Thursday, April 30, 2020

क्या इरफान साब, इतना भी खुद्दार क्या होना कि हमारी दुआएं लेने से भी इंकार कर गए...

फिल्म 'लंचबॉक्स' के एक दृश्य में इरफान खान
इरफान खान की मौत पर भरोसा नहीं है. अंतिम खबर आने से पहले 2 साल तक हमेशा लगा, 'वो वापस आएंगे, फिर से फिल्में करेंगे' लेकिन जैसा वरुण ग्रोवर ने कहा कि इरफान ने "एकतरफा हमें दिया, हमसे लिया कुछ नहीं". वैसे ही पिछले दो सालों में दिल से कई बार निकली दुआ कि 'वो जल्दी से ठीक हो जाएं और फिर से एक के बाद एक फिल्म करें' को भी इरफान खान ने लेने से इंकार कर दिया. मैं ऐसे पेशे में हूं जिसके चलते उनके एक दिन पहले हॉस्पिटल में भर्ती होने की खबर मिल गई थी और यह भी सोचा था कि कोरोना के प्रसार के खतरनाक समय में कैसे तबीयत बिगड़ गई, फिर सोचा, 'कोई बात नहीं, वो इरफान खान हैं, सही होकर वापस आ जाएंगे.'

वापस आने की बात पर इतना विश्वास था कि अगले दिन सवेरे 11 बजे के बाद जब मेरे मित्र अजय ने मुझसे पूछा कि इरफान पर कुछ लिखा है क्या तुमने? तो मैंने उन्हें पलट कर जवाब दिया, "याद तो नहीं लेकिन क्यों लिखना है, वो तो ठीक हो जाएंगे न!" मुझे विश्वास ही नहीं था कि उन्हें कुछ हो सकता है. अंतिम खबर पा जाने के बाद भी इरफान के बारे में लिखना कई वजहों से टालता रहा. लेकिन अजय ने कई बार कहा तो मैंने तय किया लिखूंगा. हालांकि अब भी मुझे खुद पर विश्वास नहीं है. ऐसा लग रहा है कि सूरज को टॉर्च की रौशनी दिखाने जा रहा हूं. फिर भी अपनी बात रखता हूं.

पहली बात मुझे अब भी विश्वास नहीं कि वो नहीं रहे. लिखना इसलिए भी टाला कि लग रहा था जब लिखूंगा तो स्वीकारना पड़ेगा, वो नहीं रहे. दूसरी बात, इरफान खान को जब-जब एक्टिंग करते देखा तो लगा कि जैसे यही तो सहजता है, कोई प्रयास ही नहीं. कोई परफॉर्मेंस प्रेशर नहीं. ये आदमी यही तो कर रहा है, हमेशा से. इसके लिए क्या तारीफ करूं. मेरे लिए इरफान की एक्टिंग सूरज की तरह थी, जो आती-जाती रहती है. उसकी कमी तब महसूस हो रही है, जब धीरे-धीरे एहसास हो रहा है कि अब वह नहीं होगी, कभी नहीं होगी. हमें पता होता था, इरफान खान फिल्म में हैं तो बिना ज्यादा सोचे फिल्म देख लेनी है, फिल्म से कुछ मिले न मिले, इरफान निराश नहीं करेंगे. मैंने कभी एक लेख में लिखा था कि रवि किशन जिस फिल्म में झांककर चले जाते हैं, उसमें भी उनका रोल याद रह जाता है. क्या यह इरफान पर लागू नहीं होता. कुछ सेकेंड का सीन 'सलाम बॉम्बे' का मुझे आज भी याद है. एक 'डॉक्टर की मौत' का रिपोर्टर, कोई भूल सकता है उसे क्या?

उनके न रहने पर मेरी शुरुआती प्रतिक्रिया इस खबर को नकारने वाली थी. मैंने इस पर न सोचने, इसे न मानने का निश्चय किया था. वैसे मेरे लिए एक बात चौंकाने वाली रही. मैंने देखा लोग उनकी अंतिम खबर पर रो रहे थे. मैंने दसियों लोगों से इस पर रोते देखा और सुना. मैंने इंस्टा चेक किया, हर एक पोस्ट इरफान पर थी. मैंने वॉट्सएप स्टोरी चेक की, हर स्टोरी इरफान पर थी. मैंने सोचा ऐसा क्या था इस बंदे में कि सिनेमा-विनेमा से कोई लगाव न रखने वाले लोग भी इस तरह से महसूस कर रहे हैं. मैंने अपनी भावनाओं में इसका उत्तर ढूंढने की कोशिश की. मुझे समझ आया कि ये सारे ही लोग अभी इरफान से बहुत कुछ चाहते थे, मेरी ही तरह ये रोज सूरज को दिन लेकर आते देखना चाहते थे. उन्हें एहसास हो रहा है कि अब उनकी एक्टिंग और देखने को नहीं मिलेगी और वो रो रहे हैं, मातम कर रहे हैं. यह सोचकर मेरा दिल बैठने लगा. तबसे से जब-जब कभी न देख पाने का एहसास हो रहा है. बहुत बुरा लग रहा है. मैं अब भी स्वीकारना नहीं चाहता ऐसा हुआ है.

एक और बात बता दूं कि मैं इरफान खान का फैन नहीं रहा हूं. मैंने अपने आपको जिनके फैन के तौर पर हमेशा स्वीकारा है, वे हैं केके मेनन और विजयराज. इन दोनों के पास लोगों को चौंकाने के लिए पर्याप्त उपकरण होते हैं. लेकिन यह मानूंगा कि इरफान इनसे कहीं ज्यादा वास्तविक और सहज थे. केके मेनन और विजयराज के बीच कहीं. वह इंटेंसिटी भी और अपना मजाक बनाकर सारी महफिल खींच लेने का माद्दा भी. फिर भी इरफान इतने सहज थे कि उनपर अलग से नोटिस की जरूरत नहीं पड़ती थी, मुझे हमेशा लगा कि यह इरफान नहीं, फिल्म का वह किरदार ही तो है. एक और बात जिसके चलते मैंने लोगों को दुख करते देखा शायद वह यह था कि अभी उन्होंने किया ही क्या था, कितना सब तो अपने साथ लेकर चले गए. अरे आखिर पिछले दशक तक इरफान फिल्मों के केंद्र में कहां थे? वो कहानी में कहीं साइड पर खड़े पूरी फिल्म का ताना-बाना सुलझा रहे होते थे. लेकिन जबसे 'सात खून माफ' और 'लाइफ ऑफ पाई' जैसी फिल्में आईं तब तय हुआ कि इरफान वापस टीवी में खर्च होने नहीं जाएंगे. उनका एक मुकाम है, वे यहीं रहेंगे, सिल्वर स्क्रीन पर प्रमुखता के साथ.

इस घोषणा के बाद हमें वे 'हैदर', 'साहब बीवी और...' फिर अपने सबसे ऊंचे मकाम 'पान सिंह तोमर', 'लंचबॉक्स' और 'पीकू' में दिखे. तय हो गया कि वो इंडस्ट्री को अब तक मिले सबसे बेहतरीन एक्टर्स में से एक हैं. अखबार, मैग्जीन के कॉलम उनकी तारीफों से पटे रहने लगे. लेकिन तबसे उन्होंने फिल्में ही कितनी कीं. बहुत ज्यादा तो 10. दरअसल हम अभी उनसे बहुत चाहते थे, बहुत कुछ. लेकिन एक बंदा जो समाज से ले कुछ नहीं रहा, कब तक एक तरफा देने की प्रक्रिया चलाए रखता, उस खुद्दार शख्स ने तो ईश्वर को हमारी दुआएँ तक कुबूल करने से मना कर दिया था...

PS: बहुत दुख के साथ आज लगातार 21वें दिन (किसी काम की आदत डालने के लिए इतने दिन वह काम करना जरूरी होता है) के ब्लॉग को लिखते हुए मुझे 'द इमैजिंड कम्युनिटीज' के अगले अंक की जगह इरफान खान की मौत के बारे में लिखना पड़ रहा है. अब भी चाहता हूं काश ये बुरा सपना टूटे और मेरी आंख खुल जाए.

(नोट: आप मेरे लगातार लिखने वाले दिनों को ब्लॉग के होमपेज पर [सिर्फ डेस्कटॉप और टैब वर्जन में ] दाहिनी ओर सबसे ऊपर देख सकते हैं.)

Tuesday, April 28, 2020

Benedict Anderson की किताब Imagined Communities का संक्षिप्त अनुवाद: प्रिंट पूंजीवाद ने राष्ट्रीय भाषाओं को मजबूती दी, रखी राष्ट्रवाद की नींव

1500-1600 के बीच यूरोपीय भाषाओं को मानकीकृत किया जाना शुरू हुआ

प्रिंट पूंजीवाद ने विशिष्ट राष्ट्रीय भाषाओं को मजबूती दी और रखी राष्ट्रवाद की नींव


पंद्रहवीं शताब्दी में प्रिंटिंग प्रेस के आविष्कार ने संचार में क्रांति ला दी. पहले किताबों की बेहद मेहनत के साथ हाथ से नकल की जाती थी, और पुस्तकालय खुद को एक दर्जन संस्करणों के साथ भाग्यशाली माना करते थे. फिर किताबें बड़े पैमाने पर व्यापार की एक वस्तु बन गईं. 1500 तक, करीब 2 करोड़ किताबें छप चुकी थीं. 1500 से 1600 के बीच लगभग 20 करोड़ और किताबों का उत्पादन हुआ. जैसा कि अंग्रेजी दार्शनिक फ्रांसिस बेकन ने इस अद्भुत सदी के अंत में लिखा था, "छपाई ने दुनिया का रूप और अवस्था" बदल दी थी.

वह सही थे. जल्द ही, यहां तक कि भाषाओं को भी (मानकीकरण के जरिए) बदला गया.

तो ये सारी किताबें कौन छाप रहा था? जाहिर है, व्यवसायी. पुस्तक की छपाई यूरोप में उभरने वाले पूंजीवादी उद्यमों के शुरुआती रूपों में से एक था और पूंजीवादी के हर रूप की तरह, व्यापार का यह प्रभाव हुआ कि नए बाजारों की बेचैनी से खोज की जाने लगी.

इससे शायद ही कोई आश्चर्य हो. जब पहली बार छपाई हुई, तो प्रकाशकों ने मुख्यत: महाद्वीप के छोटे से लैटिन पाठक समूह को ही आकर्षित किया. यह बाजार जल्द ही संतृप्त हो गया, हालांकि, अभी जनसंख्या की एक भाषा भाषी बहुसंख्यक जनता बची रही. उनको आकर्षित करने के लिए, आपको उन भाषाओं में किताबों की छपाई करनी थी, जिसे वे समझते थे. और यही प्रकाशकों ने करना शुरू कर दिया.

यह काम पर लग चुका प्रिंट पूंजीवाद था, जो स्थानीय भाषाओं में छपाई की ओर ले गया. इसके साथ ही साथ धर्म सुधार और सोलहवीं शताब्दी का कैथोलिक चर्च में सुधार का आंदोलन भी चल रहा था. छपाई से पहले, रोम ने चुनौती पेश करने वाले विधर्मियों को सहजता से कुचल दिया था. यह ऐसा करने में कैसे सक्षम था? आसान सी बात है- यह सारे संचार को नियंत्रित करता था.

लेकिन जब लूथर ने 1517 में जर्मन में अपना शोध पूरा किया, यह बदल चुका था. किताबों के व्यापार की बदौलत, अब जर्मन भाषा के ग्रंथों के लिए बड़े पैमाने पर बाजार था. 15 दिनों के भीतर, देश के हर भाग में लूथर की बातें पहुंच गईं. यह दो चीजों का सबूत था, जो पहले कभी मौजूद नहीं थीं- एक छपी हुई स्थानीय भाषा और पूरी तरह अनपढ़ जनता और द्विभाषी लैटिन के पाठक वर्ग के बीच के स्थित एक पढ़ सकने वाली वाला वर्ग. जैसे-जैसे यह प्रक्रिया पूरे यूरोपीय महाद्वीप में दोहराई गई, स्थानीय भाषाओं को मानकीकृत किया गया. बड़ी संख्या में अपने अलग अंदाज में फ्रांसीसी, अंग्रेजी और स्पेनिश भाषा बोलने वाले, जो शायद एक-दूसरे को बातचीत के दौरान नहीं समझ पाते, अब छपे हुए में एक-दूसरे से संवाद करते थे.

उसी समय पाठकों को धीरे-धीरे उन लाखों लोगों के बारे में पता चला जो उन्हीं की भाषा बोलते थे, साथ ही उन लोगों के बारे में भी जो उनकी भाषा हीं बोलते थे. राष्ट्रीय विशेषताओं के आधार पर किसी समुदाय की कल्पना करने का यह पहला कदम था.

ये सह-पाठक, जिनके साथ लोग छपाई के जरिए जुड़े थे, इन्होंने मिलकर राष्ट्रीय स्तर के काल्पनिक समुदाय का भ्रूण तैयार किया.

किताब के बारे में-

काल्पनिक समुदाय की अवधारणा को बेनेडिक्ट एंडरसन ने 1983 मे आई अपनी किताब 'काल्पनिक समुदाय' (Imagined Communities) में राष्ट्रवाद का विश्लेषण करने के लिए विकसित किया था. एंडरसन ने राष्ट्र को सामाजिक रूप से बने एक समुदाय के तौर पर दिखाया है, जिसकी कल्पना लोग उस समुदाय का हिस्सा होकर करते हैं. एंडरसन कहते हैं गांव से बड़ी कोई भी संरचना अपने आप में एक काल्पनिक समुदाय ही है क्योंकि ज्यादातर लोग, उस बड़े समुदाय में रहने वाले ज्यादातर लोगों को नहीं जानते फिर भी उनमें एकजुटता और समभाव होता है.

