसी ही एक किंवदंती पर बनी फिल्म है, बुलबुल. इसमें चुड़ैल/ देवी है. लेकिन वह गोली से मर सकती है. वह आग में जल सकती है. ऐसे में फिल्म में आप बंगाली परिवेश की ऑथेंटिसिटी खोजने में फिल्म के केंद्रीय तत्व से भटक जायेंगे. आप सवाल नहीं कर सकते एक किंवदंति से. आप सिर्फ उसका आनंद ले सकते हैं. जब आप ऐसे किस्सों पर सवाल उठायेंगे तो भले ही आप यथार्थ पर कुछ सटीक पा जायेंगे लेकिन कहानी का जादू मर जायेगा. ऐसी कहानियां कार्य-कारण संबंध स्थापित करने के उद्देश्य से ही सुनाई जाती हैं. अब आपको यह ध्यान देना है कि वे इस उद्देश्य को पूरा कर रही हैं या नहीं. तो बुलबुल का उद्देश्य है कि पितृसत्ता के अत्याचार से उपजी एक भयानक कहानी सुनाई जाये और समाज में ऐसे बर्ताव के प्रति डर बिठाने के लिए चुड़ैल/ देवी के रूप में एक दिमाग पर स्पष्ट छप जाने वाला चरित्र तैयार किया जाये. यह भी संदेश है कि एक हद के बाद अत्याचार ही आशीर्वाद का रूप ले लेता है. ऐसे में फोकस सिर्फ दो बातों पर रह जाता है कि फिल्म के स्क्रीनप्ले में प्रवाह/ डायलॉग्स में रोचकता है या नहीं और दूसरा कि उसे अच्छे से कैमरे के जरिए दर्शाया गया है या नहीं.

इन दोनों ही मामलों में बुलबुल एक सफल फिल्म है. आप बहुत ज्यादा कंफ्यूज नहीं होते, इसे देखते हुए. जबकि फिल्म कई बार फ्लैशबैक में चलती है. इसके अलावा फिल्म के लाल शेड्स मनमोहक हैं और अपना डर और एक निश्चित संदेश देने का काम बखूबी करते हैं. पितृसत्ता के अहसास को डायलॉग्स और लोगों के हाव-भाव से जैसे लगातार केंद्रीय विचार के तौर पर रखा गया है, पूरी फिल्म पर लगातार की गई मेहनत को दिखाता है. चाहे वह 'छोटे ठाकुर- बड़े ठाकुर' का संबोधन हो, "अब हम आ गये हैं, आप आराम कीजिये", "ठकुराइन ही रहिए, ठाकुर बनने की कोशिश मत कीजिये" या "ठाकुर के घर शादी हुई है, सब मिलेगा...".

वहीं कैमरे से भी कोई असंतुष्टि नहीं होती. ग्राफिक तो बेहतरीन हैं, खासकर ओपनिंग ग्राफिक, जिसमें पूरी कहानी सम-अप की गई है. आपको इस क्रेडिट ग्राफिक को रीविजिट करना चाहिए, आपको आनंद मिलेगा.

तृप्ति डिमरी और अविनाश तिवारी की यह लैला-मजनूं के बाद दूसरी फिल्म है. लेकिन जहां लैला-मजनूं में अविनाश छाए रहे थे, इस फिल्म में तृप्ति डिमरी छाई रहती हैं. अन्य कलाकारों को पहले भी आजमाया गया है और वे बेहतरीन रहे हैं.

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