फिल्म 'लंचबॉक्स' के एक दृश्य में इरफान खान |
वापस आने की बात पर इतना विश्वास था कि अगले दिन सवेरे 11 बजे के बाद जब मेरे मित्र अजय ने मुझसे पूछा कि इरफान पर कुछ लिखा है क्या तुमने? तो मैंने उन्हें पलट कर जवाब दिया, "याद तो नहीं लेकिन क्यों लिखना है, वो तो ठीक हो जाएंगे न!" मुझे विश्वास ही नहीं था कि उन्हें कुछ हो सकता है. अंतिम खबर पा जाने के बाद भी इरफान के बारे में लिखना कई वजहों से टालता रहा. लेकिन अजय ने कई बार कहा तो मैंने तय किया लिखूंगा. हालांकि अब भी मुझे खुद पर विश्वास नहीं है. ऐसा लग रहा है कि सूरज को टॉर्च की रौशनी दिखाने जा रहा हूं. फिर भी अपनी बात रखता हूं.
पहली बात मुझे अब भी विश्वास नहीं कि वो नहीं रहे. लिखना इसलिए भी टाला कि लग रहा था जब लिखूंगा तो स्वीकारना पड़ेगा, वो नहीं रहे. दूसरी बात, इरफान खान को जब-जब एक्टिंग करते देखा तो लगा कि जैसे यही तो सहजता है, कोई प्रयास ही नहीं. कोई परफॉर्मेंस प्रेशर नहीं. ये आदमी यही तो कर रहा है, हमेशा से. इसके लिए क्या तारीफ करूं. मेरे लिए इरफान की एक्टिंग सूरज की तरह थी, जो आती-जाती रहती है. उसकी कमी तब महसूस हो रही है, जब धीरे-धीरे एहसास हो रहा है कि अब वह नहीं होगी, कभी नहीं होगी. हमें पता होता था, इरफान खान फिल्म में हैं तो बिना ज्यादा सोचे फिल्म देख लेनी है, फिल्म से कुछ मिले न मिले, इरफान निराश नहीं करेंगे. मैंने कभी एक लेख में लिखा था कि रवि किशन जिस फिल्म में झांककर चले जाते हैं, उसमें भी उनका रोल याद रह जाता है. क्या यह इरफान पर लागू नहीं होता. कुछ सेकेंड का सीन 'सलाम बॉम्बे' का मुझे आज भी याद है. एक 'डॉक्टर की मौत' का रिपोर्टर, कोई भूल सकता है उसे क्या?
उनके न रहने पर मेरी शुरुआती प्रतिक्रिया इस खबर को नकारने वाली थी. मैंने इस पर न सोचने, इसे न मानने का निश्चय किया था. वैसे मेरे लिए एक बात चौंकाने वाली रही. मैंने देखा लोग उनकी अंतिम खबर पर रो रहे थे. मैंने दसियों लोगों से इस पर रोते देखा और सुना. मैंने इंस्टा चेक किया, हर एक पोस्ट इरफान पर थी. मैंने वॉट्सएप स्टोरी चेक की, हर स्टोरी इरफान पर थी. मैंने सोचा ऐसा क्या था इस बंदे में कि सिनेमा-विनेमा से कोई लगाव न रखने वाले लोग भी इस तरह से महसूस कर रहे हैं. मैंने अपनी भावनाओं में इसका उत्तर ढूंढने की कोशिश की. मुझे समझ आया कि ये सारे ही लोग अभी इरफान से बहुत कुछ चाहते थे, मेरी ही तरह ये रोज सूरज को दिन लेकर आते देखना चाहते थे. उन्हें एहसास हो रहा है कि अब उनकी एक्टिंग और देखने को नहीं मिलेगी और वो रो रहे हैं, मातम कर रहे हैं. यह सोचकर मेरा दिल बैठने लगा. तबसे से जब-जब कभी न देख पाने का एहसास हो रहा है. बहुत बुरा लग रहा है. मैं अब भी स्वीकारना नहीं चाहता ऐसा हुआ है.
एक और बात बता दूं कि मैं इरफान खान का फैन नहीं रहा हूं. मैंने अपने आपको जिनके फैन के तौर पर हमेशा स्वीकारा है, वे हैं केके मेनन और विजयराज. इन दोनों के पास लोगों को चौंकाने के लिए पर्याप्त उपकरण होते हैं. लेकिन यह मानूंगा कि इरफान इनसे कहीं ज्यादा वास्तविक और सहज थे. केके मेनन और विजयराज के बीच कहीं. वह इंटेंसिटी भी और अपना मजाक बनाकर सारी महफिल खींच लेने का माद्दा भी. फिर भी इरफान इतने सहज थे कि उनपर अलग से नोटिस की जरूरत नहीं पड़ती थी, मुझे हमेशा लगा कि यह इरफान नहीं, फिल्म का वह किरदार ही तो है. एक और बात जिसके चलते मैंने लोगों को दुख करते देखा शायद वह यह था कि अभी उन्होंने किया ही क्या था, कितना सब तो अपने साथ लेकर चले गए. अरे आखिर पिछले दशक तक इरफान फिल्मों के केंद्र में कहां थे? वो कहानी में कहीं साइड पर खड़े पूरी फिल्म का ताना-बाना सुलझा रहे होते थे. लेकिन जबसे 'सात खून माफ' और 'लाइफ ऑफ पाई' जैसी फिल्में आईं तब तय हुआ कि इरफान वापस टीवी में खर्च होने नहीं जाएंगे. उनका एक मुकाम है, वे यहीं रहेंगे, सिल्वर स्क्रीन पर प्रमुखता के साथ.
इस घोषणा के बाद हमें वे 'हैदर', 'साहब बीवी और...' फिर अपने सबसे ऊंचे मकाम 'पान सिंह तोमर', 'लंचबॉक्स' और 'पीकू' में दिखे. तय हो गया कि वो इंडस्ट्री को अब तक मिले सबसे बेहतरीन एक्टर्स में से एक हैं. अखबार, मैग्जीन के कॉलम उनकी तारीफों से पटे रहने लगे. लेकिन तबसे उन्होंने फिल्में ही कितनी कीं. बहुत ज्यादा तो 10. दरअसल हम अभी उनसे बहुत चाहते थे, बहुत कुछ. लेकिन एक बंदा जो समाज से ले कुछ नहीं रहा, कब तक एक तरफा देने की प्रक्रिया चलाए रखता, उस खुद्दार शख्स ने तो ईश्वर को हमारी दुआएँ तक कुबूल करने से मना कर दिया था...
PS: बहुत दुख के साथ आज लगातार 21वें दिन (किसी काम की आदत डालने के लिए इतने दिन वह काम करना जरूरी होता है) के ब्लॉग को लिखते हुए मुझे 'द इमैजिंड कम्युनिटीज' के अगले अंक की जगह इरफान खान की मौत के बारे में लिखना पड़ रहा है. अब भी चाहता हूं काश ये बुरा सपना टूटे और मेरी आंख खुल जाए.
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