अनुवाद के बारे में- 

बेनेडिक्ट एंडरसन के विचारों में मेरी रुचि ग्रेजुएशन के दिनों से थी. बाद के दिनों में इस किताब को और उनके अन्य विचारों को पढ़ते हुए यह और गहरी हुई. इस किताब को अनुवाद करने के पीछे मकसद यह है कि हिंदी माध्यम के समाज विज्ञान के छात्र और अन्य रुचि रखने वाले इसके जरिए एंडरसन के कुछ प्रमुख विचारों को जानें और इससे लाभ ले सकें. इसलिए आप उनके साथ इसे शेयर कर सकते हैं, जिन्हें इसकी जरूरत है.

(नोट: आप मेरे लगातार लिखने वाले दिनों को ब्लॉग के होमपेज पर [सिर्फ डेस्कटॉप और टैब वर्जन में ] दाहिनी ओर सबसे ऊपर देख सकते हैं.)

Monday, April 27, 2020

Benedict Anderson की किताब Imagined Communities का संक्षिप्त अनुवाद: पवित्र भाषाओं, बड़े साम्राज्यों और धार्मिक समुदायों की सांठ-गांठ

यहूदी, ईसाई और मुस्लिम तीनों ही धर्मों में पवित्र माने जाने वाले शहर जेरूसलम की तस्वीर (फोटो क्रेडिट- Getty Images)

पवित्र भाषाओं ने बड़े साम्राज्यों और धार्मिक समुदायों को जोड़े रखा


इस चित्र की कल्पना कीजिए. यह सत्रहवीं शताब्दी है और हम इस्लाम के सबसे पवित्र शहर मक्का में हैं, जहां हमारी मुलाकात दो तीर्थयात्रियों से होती है. एक फिलीपींस की एक सल्तनत मगिंडनाओ से है, और दूसरा मोरक्को की पहाड़ियों से आया नाई है. ये दोनों अजनबी कभी नहीं मिले, एक-दूसरे की मातृभाषाओं को नहीं समझते, और विभिन्न संस्कृतियों के रीति-रिवाज मानते हैं, फिर भी वे एक दूसरे को 'भाई' मानते हैं. क्यों? बहरहाल, क्योंकि वहां एक चीज ऐसी है जिसे वे दोनों साझा करते हैं- अरबी, कुरान और सभी मुसलमानों की पवित्र भाषा.

यहां हमें यह महत्वपूर्ण संदेश मिलता है कि
पवित्र भाषाएं बड़े साम्राज्यों और धार्मिक समुदायों को साथ रखने वाली गोंद थीं.
धार्मिक और साम्राज्यों की भाषाएं जैसे कुरान की अरबी, चीनी और लैटिन की व्याख्या तीन विशेषताओं के आधार पर की गई. सबसे पहली बात, उन्हें बोलने से बजाए पहले लिखा और पढ़ा गया. अलग तरह से कहें तो उन्होंने ध्वनियों के समुदाय बनाने के बजाए संकेतों के समुदाय बनाए. अगर आप गणितीय संकेतों की ओर देखें तो आप समझ सकते हैं कि यह कैसे काम करता है. उदाहरण के तौर पर थाई और रोमानियन भाषाओं में "प्लस" चिन्ह के लिए अलग-अलग नाम हैं लेकिन दोनों 'क्रॉस' प्रतीक को एक ही तरह से पहचानते हैं.

दूसरी बात, ये भाषाएँ सत्य की भाषाएँ थीं. उन्हें सीखने की तुलना फ्रेंच (जैसी भाषाएँ) सीखने से नहीं की जा सकती है. ऐसा इसलिए क्योंकि देशी भाषाएँ और सामान्य भाषाएँ दैविक तरह से प्रेरित नहीं थीं, जिस तरह से लैटिन या कुरान की अरबी थी. वे चीजों की वास्तविक प्रकृति तक पहुँच नहीं करा सकती थीं, यही वजह है कि शिक्षित यूरोपीय लोगों ने शलजम की खेती के बारे में जर्मन या स्वीडिश में बात की लेकिन दर्शन और धर्मशास्त्र पर चर्चा के लिए उन्होंने लैटिन को चुना.

इसी के चलते कई कैथोलिक लूथर के इस विचार से भयभीत हो गए थे कि बाइबिल का देशी भाषाओं में अनुवाद किया जा सकता है. जबकि वे मानते थे, धार्मिक सत्य सिर्फ विशेषाधिकार प्राप्त भाषाओं में बोले-लिखे-पढ़े जा सकते थे.

कुछ भाषाओं की पवित्रता की इस बात और उनकी सत्य तक पहुंच प्रदान करने की क्षमता ने साम्राज्यों और धार्मिक समुदायों की काल्पनिक सदस्यता को के लिए रास्ता खोला. उदाहरण के लिए चीनी साम्राज्य के शासक वर्ग ने, 'बर्बरों' को मान्यता दी, जो धीरे-धीरे मध्य साम्राज्य के प्रतीकों को चित्रित करना सीख रहे थे- इसका मतलब यह माना गया कि वे सभ्य हो रहे थे. यह इन सत्य की भाषाओं पर महारथ ही थी, जिसने मंगोलों को चीनी बनने और तुर्की खानाबदोशों को मुस्लिम बनने की अनुमति दी.

अगर किसी को इन धार्मिक समुदायों और साम्राज्यों में शामिल किया जा सकता था, तो इसका कोई कारण नहीं था कि ये समूह अनंत काल तक न बढ़ते रहें. तब क्यों, मध्य युग के अंत में धर्म में गिरावट आई? एक शब्द में कहें तो 'देशीकरण' के चलते- जो कि सत्य की भाषाओं का विखंडन है और उनका स्थानीय भाषाओं से प्रतिस्थापन है. जैसा हम अगले अंक में पढ़ेंगे, यह प्रक्रिया बड़े पैमाने पर पूंजीवाद और प्रिंटिंग प्रेस द्वारा चलाई गई.

किताब के बारे में-

काल्पनिक समुदाय की अवधारणा को बेनेडिक्ट एंडरसन ने 1983 मे आई अपनी किताब 'काल्पनिक समुदाय' (Imagined Communities) में राष्ट्रवाद का विश्लेषण करने के लिए विकसित किया था. एंडरसन ने राष्ट्र को सामाजिक रूप से बने एक समुदाय के तौर पर दिखाया है, जिसकी कल्पना लोग उस समुदाय का हिस्सा होकर करते हैं. एंडरसन कहते हैं गांव से बड़ी कोई भी संरचना अपने आप में एक काल्पनिक समुदाय ही है क्योंकि ज्यादातर लोग, उस बड़े समुदाय में रहने वाले ज्यादातर लोगों को नहीं जानते फिर भी उनमें एकजुटता और समभाव होता है.

अनुवाद के बारे में- 

बेनेडिक्ट एंडरसन के विचारों में मेरी रुचि ग्रेजुएशन के दिनों से थी. बाद के दिनों में इस किताब को और उनके अन्य विचारों को पढ़ते हुए यह और गहरी हुई. इस किताब को अनुवाद करने के पीछे मकसद यह है कि हिंदी माध्यम के समाज विज्ञान के छात्र और अन्य रुचि रखने वाले इसके जरिए एंडरसन के कुछ प्रमुख विचारों को जानें और इससे लाभ ले सकें. इसलिए आप उनके साथ इसे शेयर कर सकते हैं, जिन्हें इसकी जरूरत है.

(नोट: आप मेरे लगातार लिखने वाले दिनों को ब्लॉग के होमपेज पर [सिर्फ डेस्कटॉप और टैब वर्जन में ] दाहिनी ओर सबसे ऊपर देख सकते हैं.)

Benedict Anderson की किताब Imagined Communities का संक्षिप्त अनुवाद: राष्ट्रवाद, धर्म नहीं लेकिन धर्म जैसा ही विचार

गांव से बड़े सभी समुदाय किसी न किसी तरह से काल्पनिक हैं (फोटो क्रेडिट- Verso Books)
इतिहास में ज्यादातर, मानवता का बड़ा भाग साम्राज्यों में रहा है. आधुनिक राष्ट्र-राज्यों से अलग, साम्राज्यों की दृढ़ सीमाएं नहीं होती थीं. शाही शादियां, अधीन बनाने के लिए किए गये युद्ध और धर्मांतरण साम्राज्यों के विस्तार के तरीके थे. इस तरह से जो आधुनिक स्पेन, ब्रिटेन और इटली का इलाका है, वह एक ही साम्राज्य- रोमन साम्राज्य; वहीं फारस, अफगानिस्तान; और भारत एक अन्य साम्राज्य, मुगल साम्राज्य हुआ करते थे.

फिर, अठारहवीं सदी के अंत में, एक नया विचार उभरा- राष्ट्रवाद. इससे यह स्थापित हुआ कि बुल्गारिया के लोगों, चेक लोगों और सर्बिया के लोगों को उस एक ही इलाके में नहीं रहना चाहिए, जिस पर ऑस्ट्रो-हंगेरियन राज परिवार का शासन हो बल्कि उनके पास अपने अलग-अलग राज्य होने चाहिए.

यह एक नए तरह का 'काल्पनिक समुदाय' था. एक गांव से बड़े सभी समुदाय किसी न किसी तरह से काल्पनिक हैं क्योंकि असली जीवन में उसके लोग अपने साथी निवासियों में से मुट्ठी भर से ज्यादा को नहीं जान पाते. साम्राज्यों की सदस्यता अक्सर धार्मिक या राजवंशीय हुआ करती थी. जबकि राज्य, इससे अलग हैं. समान समुदाय से होने का मतलब है, समान राष्ट्रीयता से संबंध रखना, फिर पहले उसे भी परिभाषित करना होता है.

तो स्पेन वाले कैसे स्पेनिश बने और अल्जीरिया वाले अल्जीरियन? आगे हम आपको बतायेंगे कि कैसे राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद का जन्म हुआ. इस किताब से आप सीखेंगे-

1. क्यों राष्ट्रवाद, राजनीतिक विचारधारा के बजाए धार्मिक तरह का विचार ज्यादा लगता है?

2. कैसे किताबों का कारोबार करने वाले राष्ट्रवाद के योगदान के जरिए नए बाजारों की तलाश करते हैं?

3. क्यों भाषाओं की शिक्षा साम्राज्यों के शासकों के लिए एक सिरदर्द बनकर रह गई?

राष्ट्रवाद धर्म नहीं लेकिन आधुनिक राजनीतिक विचारधारा होने के बजाए धार्मिक विश्वास के तरीकों के ज्यादा करीब


जब हम दुनिया में आते हैं तो सारी चीजें हमारी चुनाव की शक्तियों से परे होती है. हमारी आनुवांशिक विरासत, हमारे माता-पिता, हमारी शारीरिक शक्तियां सभी संयोग पर आधारित होती हैं. जीवन में एक मात्र निश्चित बात मृत्यु होती है. इन दो तथ्यों- हमारे अस्तित्व की आकस्मिकता और मृत्यु की अवश्यंभाविता पर इंसानों द्वारा हमेशा से बहुत जोर दिया गया है. ज्यादातर पारंपरिक आस्था वाले तंत्रों में इन्हें समझने के प्रयास केंद्र में होते हैं. इसके विपरीत विचारों की आधुनिक शैली उन सवालों के जवाब में खामोश रह जाती है, जिनका निपटारा विज्ञान के जरिए नहीं हो सकता है, जिसके चलते न ही उदारवादी और न ही मार्क्सवादियों के पास अमरता के बारे में बहुत कुछ कहने को है. जबकि राष्ट्रवादियों के पास है.

और यही इस पाठ का प्रमुख संदेश भी है- राष्ट्रवाद धर्म नहीं है, लेकिन यह आधुनिक राजनीतिक विचारधारा के बजाए धार्मिक विश्वास के तरीकों के ज्यादा करीब है.

इस तरह से हम सैनिकों की याद में बनाए गए स्मारकों को, राष्ट्रवाद के सबसे रोचक प्रतीकों में से एक मान लेते हैं. ये स्मारक अज्ञात सैनिकों को समर्पित होते हैं, और यह यही अज्ञातता होती है जो कि इन भूतिया गुंबदों को उनका अर्थ देती है. क्योंकि वे 'अज्ञात सैनिकों' का स्मरण करते हैं जिनकी कोई व्यक्तिगत पहचान नहीं है, लेकिन वे किसी बड़ी चीज के प्रतीक बन गए हैं. वे सबसे बड़े बलिदान को प्रदर्शित करते हैं- किसी के उसके देश के लिए मर जाने को. स्मारक यह सुझाते समझ आते हैं कि जिन्होंने किसी बड़ी चीज के लिए अपनी जिंदगी दी, वे खुद हमेशा के लिए जिंदा रहेंगे.

ऐसे में, राष्ट्रवाद धार्मिक दुनिया के विश्वासों जैसा नजर आता है. आस्थाएं जैसे बौद्ध, ईसाईयत, और इस्लाम, उदाहरण के लिए हजारों सालों तक दर्जनों अलग-अलग समाजों में इसलिए जिंदा रह सके क्योंकि वे इंसान के सहज बोध में घुस गए. ये आस्थाएं यह विश्वास लेकर आती हैं कि जीवन में जो बेतरतीब नुकसान हो रहे हैं और जिस तरह जिंदगी का प्रवाह चल रहा है, उसमें जरूर कोई गहरा मतलब छिपा होगा. चाहे वे इसे कर्म कहें या मौत के बाद की दुनिया, धर्म मरे हुओं, जीवितों और अभी पैदा होने वालों को मौत और फिर से जन्मने के एक अनन्त चक्र में जोड़कर इस अर्थ को पाते हैं.

राष्ट्रवाद और धार्मिक विचारों के बीच इस समानता को देखते हुए, यह आश्चर्यजनक नहीं है कि पहले वाला तुरंत उभरा जब बाद वाला कमजोर पड़ रहा था. हजारों सालों तक बिना प्रमाण के सही माने जाते रहने के बाद, अठारहवीं शताब्दी के यूरोप में धर्म अपनी स्वत: स्पष्ट रहने वाली स्थिति खो रहा था. यह प्रबोधन का युग था, एक ऐसा बौद्धिक आंदोलन जिसमें लोग धार्मिक परंपराओं के बजाए मानवीय तर्क पर जोर दे रहे थे. निश्चित रूप से धर्म का पतन नहीं हुआ, फिर भी इससे उस यातना का खात्मा हो गया, जो धर्म का अंग हुआ करती थी.

वास्तव में, इस पतन ने वर्तमान जीवन के दिल में एक खाली जगह छोड़ दी. बिना स्वर्ग के, अस्तित्व असहनीय रूप से मनमाना महूसस होने लगा. मोक्ष की संभावनाओं के बिना और उसके बाद की जिंदगी के ख्यालों के बिना, राष्ट्रों के काल्पनिक समुदाय और भी ज्यादा आकर्षक लगे. लेकिन इससे पहले कि हम राष्ट्रवाद का ही परीक्षण करें, उस सांस्कृतिक तंत्र पर एक नज़र डालते हैं, जो इसे लेकर आया.
राष्ट्रवाद को उसके पूर्ववर्ती सांस्कृतिक तंत्र के साथ जोड़कर, उनकी ही पंक्ति में खड़े विचार की तरह देखा जाना चाहिए, न कि सोच-समझकर स्वीकारी गई राजनीतिक विचारधाराओं की तरह.

किताब के बारे में-

काल्पनिक समुदाय की अवधारणा को बेनेडिक्ट एंडरसन ने 1983 मे आई अपनी किताब 'काल्पनिक समुदाय' (Imagined Communities) में राष्ट्रवाद का विश्लेषण करने के लिए विकसित किया था. एंडरसन ने राष्ट्र को सामाजिक रूप से बने एक समुदाय के तौर पर दिखाया है, जिसकी कल्पना लोग उस समुदाय का हिस्सा होकर करते हैं. एंडरसन कहते हैं गांव से बड़ी कोई भी संरचना अपने आप में एक काल्पनिक समुदाय ही है क्योंकि ज्यादातर लोग, उस बड़े समुदाय में रहने वाले ज्यादातर लोगों को नहीं जानते फिर भी उनमें एकजुटता और समभाव होता है.

अनुवाद के बारे में- 

बेनेडिक्ट एंडरसन के विचारों में मेरी रुचि ग्रेजुएशन के दिनों से थी. बाद के दिनों में इस किताब को और उनके अन्य विचारों को पढ़ते हुए यह और गहरी हुई. इस किताब को अनुवाद करने के पीछे मकसद यह है कि हिंदी माध्यम के समाज विज्ञान के छात्र और अन्य रुचि रखने वाले इसके जरिए एंडरसन के कुछ प्रमुख विचारों को जानें और इससे लाभ ले सकें. इसलिए आप उनके साथ इसे शेयर कर सकते हैं, जिन्हें इसकी जरूरत है.

(नोट: आप मेरे लगातार लिखने वाले दिनों को ब्लॉग के होमपेज पर [सिर्फ डेस्कटॉप और टैब वर्जन में ] दाहिनी ओर सबसे ऊपर देख सकते हैं.)

Saturday, April 25, 2020

Good Economics for Hard Times: अभिजीत बनर्जी-एस्थर डुफ्लो की किताब का हिंदी में संक्षिप्त अनुवाद- गरीबी का हल और लोकतंत्र

अभिजीत बनर्जी और एस्थर डुफ्लो की यह किताब दुनिया की तमाम परेशानियों का हल अर्थशास्त्र में ढूंढती है

CASH AND CARE

गरीबी कम करने के लिए हर स्थिति में काम आ जाने वाला कोई एक उपाय नहीं है लेकिन गरीबों की इज्जत को प्राथमिकता देना जरूरी है

कल्पना कीजिए एक बहीखाता देखने के वाले के तौर पर आपकी नौकरी एक रोबोट ने छीन ली है. या चीन के साथ चल रहे व्यापार युद्ध के प्रभाव के चलते  आपका एक जैविक खेत में रोज़ का काम खत्म हो चुका है. या भारतीय कपड़ों के कारखाने में आपका काम खत्म हो जाता है क्योंकि पश्चिम के लिए कोरियाई कपड़ा आयात करना ज्यादा किफायती है.

इन नौकरियों के नुकसान का आपके और आपके परिवार पर गहरा आर्थिक प्रभाव पड़ेगा. लेकिन पैसा वह एकमात्र चीज नहीं होगा, जिसे आप खोएंगे. आप अपना कार्य समुदाय, कार्यस्थल में अपनी पहचान और शायद अपनी इज्जत का अहसास भी खो देंगे.

एक सामाजिक सुरक्षा के जाल (सोशल सेफ्टी नेट) के बिना लोग बहुत तेजी से गरीब हो सकते हैं. एक छंटनी एक पूरे परिवार को गरीबी में डुबा सकती है. ऐसे में सहायता के किसी भी प्रयास को न सिर्फ परिवार की वित्तीय जरूरतों को ध्यान में रखना चाहिए बल्कि बहुत ही मानवीय जरूरत- 'सम्मान के व्यवहार' को भी ध्यान रखना चाहिए.

दुर्भाग्यपूर्ण रूप से कई सहायता कार्यक्रम इसके बजाए गरीबों को बदनाम करते हैं.

नीति निर्माता मानते हैं कि गरीबों पर भरोसा नहीं किया जाना चाहिए कि वे भोजन और शिक्षा जैसी उपयोगी चीजों पर अपना पैसा खर्च करेंगे और इसलिए उन्हें नकद पैसे नहीं दिए जाने चाहिए. जरूरतमंदों को पैसा देने के प्रस्ताव के आलोचकों का तर्क होता है कि अगर लोगों को इस तरह से समर्थन दिया जाता है, तो उनके पास काम करने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं होगा; इसके बजाए, वे लक्ष्यहीन होकर बाकी दिन इधर-उधर पड़े रहेंगे.

लेकिन ये आशंकाएं निराधार हैं. 119 विकासशील देशों में किए गए गरीबों को प्रत्यक्ष वित्तीय सहायता (यूनिवर्सल बेसिक इनकम) देने के प्रयोगों से मिला डेटा दिखाता है कि इससे लाभार्थियों के पोषण और स्वास्थ्य के स्तर में काफी हद तक सुधार होता है. वे इसे शराब और तंबाकू पर खर्च नहीं करते.

बेसिक इनकम पाने के बावजूद लोग काम करने से नहीं बचते. लेखकों में से एक के घाना में किए प्रयोग में, प्रतिभागियों को बैग बनाने के लिए प्रोत्साहित किया गया, जिसे एक अच्छी राशि देकर खरीदा जाना था. कुछ प्रतिभागियों को बकरियां भी दी गईं, जिनका उपयोग आगे की आय पैदा करने के लिए किया जा सकता था. प्रयोग से सामने आया कि न केवल बकरियों के मालिक लाभार्थियों ने उन लोगों की तुलना में अधिक बैग का उत्पादन किया, जिन्हें बकरियां नहीं मिली थीं बल्कि उन्होंने अच्छी क्वालिटी वाले बैग भी बनाए.

गरीब लोगों को हतोत्साहित करने के बजाए, वित्तीय सहायता लाभार्थियों को रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़े बीमार कर देने वाले तनाव से बचा सकती है, और उन्हें कड़ी मेहनत करने, कुछ नया करने या स्थानांतरित होने के लिए स्वतंत्र कर सकती है.

गरीबी मिटाने के लिए हर स्थिति में काम आ जाने वाला कोई उपाय नहीं है. एक समाधान जो घाना में काम करता है, हो सकता है अमेरिका में काम न करे. जरूरी यह है कि सामाजिक संदर्भों को ध्यान में रखा जाए और लाभार्थियों के इसे कर सकने की क्षमता और उनकी इज्जत को प्राथमिकता दी जाए.

लोकतंत्र को खत्म करने वाले राजनीतिक ध्रुवीकरण और पूर्वाग्रह को ठीक करने के लिए हमें एक-दूसरे की बात सुननी होगी


एफबीआई (FBI) के मुताबिक, 2017 में अमेरिका में घृणा अपराधों (हेट क्राइम्स) की संख्या में 17% की बढ़ोत्तरी हुई है. यह लगातार तीसरा साल था, जब ऐसे अपराधों में बढ़ोत्तरी हुई. 2015 से पहले एक लंबे समय तक या तो हेट क्राइम्स की संख्या सपाट थी या घट रही थी.

हम इन बढ़ते आंकड़ों को कैसे समझ सकते हैं? क्यों कोई अश्वेत लोगों, या अप्रवासियों, या अलग सामाजिक वर्ग के लोगों से नफरत करने लगता है? क्या ऐसा है कि कुछ लोग पैदा ही पूर्वाग्रहों के साथ होते हैं और उसी तरह बड़े होते हैं? या यह मीडिया का प्रभाव है और डोनाल्ड ट्रंप जैसे एक अप्रवासी विरोधी राष्ट्रपति की बयानबाजी का?

ये सवाल अर्थशास्त्रियों और अन्य समाज विज्ञानियों को परेशान करते हैं. यह कहना अजीब है कि लोगों का नस्लवाद और पूर्वाग्रहों के प्रति स्वाभाविक झुकाव होता है, क्योंकि यह (बात) उनके इतिहास और सामाजिक संदर्भों की अनदेखी करना है. लेकिन यह कहना कि मीडिया ने लोगों का ब्रेनवॉश कर दिया है, उनकी बुद्धिमत्ता और कुछ कर सकने की क्षमता को कम आंकना होगा. उत्तर (इससे) ज्यादा जटिल है.

हालांकि लोगों की व्यक्तिगत प्राथमिकताएं होती हैं, ये ज्यादातर उन सामाजिक समूहों और उन परिस्थिति विशेष से निर्मित होती हैं, जिसमें वे खुद को पाते हैं. लोग अपने जैसे ही अन्य लोगों की ओर खिंचते हैं. इस तरह से एक समुदाय एक विचार विशेष के लिए एक तरह के प्रतिध्विन कक्ष (इको चैंबर- जिसमें एक ही ध्वनि गूंजती रहे) बन जाते हैं, जिसमें लोग बाहरी विचारों के संपर्क में आए बिना एक-दूसरे के विश्वासों को मजबूत बनाते रहते हैं.

इसका मतलब यह है कि ग्लोबल वॉर्मिंग जैसे वैज्ञानिक तथ्यों पर भी, लोगों की बेहद अलग-अलग राय होती है. जबकि 41% अमेरिकी कहते हैं कि ग्लोबल वॉर्मिंग मानव प्रदूषण के चलते होती है, इतने ही प्रतिशत लोग या तो यह नहीं मानते कि यह हो रही है या सोचते हैं कि यह एक प्राकृतिक घटना है. इन मान्यताओं को राजनीतिक धाराओं में विभाजित किया गया है: डेमोक्रेट्स ग्लोबल वॉर्मिंग में विश्वास की ओर झुकाव रखते हैं, जबकि रिपब्लिकन ऐसा नहीं करते.

यह इको चेम्बर में फेसबुक जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के जरिए शोर और बढ़ जाता है. जहां हम नेटवर्क के अन्य सदस्यों द्वारा शेयर की गई सामग्री को देखते हैं, जिससे हमारे पहले से ही माने जा रहे विचारों को और मजबूती मिलती है.

यदि हम मायने रखने वाले मुद्दों पर एक-दूसरे के साथ संवाद नहीं करते हैं, लोकतंत्र टूटना शुरू हो जाता है. हम केवल जीतने के लिए वैचारिक युद्ध लड़ते हुए बिखरी हुई जनजातियों में टूट जाते हैं.

यहां तक कि सबसे प्रभावी पूर्वाग्रह को भी बदला जा सकता है. लेकिन ऐसा होने के लिए हमें विभिन्न विचारों वाले विभिन्न प्रकार के लोगों के संपर्क में आने की आवश्यकता है. स्कूल और विश्वविद्यालय ऐसी विविध सामाजिक बातचीत के लिए महत्वपूर्ण जगहें हैं, जैसे अमीरों और गरीबों के मिले-जुले पड़ोस होते हैं.

केवल खुली चर्चा के माध्यम से हम अपने समाजों में आ गई कई दरारों को भरना शुरू कर सकते हैं.

GOOD AND BAD ECONOMICS


अर्थशास्त्रियों की साख खराब हुई है, लेकिन वे हमारे सामने आने वाले सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर प्रकाश डाल सकते हैं, जैसे कि आर्थिक असमानता और व्यापार के चलते होने वाले नौकरियों के नुकसान से कैसे निपटा जाए, जलवायु परिवर्तन से कैसे जूझें, और AI के विकास से प्रभावित कामगारों की मदद कैसे करें. इन मुद्दों के प्रभावी समाधान के लिए सरकारों की ओर से मजबूत हस्तक्षेप की जरूरत होगी. करों को बढ़ाकर और नए सामाजिक कार्यक्रम बनाकर जो कि गरीबों को वित्तीय सहायता और नौकरियों के अवसर दें, पूंजी को निष्पक्ष रूप से पुनर्वितरित किए जाने की जरूरत है. सबसे महत्वपूर्ण बात, हमें इस धारणा पर फिर से विचार करने की जरूरत है कि आर्थिक विकास से सभी को फायदा होगा, और धरती और इंसानों की सेहत के लिए चुकाई जा रही वास्तविक लागतों को भी देखना होगा.

किताब के बारे में-


इस किताब में दोनों लेखक तर्क करते हैं कि अर्थशास्त्र कई समस्याओं को लेकर नया दृष्टिकोण पेश कर उन्हें सुलझाने में हमारी मदद सकता है. चाहे वह जलवायु परिवर्तन का हल बिना गरीबों को नुकसान पहुंचाए हो, या बढ़ती हुए असमानता के चलते उभरने वाली सामाजिक समस्याओं से निपटना हो, या वैश्विक व्यापार, और प्रवासियों को लेकर फैलाया गया डर जैसे मुद्दे.

अभिजीत बनर्जी और एस्थर डुफ्लो ने 2019 में अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार डेलपलमेंट इकॉनमिक्स के क्षेत्र में अपने योगदान के लिए पाया. उनकी इससे पहले आई किताब 'पुअर इकॉनमिक्स' (Poor Economics- गरीब अर्थशास्त्र) एक शुरुआती खोज थी कि गरीबी क्या होती है और कैसे सबसे इससे जूझते समुदायों को सबसे प्रभावशाली तरीके से मदद पहुंचाई जाए. ये दोनों ही MIT में प्रोफेसर हैं और बहुत से अकादमिक सम्मान और पुरस्कार पा चुके हैं.


अनुवाद के बारे में-


भारतीय मूल के अर्थशास्त्री अभिजीत वी. बनर्जी और उनकी साथी एस्थर डुफ्लो की 2019 में उन्हें नोबेल मिलने के तुरंत बाद आई किताब गुड इकॉनमिक्स फॉर हार्ड टाइम्स (Good Economics for Hard Times) बहुत चर्चित रही. मैं इस किताब के प्रत्येक चैप्टर का संक्षिप्त अनुवाद पेश करने की कोशिश कर रहा हूं. अभिजीत के लिखे हुए को अनुवाद करने की मेरी इच्छा इस किताब के पहले चैप्टर को पढ़ने के बाद ही हुई. बता दूं कि इसके संक्षिप्त मुझे ब्लिंकिस्ट (Blinkist) नाम की एक ऐप पर मिले. बर्लिन, जर्मनी से संचालित इस ऐप का इसे संक्षिप्त रूप में उपलब्ध कराने के लिए आभार जताता हूं. अंग्रेजी में जिन्हें समस्या न हो वे इस ऐप पर अच्छी किताबों के संक्षिप्त पढ़ सकते हैं और उनका ऑडियो भी सुन सकते हैं. एक छोटी सी टीम के साथ काम करने वाली इस ऐप का इस्तेमाल मैं पिछले 2 सालों से लगातार कर रहा हूं और मुझे इससे बहुत फायदा मिला है. वैश्विक क्वारंटाइन के चलते विशेष ऑफर के तहत 25 अप्रैल तक आप इस पर उपलब्ध किसी भी किताब को पढ़-सुन सकते हैं. जिसके बाद से यह प्रतिदिन एक किताब ही मुफ्त में पढ़ने-सुनने को देगी.

(नोट: अभिजीत वी. बनर्जी और उनकी साथी एस्थर डुफ्लो की 2019 में उन्हें नोबेल मिलने के तुरंत बाद आई किताब गुड इकॉनमिक्स फॉर हार्ड टाइम्स के संक्षिप्त अनुवाद का यह आखिरी अंश था, आगे मेरी कोशिश मशहूर पॉलीमाथ बेनेडिक्ट एंडरसन की किताब द इमैजिन्ड कम्युनिटीज को अनुवाद करने की रहेगी. आप मेरे लगातार लिखने वाले दिनों को ब्लॉग के होमपेज पर [सिर्फ डेस्कटॉप और टैब वर्जन में ] दाहिनी ओर सबसे ऊपर देख सकते हैं.)

Thursday, April 23, 2020

Good Economics for Hard Times: अभिजीत बनर्जी-एस्थर डुफ्लो की किताब का हिंदी में संक्षिप्त अनुवाद- उचित टैक्स, आर्थिक असमानता का इलाज

अभिजीत बनर्जी और एस्थर डुफ्लो की यह किताब दुनिया की तमाम परेशानियों का हल अर्थशास्त्र में ढूंढती है

बुद्धिमान रोबोटों के आने से बहुत पहले से है आर्थिक असमानता

रोबोटों पर आर्थिक असमानता का दोष मढ़ना आकर्षक हो सकता है. वे हमारे समाज में सबसे बड़े घुसपैठिए विदेशी हैं, और इसलिए वे एक बहुत ही सुविधाजनक बलि का बकरा भी हैं.

लेकिन स्वयं को स्कैन कर लेने सुपरमार्केट के बिल काउंटर से बहुत पहले ही असमानता बढ़ रही थी. वास्तव में, हम श्रम बाजार की बड़ी तस्वीर देखे बिना और समग्र रूप से समाज में कमाई का बंटवारा कैसे होता है (जाने बिना) AI के श्रम बाजार पर प्रभावों को नहीं समझ सकते.

1980 तक संयुक्त राज्य अमेरिका में सबसे धनी 1% लोगों की राष्ट्रीय आय का हिस्सा लगातार घर रहा था. यह 1928 के 28% से 1979 आते-आते लगभग एक-तिहाई कम हो चुका था. लेकिन ये ट्रेंड 1980 के बाद से तेजी से उलट गए, जिससे कि असमानता फिर से 1928 के स्तर पर पहुंच गई. 1980 के बाद से धन असमानता लगभग दोगुनी हो चुकी है.

जबकि शीर्ष 1% लोगों की आय में तेज वृद्धि हुई है. श्रमिकों के लिए मजदूरी बढ़नी बंद हो गई है. दरअसल, 2014 में जब औसत मजदूरी को मुद्रास्फीति की के हिसाब से तुलना कर आंका गया तो यह 1979 से अधिक नहीं थी. कम से कम शिक्षित कामगारों के सामने एक कठिन समस्या और है- 2018 में पुरुष कामगारों का वास्तविक वेतन 1980 की तुलना में 10 से 20% कम था.

तो 1980 में ऐसा क्या हुआ जो असमानता में इस भारी वृद्धि की वजह बना. कई अर्थशास्त्री इसके लिए रोनाल्ड रीगन और मार्गरेट थैचर जैसे नेताओं की नीतियों की ओर इशारा करते हैं, जो बहुत अमीर लोगों के लिए करों को घटाने के लिए तैयार की गई आक्रामक नीतियों के साथ सत्ता में आए, जिसके पीछे तर्क था कि इनके कमाए वित्तीय लाभ 'ट्रिकल डाउन' (अमीरों के लाभ बढ़ने पर वे इसे गरीबों तक भी पहुंचाएंगे) होकर औसत कामगार तक पहुंचेंगे.

रीगन-थैचर काल के आर्थिक दर्शन ने इस विचार को भी वैध ठहराया कि कुछ लोग अत्यधिक वेतन के हकदार थे. इसके पीछे तर्क क्या था? कि वे बेहद प्रतिभाशाली थे और अच्छी कमाई से उन्हें और अधिक मेहनत से काम करने का प्रोत्साहन मिलेगा.

लेकिन यह (तर्क) इस तथ्य को झुठलाता है कि वित्तीय उद्योगों में CEO लोगों को अक्सर बिना कुछ किए मोटे बोनस की कमाई होती है. उनके वेतन के, कंपनी के बाजार मूल्य से जुड़े होने के चलते, उन्हें तब अधिक पैसा मिलता है, जब कंपनी अच्छा करती है. लेकिन उनके निम्न दर्जे के कर्मियों को अधिक पैसे मिलने का कोई प्रोत्साहन नहीं है. जो कि वास्तव में, इस तर्क के पूरी तरह से खिलाफ है.

सबसे अधिक कमाने वालों और बाकी सभी के बीच यह बड़ी असमानता ज्यादा समय नहीं चल सकती. इसे सुधारने के लिए अमेरिका जैसे देशों को क्या बदलने की जरूरत है? एक शब्द में उत्तर दें तो: टैक्स (कर).

उचित कर लगाने से आर्थिक असमानता को हल करने में मदद मिल सकती है

अत्यधिक कमाई करने वाले और अन्य कामगारों के बीच समान आधार बनाने का एक रास्ता है: टैक्स. अध्ययनों से पता चला है कि जब शीर्ष 1% लोगों के लिए टैक्स की दर 70% या उससे अधिक होती है तो वेतन अधिक समान होते हैं. ऐसे में कॉरपोरेशन ऐसे सनकी स्तर के वेतन देना बंद कर देते हैं, क्योंकि टैक्स ऑफिस को सैलरी का 70% देने का कोई मतलब नहीं है.

जर्मनी, स्पेन और डेनमार्क जैसे देख, जिन्होंने करों (टैक्स) की दर इतनी अधिक कर रखी है, उनके यहां सर्वाधिक वेतन वाले और औसत कमाई वाले लोगों के बीच का अंतर अमेरिका, कनाडा और ब्रिटेन के मुकाबले कम है, जिन देशों ने 1970 के दशक के बाद अधिक वेतन पर करों को कम कर दिया है.

हालांकि असमानता से निपटने के लिए सरकारों को और अधिक संसाधनों की आवश्यकता पड़ने वाली है. इसका मतलब यह है कि हमें शीर्ष कमाई वालों के वेतन पर अधिक कर लगाने से अधिक की जरूरत है.

एक विकल्प बेहद अमीर लोगों की संपत्ति पर एक धन कर का है. 50 मिलियन डॉलर यानि करीब 380 करोड़ रुपये से अधिक की संपत्ति वाले लोगों पर 2% टैक्स और 1 बिलियन डॉलर यानि करीब 7500 करोड़ रुपये से अधिक की संपत्ति वालों पर 3% कर संभावित तौर पर अगले दस सालों में 2.7 ट्रिलियन डॉलर या 2 लाख अरब रुपये से ज्यादा पैदा किए जा सकते हैं. अरबपतियों के लिए यह महासागर में एक बूंद है लेकिन अगर उस पैसे का इस्तेमाल वैश्विक व्यापार से आहत होने के चलते बेरोजगार हुए लोगों की मदद के लिए या आवास और शिक्षा जैसे अन्य सार्वजनिक कार्यक्रमों के फंड के तौर पर किया जाए तो यह लाखों लोगों की जिंदगी में यह एक बड़ा अंतर ला सकता है.

लेकिन धन टैक्स ही पर्याप्त नहीं हैं. दरअसल परिवर्तन लाने के लिए सभी को योगदान करना होगा.

डेनमार्क और फ्रांस, गरीबी और असमानता से निपटने के लिए महत्वाकांक्षी कार्यक्रम चलाने दोनों देशों में, उनके सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का 46% टैक्स से आता है. इस टैक्स में से अधिकांश औसत कमाई वालों से आता है. इसके उलट, अमेरिकी सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का मात्र 27% ही टैक्स से आता है.

अधिक टैक्स देने का विचार अमेरिका में बेहद अलोकप्रिय है. आंशिक तौर पर ऐसा सरकार पर कम से कम विश्वास होने के चलते है. सरकारी कार्यक्रमों को अक्सर अक्षम और अधिकारियों को भ्रष्ट माना जाता है. लोगों को वैध चिताएं हैं कि उनका पैसा कहां जा रहा है.

टैक्स को अच्छे उपयोग में लाने के लिए सरकारों को जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए. लेकिन उनका काम जरूरी है. जैसा कि हम देख चुके हैं, जब इंसानों का ख्याल रखे जाने की बात आती है तो बाजार हमेशा इसमें कार्य-कुशल नहीं साबित होता. वैश्विक व्यापार, AI, जलवायु परिवर्तन और आने वाली अनगिनत चुनौतियों से प्रभावित कामगारों को सहायता देने के लिए मजबूत सार्वजनिक कार्यक्रमों की जरूरत है. उन कार्यक्रमों में पैसे देने के लिए हमें टैक्स से पैसे जुटाने की जरूरत है.

किताब के बारे में-

इस किताब में दोनों लेखक तर्क करते हैं कि अर्थशास्त्र कई समस्याओं को लेकर नया दृष्टिकोण पेश कर उन्हें सुलझाने में हमारी मदद सकता है. चाहे वह जलवायु परिवर्तन का हल बिना गरीबों को नुकसान पहुंचाए हो, या बढ़ती हुए असमानता के चलते उभरने वाली सामाजिक समस्याओं से निपटना हो, या वैश्विक व्यापार, और प्रवासियों को लेकर फैलाया गया डर जैसे मुद्दे.

अभिजीत बनर्जी और एस्थर डुफ्लो ने 2019 में अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार डेलपलमेंट इकॉनमिक्स के क्षेत्र में अपने योगदान के लिए पाया. उनकी इससे पहले आई किताब 'पुअर इकॉनमिक्स' (Poor Economics- गरीब अर्थशास्त्र) एक शुरुआती खोज थी कि गरीबी क्या होती है और कैसे सबसे इससे जूझते समुदायों को सबसे प्रभावशाली तरीके से मदद पहुंचाई जाए. ये दोनों ही MIT में प्रोफेसर हैं और बहुत से अकादमिक सम्मान और पुरस्कार पा चुके हैं.

अनुवाद के बारे में-

भारतीय मूल के अर्थशास्त्री अभिजीत वी. बनर्जी और उनकी साथी एस्थर डुफ्लो की 2019 में उन्हें नोबेल मिलने के तुरंत बाद आई किताब गुड इकॉनमिक्स फॉर हार्ड टाइम्स (Good Economics for Hard Times) बहुत चर्चित रही. मैं इस किताब के प्रत्येक चैप्टर का संक्षिप्त अनुवाद पेश करने की कोशिश कर रहा हूं. अभिजीत के लिखे हुए को अनुवाद करने की मेरी इच्छा इस किताब के पहले चैप्टर को पढ़ने के बाद ही हुई. बता दूं कि इसके संक्षिप्त मुझे ब्लिंकिस्ट (Blinkist) नाम की एक ऐप पर मिले. बर्लिन, जर्मनी से संचालित इस ऐप का इसे संक्षिप्त रूप में उपलब्ध कराने के लिए आभार जताता हूं. अंग्रेजी में जिन्हें समस्या न हो वे इस ऐप पर अच्छी किताबों के संक्षिप्त पढ़ सकते हैं और उनका ऑडियो भी सुन सकते हैं. एक छोटी सी टीम के साथ काम करने वाली इस ऐप का इस्तेमाल मैं पिछले 2 सालों से लगातार कर रहा हूं और मुझे इससे बहुत फायदा मिला है. वैश्विक क्वारंटाइन के चलते विशेष ऑफर के तहत 25 अप्रैल तक आप इस पर उपलब्ध किसी भी किताब को पढ़-सुन सकते हैं. जिसके बाद से यह प्रतिदिन एक किताब ही मुफ्त में पढ़ने-सुनने को देगी.

(नोट: कल इस किताब के अगले दो चैप्टर का हिंदी अनुवाद पेश करने की मेरी कोशिश होगी. आप मेरे लगातार लिखने वाले दिनों को ब्लॉग के होमपेज पर [सिर्फ डेस्कटॉप और टैब वर्जन में ] दाहिनी ओर सबसे ऊपर देख सकते हैं.)

Good Economics for Hard Times: अभिजीत बनर्जी-एस्थर डुफ्लो की किताब का हिंदी में संक्षिप्त अनुवाद- पर्यावरण के लिए कीमत चुकाएं अमीर देश

अभिजीत बनर्जी और एस्थर डुफ्लो की यह किताब दुनिया की तमाम परेशानियों का हल अर्थशास्त्र में ढूंढती है

Likes, Wants and Needs
जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई को आर्थिक असमानता के खिलाफ लड़ाई से अलग नहीं किया जा सकता है

2018 के अंत में 'पीली जर्सी' (येलो वेस्ट) प्रदर्शनकारियों की भीड़ ने गैसोलीन/पेट्रोल पर प्रस्तावित एक टैक्स का बुरी तरह से विरोध करते हुए पेरिस की सड़कों पर जमकर हंगामा किया. उनका तर्क था कि यह अभिजात वर्ग की रक्षा करते हुए गरीबों को चोट पहुंचाने के लिए उठाया गया एक कदम था. पेरिस के अमीर निवासी काम पर जाने के लिए मेट्रो ले सकते थे लेकिन उपनगरों या ग्रामीण इलाकों में रहने वाले गरीब लोग जो अगर गाड़ी चलाकर काम पर जाएं तो ही आजीविका चला सकते हैं, वे मेट्रो नहीं ले सकेंगे.

यह बहुत सामान्य बात है कि जलवायु परिवर्तन से लड़ने वाला तर्क एक लक्जरी है, जो गरीबों की सामर्थ्य से बाहर है. इस तरह सोचा जाता है कि या तो हम भविष्य के लिए धरती को बचा सकते हैं या हम वर्तमान के लिए अर्थव्यवस्था को बचा सकते हैं.

लेकिन यह गरीबों के लिए भी परेशान करने वाला है जो तुरंत जलवायु परिवर्तन की कीमत चुका रहे हैं, खासकर भूमध्य रेखा के पास मौजूद विकासशील देश. यदि तापमान स्कैंडेनेविया में कुछ डिग्री बढ़ जाता है, तो यहां सुखद गर्मी का अहसास हो सकता है. यदि दूसरी ओर भारत में तापमान बढ़ता है तो यह असहनीय रूप से तपती गर्मी होगी.

इससे भी अधिक, भारत में अधिकांश लोगों के हालात 'लू' से बचने के लिए अनुपयुक्त हैं- सिर्फ 5% घरों में ही एसी है, जबकि इसके विपरीत अमेरिका में 87% लोगों के पास एसी है.

व्यापक विश्वास है कि आर्थिक विकास ही अंतिम अच्छा साधन है. हम ऊर्जा की खपत में कटौती के विचार से डरे हुए हैं कि यह अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर सकता है. लेकिन कोई और रास्ता नहीं है. जलवायु परिवर्तन को धीमा करने के लिए, हमें ऊर्जा खपत में कटौती करनी ही होगी. क्या इसे ऐसे करना संभव है कि यह आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को नुकसान न पहुंचाए.
अमीर देशों में उत्सर्जन को कम करने के उपायों के साथ-साथ, हमें जलवायु परिवर्तन का खामियाजा भुगत रहे विकासशील देशों को सहारा देने के लिए धन के अधिक से अधिक पुनर्वितरण की आवश्यकता है. भारत में एसी का उदाहरण लें. भारत के परिवारों के लिए, स्वच्छ ऊर्जा वाले एयर कंडीशनर, जो HFC गैसों का उत्पादन नहीं करते, के लिए धन देने में दुनिया के सबसे अमीर देशों की GDP का एक छोटा सा हिस्सा खर्च होगा.
हमें धरती को बचाने के लिए गरीबों का बलिदान नहीं करना है, लेकिन अमीर देशों को कीमत चुकाने के लिए तैयार रहना चाहिए.

The End of Growth?
AI अधिक जटिल मानवीय कार्य करने के लिए तैयार हो रहा है, नौकरी के बाजार को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रहा है

आपने विज्ञान फंतासी (साइंस फिक्शन) फिल्मों में यह पटकथा सुनी होगी- इंसानों की जगह चमचमाते रोबोट ने ली है, जो हमारी दुनिया को संभालने से पहले हमारे काम संभाल रहे थे.

यह थोड़ी दूर की कौड़ी लग सकती है, लेकिन क्या यह वास्तव में है? आज रोबोट बर्गर तैयार कर सकता है, फर्श साफ कर सकता है और यहां तक कि जटिल सामान/रसद का भी ध्यान रख सकता है.

उन इंसानों का क्या हुआ, जिनके पास वे नौकरियां थीं? कृत्रिम बुद्धिमत्ता (Artificial Intelligence- AI) और लगातार बढ़ते मशीनीकरण के साथ उनका क्या होगा? इस प्रश्न का जवाब देना जटिल होगा क्योंकि टेक्नोलॉजी इतनी तेज गति से आगे बढ़ रही है.

हालांकि हम आगे के लिए भविष्यवाणी नहीं कर सकते, हम अतीत में मशीनीकरण के प्रभावों को देख सकते हैं. शोधकर्ताओं ने पता लगाया है कि रोबोटों के आने से नौकरियों के बाजार पर एक नकारात्मक प्रभाव पड़ा है. किसी शहरी इलाके में सिर्फ एक औद्योगिक रोबोट की उपस्थिति 6.2 नौकरियों को खत्म कर देती है और मजदूरी को नीचे ले आती है.

हालांकि अभी तक मुख्यत: शारीरिक श्रम वाली नौकरियों का मशीनीकरण हुआ है, AI का मतलब है कि अधिक जटिल कार्यों जैसे बहीखाते रखना, खेल पत्रकारिता और इसके जैसे अन्य काम भी रोबोट से लिए जा सकते हैं. ऐसे में सिर्फ उच्च कौशल वाली कंप्यूटर साइंस की नौकरियां और बहुत कम कौशल वाली कुत्ता टहलाने जैसी नौकरियां ही बाकी रह जाएंगीं. जिन लोगों के पास कॉलेज की डिग्री नहीं है, निश्चय ही वे नकारात्मक तौर पर सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे.
वर्तमान में, किसी अमेरिकी कंपनी के लिए इंसान की तुलना में रोबोट का इस्तेमाल पैसों के मामले में फायदेमंद हो सकता है, चाहे रोबोट काम में अधिक कुशल न भी हो. नौकरी पर रखने वाले को रोबोट को मातृत्व अवकाश या वेतन निधि का (अलग से) भुगतान नहीं करना होगा. कंपनियों को ऐसे रोबोट बनाने के लिए प्रोत्साहित करके, जो इंसानी नौकरियों को छीनने के बजाए बढ़ाने का काम करते हैं, (साथ ही) हम एक टैक्स पेनाल्टी (कर दंड) भी लगा सकते हैं, जो एक इंसान को काम पर रखने को (रोबोट को रखने के मुकाबले) ज्यादा लाभदायक बना देता है.
एक समस्या यह है कि यह निर्धारित करना कठिन हो जाएगा कि कहां पर रोबोट की सीमा खत्म होती है और इंसानों की शुरू होती है. सभी रोबोट चमकदार चांदी के आवरण वाले और पहियों पर घूमने वाले नहीं होते हैं; अक्सर मशीनों में लगे होते हैं, जिन्हें मानव ऑपरेटर चलाते हैं. वास्तव में 'रोबोट' क्या हो सकता है, यह तय करना बहुत कठिन है.
लेकिन आर्थिक असमानता रोबोट के साथ शुरू और खत्म नहीं होती. जैसा कि आप अगले चैप्टर में पाएंगे कि इस असमानता का तकनीकी (टेक्नोलॉजी) की अपेक्षा सामाजिक नीति से ज्यादा लेना-देना है.

किताब के बारे में-

इस किताब में दोनों लेखक तर्क करते हैं कि अर्थशास्त्र कई समस्याओं को लेकर नया दृष्टिकोण पेश कर उन्हें सुलझाने में हमारी मदद सकता है. चाहे वह जलवायु परिवर्तन का हल बिना गरीबों को नुकसान पहुंचाए हो, या बढ़ती हुए असमानता के चलते उभरने वाली सामाजिक समस्याओं से निपटना हो, या वैश्विक व्यापार, और प्रवासियों को लेकर फैलाया गया डर जैसे मुद्दे.

अभिजीत बनर्जी और एस्थर डुफ्लो ने 2019 में अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार डेलपलमेंट इकॉनमिक्स के क्षेत्र में अपने योगदान के लिए पाया. उनकी इससे पहले आई किताब 'पुअर इकॉनमिक्स' (Poor Economics- गरीब अर्थशास्त्र) एक शुरुआती खोज थी कि गरीबी क्या होती है और कैसे सबसे इससे जूझते समुदायों को सबसे प्रभावशाली तरीके से मदद पहुंचाई जाए. ये दोनों ही MIT में प्रोफेसर हैं और बहुत से अकादमिक सम्मान और पुरस्कार पा चुके हैं.

अनुवाद के बारे में-

भारतीय मूल के अर्थशास्त्री अभिजीत वी. बनर्जी और उनकी साथी एस्थर डुफ्लो की 2019 में उन्हें नोबेल मिलने के तुरंत बाद आई किताब गुड इकॉनमिक्स फॉर हार्ड टाइम्स (Good Economics for Hard Times) बहुत चर्चित रही. मैं इस किताब के प्रत्येक चैप्टर का संक्षिप्त अनुवाद पेश करने की कोशिश कर रहा हूं. अभिजीत के लिखे हुए को अनुवाद करने की मेरी इच्छा इस किताब के पहले चैप्टर को पढ़ने के बाद ही हुई. बता दूं कि इसके संक्षिप्त मुझे ब्लिंकिस्ट (Blinkist) नाम की एक ऐप पर मिले. बर्लिन, जर्मनी से संचालित इस ऐप का इसे संक्षिप्त रूप में उपलब्ध कराने के लिए आभार जताता हूं. अंग्रेजी में जिन्हें समस्या न हो वे इस ऐप पर अच्छी किताबों के संक्षिप्त पढ़ सकते हैं और उनका ऑडियो भी सुन सकते हैं. एक छोटी सी टीम के साथ काम करने वाली इस ऐप का इस्तेमाल मैं पिछले 2 सालों से लगातार कर रहा हूं और मुझे इससे बहुत फायदा मिला है. वैश्विक क्वारंटाइन के चलते विशेष ऑफर के तहत 25 अप्रैल तक आप इस पर उपलब्ध किसी भी किताब को पढ़-सुन सकते हैं. जिसके बाद से यह प्रतिदिन एक किताब ही मुफ्त में पढ़ने-सुनने को देगी.

(नोट: कल इस किताब के अगले दो चैप्टर का हिंदी अनुवाद पेश करने की मेरी कोशिश होगी. आप मेरे लगातार लिखने वाले दिनों को ब्लॉग के होमपेज पर [सिर्फ डेस्कटॉप और टैब वर्जन में ] दाहिनी ओर सबसे ऊपर देख सकते हैं.)

Tuesday, April 21, 2020

Good Economics for Hard Times: अभिजीत बनर्जी-एस्थर डुफ्लो की किताब का हिंदी में संक्षिप्त अनुवाद- ट्रेड वॉर नहीं, ये है सही रास्ता

अभिजीत बनर्जी और एस्थर डुफ्लो की यह किताब दुनिया की तमाम परेशानियों का हल अर्थशास्त्र में ढूंढती है

The Pains from Trade

वैश्विक व्यापार समझौतों में सामान स्वतंत्र रूप से आ-जा सकता है, लोग और धन नहीं

अंतरराष्ट्रीय व्यापार समझौतों के पैरोकार इसका भविष्य उज्ज्वल ऐसे दिखाते हैं: प्रत्येक देश उन चीजों का निर्यात करेगा, जिनके उत्पादन में वह बेहतरीन होगा और उन चीजों का आयात करेगा, जो दूसरी जगहों से मंगाए जाने पर (खुद उत्पादित करने के बजाए) ज्यादा सस्ती पड़ेंगीं.

इसलिए, मिस्र अपने सस्ते घरेलू वर्कफोर्स को पूंजी बनाते हुए अधिक श्रम वाली चीजों जैसे हाथ से बुने कालीनों का निर्यात कर सकता है. चीन अपने जबरदस्त तकनीकी संसाधनों और कुशल कारखानों का उपयोग कर बड़े पैमाने पर उत्पादित कंप्यूटर पार्ट्स का निर्यात कर सकता है. फिर उन पार्ट्स को भारतीय कंपनियों द्वारा सस्ते में, स्थानीय तकनीकी उद्योग को मजबूती देने के लिए खरीदा जा सकता है.

हालांकि अंतरराष्ट्रीय व्यापार कुछ उद्योगों और नौकरियों को नुकसान पहुंचाएगा, लेकिन हम ऐसे सोचते हैं कि इससे कारखानों में बिना मुनाफे वाली चीजें बनना बंद हो सकती हैं और नए सुधारों के साथ नई चीजों का निर्माण शुरू हो सकता है. और कामगार काम बदल ज्यादा मुनाफे वाले उद्योगों में लग सकते हैं.

इस विचार के साथ समस्या यह है कि यह उद्योग और कार्यबल (वर्कफोर्स) दोनों से ही तेजी से बदलने की उम्मीद रखता है, जो बात सच्चाई से मेल नहीं खाती.

जैसा कि हम पिछले अंक में देख चुके हैं, कामगार उतनी तेजी से बदलना नहीं जानते, जितना व्यापार सिद्धांत सुझाते है. उन्हें स्थानांतरित किया जाना बहुत कठिन होता है, भले ही उसके लिए आर्थिक प्रोत्साहन दिया जा रहा हो. यह उन्हें एक से दूसरे उद्योग में जाने से रोकता है, क्योंकि यह अक्सर एक नए जिले में जाने के लिए मजबूर करता है.

कंपनियां भी बहुत कम लचीलापन (बदलाव की संभावना) दिखा सकती हैं. जब अर्थशास्त्री पेटिया टोपालोवा MIT में PhD की छात्रा थीं, तब उन्होंने भारत में वैश्विक व्यापार के प्रभाव पर गहन शोध किया था. उन्होंने पाया कि एक कंपनी के लिए किसी उत्पाद को बनाने से बंद कर देना बेहद दुर्लभ था, भले ही उसके उत्पादन में कोई मुनाफा न बचा हो.

जबकि सिद्धांतों के हिसाब से नई कंपनियां ज्यादा नए उत्पाद बनाने के लिए उभर सकती हैं, व्यवहार में आमतौर पर उन्हें बैंकों से धन/लोन मिलना बहुत मुश्किल होता है. इससे उलट, पुरानी कंपनियां तब भी धन/लोन पाती रहती हैं, जब वे घिसट-घिसट कर चल रही होती हैं.
और यदि कोई नई कंपनी स्थानीय मार्केट में एक नए उत्पाद के साथ घुसने में सफल भी होती है, तो वैश्विक बाजार में उसके लिए प्रतिस्पर्धा इतनी आसान नहीं होती.

एक बात तो यह, कि एक विश्वसनीय प्रतिष्ठा बनाने में लंबा समय लगता है. वहीं एक नई कंपनी की ओर से आने वाले माल की समय पाबंद डिलिवरी या गुणवत्ता बनी रहने की गारंटी को लेकर विदेशी खरीददार सावधान रहते हैं. जैसे, विकासशील देशों की कंपनियों के साथ संदेहपूर्ण बर्ताव किया जाता है. यह एक दुष्चक्र बन सकता है. उदाहरण के लिए, यदि मिस्र के कालीन-उत्पादक समूह में कोई निवेश नहीं करता है, तो वह अपनी गुणवत्ता में सुधार नहीं कर पाएगा और (कुशल के बजाए) तेजी से बदले जा सकने वाले कामगारों को काम पर रखेगा.

व्यापार समझौते स्थानीय कामगारों को नुकसान पहुंचा सकते हैं, लेकिन संरक्षणवादी टैरिफ समस्या को हल नहीं करते हैं

आपने शायद 2018 में स्टील कामगारों से घिरे ट्रंप को यह घोषणा करते हुए तस्वीरों-वीडियो में देखा होगा कि अमेरिका, स्थानीय नौकरियों को बचाने के लिए चीन से आयातित एल्यूमिनियम और स्टील पर भारी दरें (टैरिफ) लगाएगा.

क्या यह युक्ति काम कर सकती है? खैर, स्टील कामगारों की नौकरियों को इस कदम के जरिए बचाए जाने की संभावना है. अधिक लोग स्थानीय स्टील खरीदेंगे, जिसका मतलब यह होगा कि उन कारखानों में मांग अधिक होगी, जिससे छंटनी कम होगी. अब तक सुनने में यह बहुत अच्छा लग रहा है, लेकिन यह इतना आसान नहीं है.

स्टील कामगारों से घिरे ट्रंप चीनी स्टील पर कर की घोषणा पर हस्ताक्षर करते हुए
ट्रंप के स्टील पर भारी कर के जवाब में, चीन ने घोषणा की कि वह अमेरिकी कृषि उत्पादों पर कर लगाएगा. यह देखते हुए कि चीन, अमेरिका से निर्यात होने वाली सभी फसलों और मांस का 16% खरीदता है, इसके अमेरिकी कृषि उद्योग पर गंभीर प्रभाव होंगे. हालांकि स्टील कामगारों की नौकरियां बच सकती हैं लेकिन यह खेतों में काम करने वाले कामगारों की नौकरियों की कीमत पर हो सकेगा, जो कि कृषि निर्यात के चीनी बाजारों में बहुत महंगे हो जाने से जाएंगी. इस प्रकार, ट्रंप का व्यापार युद्ध वास्तव में बहुत ही अदूरदर्शी है.

'चीन का झटका' कहे जाने वाले एक प्रभाव के तहत सस्ते चीनी आयातों से प्रतिस्पर्धा के चलते कई कारखाने, व्यवसाय से बाहर हो चुके हैं. टेनेसी का ब्रुस्टन शहर इसका एक भयावह उदाहरण पेश करता है.

ब्रुस्टन शहर को अपने 1700 लोगों को रोजगार देने वाली फैक्ट्री तब बंद करनी पड़ी, जब कपड़ों का उत्पादन मुनाफे वाला नहीं रह गया. 2000 में उसने अपने अंतिम 55 कर्मचारियों को भी खो दिया. निकाले गए कामगार अब शहर में पैसे नहीं खर्च कर सकते थे, जिसका मतलब था कि लगभग सभी स्थानीय व्यापार बंद हो गए. जो कभी एक संपन्न केंद्र था, एक भूतिया शहर में बदल गया. इस वीरानी ने, निवेशकों को वहां नए कारखाने लगाने के लिए भी हतोत्साहित किया. हमने पहले ही देखा है कि बेरोजगार कामगार नई नौकरी खोजने के लिए आसानी से दूसरे जिले में नहीं जा सकते हैं. लेकिन अगर वे यहीं रुकते हैं तो भी कोई संभावना नहीं रहती. ऐसे में वे कर ही क्या सकते हैं?

अमेरिका ने उनके लिए, जिन्होंने अपनी नौकरियां खोई हैं, व्यापार समायोजन सहायता (ट्रेड एडजस्टमेंट असिस्टेंस-TAA) कार्यक्रम नाम की एक पहल की. यह कार्यक्रम कामगारों को बेरोजगारी बीमा देता है और एक नए क्षेत्र में प्रवेश के लिए (आवश्यक) ट्रेनिंग और मदद देता है. यह कामगारों को दूसरे स्थान पर बसने के लिए वित्तीय सहायता भी देता है. कार्यक्रम में सभी सही तत्व शामिल हैं, लेकिन इसे जारी किया जाने वाला फंड बेहद कम है.
वैश्विक व्यापार के सताए लोगों को संरक्षण की जरूरत है, लेकिन साधारण ढंग से कर की दर (टैरिफ) बढ़ाने से कोई हल नहीं मिल सकता. इसके बजाए, हमें हाल ही में बेरोजगार हुए लोगों को खुद को झटके के अनुकूल बनाने और अपने पैरों पर वापस खड़ा के लिए पर्याप्त संसाधनों का निवेश करना होगा.

किताब के बारे में-

इस किताब में दोनों लेखक तर्क करते हैं कि अर्थशास्त्र कई समस्याओं को लेकर नया दृष्टिकोण पेश कर उन्हें सुलझाने में हमारी मदद सकता है. चाहे वह जलवायु परिवर्तन का हल बिना गरीबों को नुकसान पहुंचाए हो, या बढ़ती हुए असमानता के चलते उभरने वाली सामाजिक समस्याओं से निपटना हो, या वैश्विक व्यापार, और प्रवासियों को लेकर फैलाया गया डर जैसे मुद्दे.

अभिजीत बनर्जी और एस्थर डुफ्लो ने 2019 में अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार डेलपलमेंट इकॉनमिक्स के क्षेत्र में अपने योगदान के लिए पाया. उनकी इससे पहले आई किताब 'पुअर इकॉनमिक्स' (Poor Economics- गरीब अर्थशास्त्र) एक शुरुआती खोज थी कि गरीबी क्या होती है और कैसे सबसे इससे जूझते समुदायों को सबसे प्रभावशाली तरीके से मदद पहुंचाई जाए. ये दोनों ही MIT में प्रोफेसर हैं और बहुत से अकादमिक सम्मान और पुरस्कार पा चुके हैं.

अनुवाद के बारे में-

भारतीय मूल के अर्थशास्त्री अभिजीत वी. बनर्जी और उनकी साथी एस्थर डुफ्लो की 2019 में उन्हें नोबेल मिलने के तुरंत बाद आई किताब गुड इकॉनमिक्स फॉर हार्ड टाइम्स (Good Economics for Hard Times) बहुत चर्चित रही. मैं इस किताब के प्रत्येक चैप्टर का संक्षिप्त अनुवाद पेश करने की कोशिश कर रहा हूं. अभिजीत के लिखे हुए को अनुवाद करने की मेरी इच्छा इस किताब के पहले चैप्टर को पढ़ने के बाद ही हुई. बता दूं कि इसके संक्षिप्त मुझे ब्लिंकिस्ट (Blinkist) नाम की एक ऐप पर मिले. बर्लिन, जर्मनी से संचालित इस ऐप का इसे संक्षिप्त रूप में उपलब्ध कराने के लिए आभार जताता हूं. अंग्रेजी में जिन्हें समस्या न हो वे इस ऐप पर अच्छी किताबों के संक्षिप्त पढ़ सकते हैं और उनका ऑडियो भी सुन सकते हैं. एक छोटी सी टीम के साथ काम करने वाली इस ऐप का इस्तेमाल मैं पिछले 2 सालों से लगातार कर रहा हूं और मुझे इससे बहुत फायदा मिला है. वैश्विक क्वारंटाइन के चलते विशेष ऑफर के तहत 25 अप्रैल तक आप इस पर उपलब्ध किसी भी किताब को पढ़-सुन सकते हैं. जिसके बाद से यह प्रतिदिन एक किताब ही मुफ्त में पढ़ने-सुनने को देगी.

(नोट: कल इस किताब के अगले दो चैप्टर का हिंदी अनुवाद पेश करने की मेरी कोशिश होगी. आप मेरे लगातार लिखने वाले दिनों को ब्लॉग के होमपेज पर [सिर्फ डेस्कटॉप और टैब वर्जन में ] दाहिनी ओर सबसे ऊपर देख सकते हैं.)

गुड इकॉनमिक्स फॉर हार्ड टाइम्स: अभिजीत बनर्जी-एस्थर डुफ्लो की किताब का हिंदी में संक्षिप्त अनुवाद- माइग्रेशन क्या वाकई समस्या है?

अभिजीत बनर्जी और एस्थर डुफ्लो की यह किताब दुनिया की तमाम परेशानियों का हल अर्थशास्त्र में ढूंढती है

राजनेताओं ने प्रवासियों के बारे में झूठ बोलकर जनता को गुमराह किया है- FROM THE MOUTH OF THE SHARK

आज प्रवास (Migration)से अधिक विवादास्पद कोई मुद्दा नहीं है. डोनाल्ड ट्रंप जैसे राजनेताओं ने भूखे अप्रवासियों की भीड़ से घिरे हुए अपने देशों की तस्वीर पेश की है, जिसमें ये (अप्रवासी) संसाधनों को नष्ट कर देंगे और स्थानीय लोगों की पहचान को खतरे में डाल देंगे.

राजनेता आपूर्ति और मांग के सरल आर्थिक मॉडल का उपयोग यह समझाने के लिए करते हैं कि माइग्रेशन इतनी बड़ी समस्या क्यों है. ऐसा तर्क किया जाता है कि अप्रवासी अमेरिका जैसे प्रथम विश्व के देश की वित्तीय धन से आकर्षित होंगे, और इसलिए वहां बेहद बड़ी तादाद में वहां पहुंचने लगेंगे. जब वे वहां पहुंचेंगे तो सस्ते श्रम की अधिक आपूर्ति हो जाएगी, जिससे वेतन में कमी आएगी और स्थानीय श्रमिक अपनी नौकरी खो देंगे.

यह तर्क भले ही तर्कसंगत लगता हो लेकिन यह सबूतों के खिलाफ नहीं टिक सकता है.

एक बात तो यह, कि यह सच नहीं है कि अधिक धन मिलने का वादा प्रवासियों को उनके गृह देश को छोड़ने के लिए प्रेरित करने के लिए काफी होता है. अगर यह सच होता तो 2013 में जब ग्रीक अर्थव्यवस्था बुरी हालत में थी तब ग्रीस की आबादी का एक बड़ा हिस्सा, धनी यूरोपीय देशों में चला गया होता. उन्हें कोई नहीं रोकता, ग्रीस के यूरोपियन यूनियन का सदस्य होने के चलते, नागरिकों के लिए पास के अमीर देशों में चले जाना पूरी तरह से कानूनी होता. लेकिन केवल 3 लाख 50 हजार लोग यानि लगभग कुल जनसंख्या का 3% ही दूसरी जगहों पर जाकर बसे.

बल्कि अध्ययनों से पता चला है कि आमतौर पर लोग अपने ही देश में दूसरी जगह जाकर बसने के लिए अनिच्छुक होते हैं. उदाहरण के तौर पर, एक अध्ययन में पाया गया कि बिहार और उत्तर प्रदेश में रहने वाले भारतीय अगर किसी शहर में चले जाते हैं तो उनकी आय दोगुनी हो जाएगी. लेकिन इन इलाकों में 10 करोड़ सबसे गरीब लोगों का केवल 1% का छोटा सा हिस्सा ही वास्तव में ऐसा करता है.

ऐसा इसलिए है क्योंकि लोगों को अपने घर में रखने की बहुत सी आकर्षक वजहें होती हैं- परिवार के संबंध, सपोर्ट नेटवर्क और अज्ञात का डर, उनमें से सिर्फ कुछ वजहें हैं.

कागजों पर इसे, बिना प्रमाण सही मान लिया जाता है कि केवल पैसा ही एक अच्छा प्रेरक होगा. कौन अपनी कमाई को दोगुना नहीं करना चाहेगा? लेकिन ऐसा सरलीकृत मॉडल, मानव स्वभाव की बारीक प्रकृति का विवरण नहीं देता है. आप बदलाव के डर को कैसे नापते हैं? या आपको अपने बीमार माता-पिता की देखभाल करने के लिए घर पर रहने की जरूरत है? या आप अपने बच्चों को ग्रामीण इलाके में ताजी हवा के साथ बढ़ने देने की इच्छा रखते हैं?
जब प्रवास की बात आती है तो राजनेता इसे पूरी तरह से गलत समझते हैं. हमें लोगों को एक से दूसरी जगह स्थानांतरित होने से रोकने की जरूरत नहीं है. बल्कि हमें उन्हें पलायन करने के लिए प्रोत्साहित करने की जरूरत है. क्योंकि जैसा कि हम अगले अंक में देखेंगे, माइग्रेशन अकुशल स्थानीय श्रमिकों के लिए अच्छी चीज है.

अप्रवासन (Immigration) स्थानीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने में मदद करता है और देशी श्रमिकों को नए अवसर प्रदान करता है

एक पल के लिए कल्पना कीजिए कि आप एक वेटर हैं और आपका शहर अप्रवासियों की आबादी से भर गया है, जैसा कि कुछ राजनेता चेतावनी देते हैं कि ऐसा होगा. ऐसी कल्पना करते हुए आप थोड़ा चिंतित होंगे कि आपके पड़ोसी आपकी नौकरी से प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं लेकिन फिर आप यह भी ध्यान देंगे कि उनके आने के बाद से आपका रेस्टोरेंट कितना व्यस्त हो चुका है.

अप्रवासी अपने साथ केवल श्रम की आपूर्ति लेकर नहीं आते. वे सेवाओं के लिए मांग भी लेकर आते हैं. वे कैफे और दुकानों जैसे व्यवसायों में पैसे लगाते हैं, जहां कम-कुशल श्रमिक कर्मचारी रखे जाते हैं.

सबसे उद्यमी प्रवासी अपने स्वयं के व्यवसाय स्थापित करते हैं, जो आगे चलकर रोजगार के अवसर पैदा करते हैं. दरअसल, 2017 में शीर्ष फॉर्च्यून 500 कंपनियों के अध्ययन से पता चला कि अमेरिका में सबसे अधिक कमाने वाली 43% कंपनियों की स्थापना अप्रवासियों या उनके वंशजों ने की थी. स्टीव जॉब्स जैसे लोग, जिनके जैविक पिता सीरिया से आए थे. या हेनरी फोर्ड, जो एक आयरिश अप्रवासी का वंशज था.

इसलिए यह धारणा कि अप्रवासी स्थानीय कम-कुशल श्रमिकों के बाजार को नष्ट कर देते हैं, सच नहीं है. लेकिन यह केवल इसलिए नहीं है कि वे अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन देते हैं. इसका एक अन्य कारण यह यह भी है कि अप्रवासी स्थानीय श्रमिकों और सामाजिक नेटवर्क और स्थानीय ज्ञान से प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते.

आपूर्ति और मांग मॉडल मानता है कि नियोक्ता हमेशा सबसे सस्ता कर्मचारी रखना चाहते हैं, इसलिए अगर अप्रवासी अपनी सेवाएं कम दाम में देता है तो स्थानीय लोग अपनी नौकरी खो देंगे. लेकिन एक कर्मी को नौकरी पर रखना एक तरबूज खरीदने जैसा नहीं है. एक नियोक्ता के पास सोचने के लिए मूल्य से अधिक गंभीर चीजें होती हैं. उन्हें यह जानने की जरूरत होती है कि कर्मी अच्छा प्रदर्शन करेगा और विश्वसनीय होगा. अन्यथा, उन्हें उसे निकालना पड़ेगा, जो मंहगा और अप्रिय हो सकता है.

इन वजहों से, इप्लॉयर हमेशा उन लोगों को काम पर रखना पसंद करते हैं, जिन्हें वे जानते हैं या जो किसी मजबूत सिफारिश के साथ आते हैं. स्थानीय, जिन्होंने क्षेत्र में पहले से ही काम किया हो, इप्लॉयर्स की निगाहों में बेहतर होते हैं, भले ही वे इसके लिए ज्यादा पैसे लें.

स्थानीय लोगों के पास अक्सर ऐसे कौशल होते हैं, जो हाल ही में आने वालों के पास नहीं होते, जैसे धाराप्रवाह उस भाषा में बोलना. एक डेनिश अध्ययन से पता चला है कि अप्रवासियों के उच्च प्रतिशत वाले इलाकों में, डेनिश कर्मचारियों के अधिक कुशल नौकरियों के लिए शारीरिक श्रम के कामों को छोड़ने की संभावना अधिक थी.

ऐसा इसलिए क्योंकि अप्रवासियों को अक्सर केवल वही काम करने को मिलते हैं, जिन्हें करने के लिए स्थानीय लोग तैयार नहीं होते, जैसे साफ-सफाई, घास काटना या बच्चों की देख-रेख करना. इन क्षेत्रों में आपूर्ति (की अधिकता) वाकई मजदूरी को कम कर सकती है लेकिन यह भी श्रमिकों के लिए लाभकारी ही है. उदाहरण के लिए यदि आप एक कम आय वाली स्थानीय मां हैं, तो सस्ते चाइल्ड केयर होने से आपके लिए बाहर जाना और पैसे कमाना आसान हो जाएगा.

किताब के बारे में-

इस किताब में दोनों लेखक तर्क करते हैं कि अर्थशास्त्र कई समस्याओं को लेकर नया दृष्टिकोण पेश कर उन्हें सुलझाने में हमारी मदद सकता है. चाहे वह जलवायु परिवर्तन का हल बिना गरीबों को नुकसान पहुंचाए हो, या बढ़ती हुए असमानता के चलते उभरने वाली सामाजिक समस्याओं से निपटना हो, या वैश्विक व्यापार, और प्रवासियों को लेकर फैलाया गया डर जैसे मुद्दे.

अभिजीत बनर्जी और एस्थर डुफ्लो ने 2019 में अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार डेलपलमेंट इकॉनमिक्स के क्षेत्र में अपने योगदान के लिए पाया. उनकी इससे पहले आई किताब 'पुअर इकॉनमिक्स' (Poor Economics- गरीब अर्थशास्त्र) एक शुरुआती खोज थी कि गरीबी क्या होती है और कैसे सबसे इससे जूझते समुदायों को सबसे प्रभावशाली तरीके से मदद पहुंचाई जाए. ये दोनों ही MIT में प्रोफेसर हैं और बहुत से अकादमिक सम्मान और पुरस्कार पा चुके हैं.

अनुवाद के बारे में-

भारतीय मूल के अर्थशास्त्री अभिजीत वी. बनर्जी और उनकी साथी एस्थर डुफ्लो की 2019 में उन्हें नोबेल मिलने के तुरंत बाद आई किताब गुड इकॉनमिक्स फॉर हार्ड टाइम्स (Good Economics for Hard Times) बहुत चर्चित रही. मैं इस किताब के प्रत्येक चैप्टर का संक्षिप्त अनुवाद पेश करने की कोशिश कर रहा हूं. अभिजीत के लिखे हुए को अनुवाद करने की मेरी इच्छा इस किताब के पहले चैप्टर को पढ़ने के बाद ही हुई. बता दूं कि इसके संक्षिप्त मुझे ब्लिंकिस्ट (Blinkist) नाम की एक ऐप पर मिले. बर्लिन, जर्मनी से संचालित इस ऐप का इसे संक्षिप्त रूप में उपलब्ध कराने के लिए आभार जताता हूं. अंग्रेजी में जिन्हें समस्या न हो वे इस ऐप पर अच्छी किताबों के संक्षिप्त पढ़ सकते हैं और उनका ऑडियो भी सुन सकते हैं. एक छोटी सी टीम के साथ काम करने वाली इस ऐप का इस्तेमाल मैं पिछले 2 सालों से लगातार कर रहा हूं और मुझे इससे बहुत फायदा मिला है. वैश्विक क्वारंटाइन के चलते विशेष ऑफर के तहत 25 अप्रैल तक आप इस पर उपलब्ध किसी भी किताब को पढ़-सुन सकते हैं. जिसके बाद से यह प्रतिदिन एक किताब ही मुफ्त में पढ़ने-सुनने को देगी.

(नोट: कल इस किताब के अगले दो चैप्टर का हिंदी अनुवाद पेश करने की मेरी कोशिश होगी. आप मेरे लगातार लिखने वाले दिनों को ब्लॉग के होमपेज पर [सिर्फ डेस्कटॉप और टैब वर्जन में ] दाहिनी ओर सबसे ऊपर देख सकते हैं.)

Monday, April 20, 2020

गुड इकॉनमिक्स फॉर हार्ड टाइम्स: अभिजीत बनर्जी-एस्थर डुफ्लो की किताब का हिंदी में संक्षिप्त अनुवाद- अर्थशास्त्रियों पर विश्वास

अभिजीत बनर्जी और एस्थर डुफ्लो की यह किताब दुनिया की तमाम परेशानियों का हल अर्थशास्त्र में ढूंढती है
भारतीय मूल के अर्थशास्त्री अभिजीत वी. बनर्जी और उनकी साथी एस्थर डुफ्लो की 2019 में उन्हें नोबेल मिलने के तुरंत बाद आई किताब गुड इकॉनमिक्स फॉर हार्ड टाइम्स (Good Economics for Hard Times) बहुत चर्चित रही. मैं इस किताब के प्रत्येक चैप्टर का संक्षिप्त अनुवाद पेश करने की कोशिश कर रहा हूं. अभिजीत के लिखे हुए को अनुवाद करने की मेरी इच्छा इस किताब के पहले चैप्टर को पढ़ने के बाद ही हुई. बता दूं कि इसके संक्षिप्त मुझे ब्लिंकिस्ट (Blinkist) नाम की एक ऐप पर मिले. बर्लिन, जर्मनी से संचालित इस ऐप का इसे संक्षिप्त रूप में उपलब्ध कराने के लिए आभार जताता हूं. अंग्रेजी में जिन्हें समस्या न हो वे इस ऐप पर अच्छी किताबों के संक्षिप्त पढ़ सकते हैं और उनका ऑडियो भी सुन सकते हैं. एक छोटी सी टीम के साथ काम करने वाली इस ऐप का इस्तेमाल मैं पिछले 2 सालों से लगातार कर रहा हूं और मुझे इससे बहुत फायदा मिला है. वैश्विक क्वारंटाइन के चलते विशेष ऑफर के तहत 25 अप्रैल तक आप इस पर उपलब्ध किसी भी किताब को पढ़-सुन सकते हैं. जिसके बाद से यह प्रतिदिन एक किताब ही मुफ्त में पढ़ने-सुनने को देगी.

अब किताब के बारे में-

इस किताब में दोनों लेखक तर्क करते हैं कि अर्थशास्त्र कई समस्याओं को लेकर नया दृष्टिकोण पेश कर उन्हें सुलझाने में हमारी मदद सकता है. चाहे वह जलवायु परिवर्तन का हल बिना गरीबों को नुकसान पहुंचाए हो, या बढ़ती हुए असमानता के चलते उभरने वाली सामाजिक समस्याओं से निपटना हो, या वैश्विक व्यापार, और प्रवासियों को लेकर फैलाया गया डर जैसे मुद्दे.

अभिजीत बनर्जी और एस्थर डुफ्लो ने 2019 में अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार डेलपलमेंट इकॉनमिक्स के क्षेत्र में अपने योगदान के लिए पाया. उनकी इससे पहले आई किताब 'पुअर इकॉनमिक्स' (Poor Economics- गरीब अर्थशास्त्र) एक शुरुआती खोज थी कि गरीबी क्या होती है और कैसे सबसे इससे जूझते समुदायों को सबसे प्रभावशाली तरीके से मदद पहुंचाई जाए. ये दोनों ही MIT में प्रोफेसर हैं और बहुत से अकादमिक सम्मान और पुरस्कार पा चुके हैं.

प्रस्तावना: अर्थशास्त्र किस तरह दुनिया पर सकारात्मक प्रभाव डाल सकता है?

दुनिया में इतनी ज्यादा चीजें गलत होती दिखती हैं कि आपको इन चीजों से अपना पल्ला झाड़ लेना ही बेहतर लगता है. हम सुनते रहते हैं कि प्रवासियों की समस्या नियंत्रण से बाहर है, कि सामान पर ऊंचे आयात कर लगाने से अर्थव्यवस्था पर भारी दबाव पड़ेगा, कि अगर हमने पर्यावरण को बचाया तो इसका मतलब लोगों की नौकरियों का बलिदान देना होगा, लेकिन अगर हम ऐसा नहीं करेंगे तो हम खत्म हो जाएंगे.

यह कयामत के दिन की तस्वीरें पेश करने वाला डरावना शोरगुल है. और जो चीज इसे और बुरा बना देती है वह यह है कि हमें अक्सर पता नहीं होता कि हमें किस पर भरोसा करना है. किसी ठोस बहस में शामिल होने के बजाए राजनीतिज्ञ भी एक-दूसरे पर चीखते-चिल्लाते दिखते हैं.

इस शोरगुल के बीच, हम कभी-कभी अर्थशास्त्रियों को टीवी पर भयानक भविष्यवाणियां करते, या किसी न किसी राजनीतिक उम्मीदवार की नीतियों की आलोचना करते देखते हैं. सीधे तौर पर अर्थशास्त्री भेदभाव करते, किसी व्यापार या राजनीतिक विचारधारा से जुड़े नज़र आते हैं. हम सच में नहीं समझ पाते, वे क्या करते हैं, या अपने निष्कर्षों तक किस तरह पहुंचते हैं.

यहां आपके पास अर्थशास्त्र पर फिर से एक बार विश्वास कर पाने का मौका है. नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्रियों के व्यावहारिक दृष्टि के जरिए आप सीखेंगे कि राजनीतिज्ञों द्वारा जिन अर्थशास्त्र के सिद्धांतों की बहुत तारीफ की जाती है, वे कमियों से भरे हुए हैं और जिन सामाजिक समस्याओं को सबसे ज्यादा दुसाध्य माना जाता है, उनके सामान्य अर्थशास्त्रीय हल हो सकते हैं.

इस किताब से आप यह भी सीखेंगे कि-


  • क्यों चीनी स्टील पर टैरिफ लगाने के चलते अमेरिकी किसानों को अपनी नौकरी गंवानी पड़ी
  • कैसे रोबोट अकाउंटिंग की नौकरी तो छीन सकते हैं लेकिन कुत्तों को नहीं घुमा सकते; और
  • कैसे प्रवासियों की बड़ी तादाद स्थानीय लोगों के लिए नौकरी की संभावनाओं में सुधार कर सकती है

पहला अध्याय- MEGA: Make Economics Great Again

अर्थशास्त्री हमें दुनिया की सबसे गंभीर समस्याओं को हल करने में मदद कर सकते हैं लेकिन पहले उन्हें हमारा विश्वास हासिल करना होगा.

एक सर्वेक्षण में लोगों से पूछा गया कि वे अलग-अलग पेशे के लोगों की राय पर कितना भरोसा करते हैं. इसमें नर्सें सबसे आगे रहीं और बिना किसी आश्चर्य के राजनेता सबसे नीचे. आश्चर्य की बात यह है कि अर्थशास्त्रियों को राजनीतिज्ञों से केवल थोड़ा ऊपर रखा गया है. उनकी राय को बहुत अविश्वसनीय माना जाता है.

लेकिन क्यों? शायद इसलिए क्योंकि जिन मुखर अर्थशास्त्रियों को हम न्यूज में देखते हैं, वे सबसे भरोसेमंद नहीं हैं. अक्सर, वे एक कंपनी द्वारा नौकरी पर रखे गए होते हैं और बाजार के हितों की रक्षा के लिए उनके पास एक निश्चित एजेंडा होता है.

इससे इतर, वे एक्सट्रीम विचारों वाले अकादमिक अर्थशास्त्री भी हो सकते हैं. चाहे दक्षिणपंथी हो या वामपंथी, एक विचारधारा की कुल्हाड़ी से विषय को काटने वाले हमेशा सबसे बारीक, भरोसेमंद विश्लेषण नहीं देते. यहां तक कि अक्सर अच्छे अर्थशास्त्री भी तर्कों और सबूतों को इस तरह समझाने के लिए कि अन्य लोग भी समझ सकें, समय नहीं लगाते हैं. इससे भी बुरा तब होता है, जब अकादमिक अर्थशास्त्रियों की राय साधारण समझ से अलग और अतार्किक लगती है क्योंकि उनके विचार राजनेताओं द्वारा बताए गए तरीकों से मेल नहीं खाते हैं.

यह तथ्य कि लोग अर्थशास्त्रियों पर भरोसा नहीं करते, समस्या पैदा करने वाला है. क्यों? क्योंकि वे हमें दुनिया की कुछ सबसे महत्वपूर्ण समस्याओं को हल करने की जानकारी दे सकते हैं. ऐसे में अर्थशास्त्री कैसे हमारा विश्वास जीतना शुरू कर सकते हैं और मुद्दों पर किस तरह ऐसे बात कर सकते हैं, जो कि हमें समझ में आए?

शुरुआत के लिए उन्हें अपनी विचार प्रक्रिया और उसके निष्कर्षों को साझा करने के लिए तैयार रहना होगा. जिस डेटा का वे सबूत के तौर पर इस्तेमाल करते हैं, उन तक हम पहुंच सकें और जान सकें कि वे इन सबूत के बारे में कैसे सोचते हैं, तो हमारी उन पर विश्वास करने की संभावना बढ़ जाती है.
इससे भी ज्यादा जरूरी बात यह है कि, उन्हें यह स्वीकार करने के लिए तैयार रहना होगा कि वे भी चूक सकते हैं. आज की राजनीतिक और आर्थिक बहस सिर्फ एक चिल्लाने का मुकाबला बन चुकी है, जहां दोनों तरफ के लोग अपने-अपने दृष्टिकोण से चिपके रहते हैं. अर्थशास्त्रियों को खुले दिमाग से सबूत देखने के लिए तैयार रहना होगा, और जहां जरूरी हो वहां अपनी राय में बदलाव करने के साथ जहां गलती हो उसे स्वीकार करना होगा.

(नोट: कल इस किताब के अगले दो चैप्टर का हिंदी अनुवाद पेश करने की मेरी कोशिश होगी. आप मेरे लगातार लिखने वाले दिनों को ब्लॉग के होमपेज पर [सिर्फ डेस्कटॉप और टैब वर्जन में ] दाहिनी ओर सबसे ऊपर देख सकते हैं.)

Saturday, April 18, 2020

वो टाइमटेबल जो कभी फेल नहीं होता, ऐसे बनाया जाता है

किसी भी टाइमटेबल में निरंतरता जरूर होनी चाहिए
12वीं के तुरंत बाद की बात है. उस दौर की, जो मेरे जीवन में अब तक सबसे निराशाजनक रहा. मैं 12वीं में साइंस को अपने साथ घसीट रहा था और कविताओं-गीतों-गज़लों आदि में रुचि ले रहा था. लेकिन 12वीं में बहुत कम मार्क्स आने के बाद मैंने तय किया कि अब अपने और साइंस दोने के साथ ही अधिक अन्याय नहीं किया जाएगा. इसके साथ ही मैंने ह्यूमैनिटीज को अपने मुक्ति देने वाले रास्ते के तौर पर पाया. लेकिन असल समस्या यह थी कि मैं कभी बहुत संगठित रहकर पढ़ा ही नहीं था. हमेशा मैंने पढ़ाई किसी न किसी दबाव या डर से की थी. और शायद जब 14-17 की अवस्था में पढ़ाई में स्वत: लग सकता था, तब मेरे पास फिजिक्स, केमेस्ट्री और मैथ्स जैसे सब्जेक्ट थे, जो मेरी रूह कंपा देते थे. मैं यहां स्वीकार करूंगा कि मुझे बहुत ही औसत टीचर भी मिले, जो किसी काम के नहीं थे.

खुद से संवाद कीजिए, अपनी कई कमियों को सुधारने में मिलेगी मदद

बहरहाल, जब 12वीं फेल नहीं हुआ और इतने कम नंबरों से पास हुआ कि बता नहीं सकता था, उसके बाद मैंने खुद से अपने पर काम करने के बारे में फैसला किया. मैंने अपने को यह सबसे पहले साफ किया कि देखो सुधरने का और कई चीजों को जीवन में बदलने का समय आ चुका है. कहीं सुना था कि पिछली शताब्दी में यूरोप के लोग प्रेम का अहसास पाने के लिए खुद को ही प्रेमपत्र लिख देते थे, जिसे यूं लिखा जाता था कि जैसे किसी प्रेमी/प्रेमिका ने उसे लिखा हो. फिर जब वह पत्र उनके पास लौटकर आता तो डाकिए से उसे ऐसे शर्माते हुए रिसीव करते जैसे वाकई उसे किसी प्रेमी/प्रेमिका ने लिखा हो. ऐसा ही कुछ प्रयोग मैंने अपने साथ किया और खुद को एक भ्रम में रखा. मैंने अपना एक आदर्श बनाया, जिससे सभी चीजें सकारात्मक और सही तरह से किया जाना अपेक्षित था और उससे अपने असली अहम का लिखित संवाद कराया. इसके लिए मैंने पत्र पोस्ट नहीं किए बल्कि अपने आदर्श के लिखे पत्र, अपनी वास्तविकता को सीधे तौर पर पढ़ाए.

मुझे लगता आया है कि संगति का खासा असर आपपर होता है. ऐसे में मैंने अपने तमाम दोस्तों की संगति छोड़, खुद को अपने आदर्श की संगति में डाला. और इसका मुझे फायदा भी हुआ. लेकिन इस बीच सबसे कठिन जो रहा, वो था पढ़ने की आदत डालना. जैसा मैंने बताया कि मैंने ग्रेजुएशन में साइंस को त्यागते हुए ह्यूमैनिटीज के विषय पढ़े. लेकिन यह जितना सोचा गया, उतना आसान नहीं रहा. पॉलिटिकल साइंस का मुझे P भी नहीं समझ आता था. फिर भी पूरे मनोयोग से इसके समझ आने के लिए रणनीतियां बनाता रहा. अभी तो ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन के स्तर पर कोचिंग भी दे सकता हूं. लेकिन सब्जेक्ट में घुसपैठ के लिए मैंने हर लाइन को लिख-लिख कर पढ़ना शुरू किया.

सारे ही प्रयासों में निरतरंता स्थापित करना पाना बहुत जरूरी बात

लेकिन सारे प्रयासों के बावजूद, एक चीज के बिना सारा पढ़ा-लिखा बर्बाद हो रहा था. और वह एक चीज थी, निरंतरता. मैं यह स्वीकार करना चाहूंगा कि यही मेरी अब तक कि सबसे बड़ी उपलब्धि रहा है. और यह निरंतरता पैदा हुई 'डेली डे डिजाइनर' नाम के एक टूल से. जिसे मैं शॉर्ट में 'डी3' कहा करता था. इसमें कुछ खास नहीं होता था. मैं लिखित में अपने अगले दिन की प्राथमिकताओं को सोने से पहले लिख लेता था. साथ ही उस दिन के बारे में एक टिप्पणी भी दर्ज करता चलता था ताकि खुद को स्पष्ट रहे कि मेरे प्रयास काम आ रहे हैं या नहीं.
उतार चढ़ाव दिनों के हिसाब से आते रहेंगे लेकिन आप इनका हिसाब रखने की कोशिश करें तो अच्छा
निरंतरता सिर्फ कई दिनों तक कुछ करते जाना नहीं है. बल्कि एक खास लक्ष्य के साथ और अपने प्रयासों का मूल्यांकन करते हुए कई दिनों तक एक ही विषय पर काम करना है. ऐसे में अब मेरा सालों-साल एक ही विषय पर जुटे रहना मुझे जल्दी सीखने में मदद करता है. इसके अलावा सबसे बड़ी बात की वह मुझे बहुत ज्यादा सुकून देता है. इसलिए मैं यहां पर कुछ बिंदुओं में इसके पीछे अपने कदमों का खुलासा कर रहा हूं-

1. आपको सबसे पहले अपनी प्राथमिकता के कामों की लिस्ट बनानी है. और बाकी कुछ भी करने से पहले उन्हें कर लेना है. जरूरी है कि यह लिस्ट बेहद सोच-समझकर बनाई जाए. ये लिस्ट क्या किया जाए वाले कामों की होने के बजाए, क्या किया जाना है की होनी चाहिए. वरना ये तय है कि आप वे काम नहीं कर पाएंगे.

2. तय करें कि आपके मिजाज के हिसाब से किसी दिन के कामों में सबसे कठिन क्या है? करते समय क्या सबसे ज्यादा समय लेने वाला है. इसके जवाब में जो काम सामने आए, आप सबसे पहले उसे करें. जैसे फिलहाल लिखना मेरे लिए सबसे ज्यादा मुश्किल हो रहा था तो मैं सबसे पहले लिख रहा हूं और उसके बाद ही कोई काम करता हूं.

3. किसी खास दिन में करने को सीमित काम ही अपने पास रखें. बहुत ज्यादा काम किसी दिन के लिए तय कर लेने से आपको रोजमर्रा के काम करने में बहुत परेशानी होगी और कामों के हो जाने से मिलने वाली संतुष्टि के बजाए आपको असंतुष्टि ही होगी.

4. कोशिश करें कि अपनी सफलता और असफलता दर्ज करें. इससे आपको न सिर्फ अगले दिन और अच्छा करने का प्रोत्साहन मिलेगा बल्कि कुछ मुश्किल कर लेने पर खुशी भी होगी. मैं तो अपने आपको डेली 10 में से कुछ प्वाइंट्स दिया करता था.

5. उठने और सोने के समय को नियत रखिए, यह अगर गड़बड़ होता है तो पूरे दिन का ढांचा और प्लानिंग गड़बड़ा जाती है और आपको उसमें बदलाव करने पड़ते हैं.

6. दोस्तों और साथियों के साथ आगे की प्लानिंग को भी ज्यादातर तय रखने की कोशिश करें. या एक समय नियत कर लें और उन्हें भी इसके बारे में बता दें. अपनी इस प्रायोगिक जीवनशैली के बारे में सभी को जानने दें, छिपाएं नहीं. आपका विश्वास इससे खुद पर बढ़ेगा.

(नोट: आप मेरे लगातार लिखने वाले दिनों को ब्लॉग के होमपेज पर [सिर्फ डेस्कटॉप और टैब वर्जन में ] दाहिनी ओर सबसे ऊपर देख सकते हैं.)

Friday, April 17, 2020

क्या हमउम्र लोग बिना किसी लालच, एक ही मकसद के लिए कर सकते हैं काम? हां, कठफोड़वा ने किया

उबंटू दक्षिणी अफ्रीकी देशों में प्रचलित एक विचार है
आपने यूं हंसी-मजाक के लिए, किसी ट्रिप पर जाने के लिए, पार्टी के लिए, ट्रेक पर जाने के लिए तो एक ही उम्र के लोगों को साथ आते देखा होगा लेकिन इस देश में विरले ही होता है कि बिना संस्थागत प्रयास के ऐसा संभव हो कि एक ही उम्र के लोग साथ आकर लिखने-पढ़ने के लिए कोई काम करें, वह भी तब जब वे दोस्त न हों (बाद में भले ही दोस्त बन जाएँ). मैंने अपने से अधिक उम्र वालों से अक्सर ऐसी बातें सुनी हैं कि मेरे जो दोस्त थे, वे मेरे साथ अब संपर्क में नहीं हैं. इसके साथ ही वे ऐसा होने के पीछे तल्ख वजहें भी बताते हैं. यह नॉर्मल भी लगता है. लेकिन अगर वे यह कहते हैं कि जो कभी उनके बहुत करीबी थे और आज उनके विरोधी हैं तो थोड़ा अजीब भी लगता है. ऐसे में दोनों ही ओर से कहीं न कहीं चूक हुई है. आज इन्हीं चूक पर बात करेंगे.

करीब तीन साल के मुक्त विचारों के लिए काम कर रहा समूह

इससे जुड़ी बातें मेरे पर्सनल एक्सपीरियंस पर आधारित हैं. मैंने 2017 के आखिरी 6 महीनों में एक ग्रुप बनाया. मैंने लगातार उन लोगों से बात की जो अच्छा लिख सकते थे और जिनमें मुझे नयापन लगता था और उनसे इस ग्रुप में शामिल होने को कहा. लेकिन इसमें खास बात यह थी कि व्यक्तिगत स्तर पर मैं उनमें से सिर्फ 1 को अच्छे से जानता था और हम दोनों की करीब-करीब रोज़ की बातचीत वाली दोस्ती थी. बाकी 3 के साथ मेरी चलते-फिरते की जान-पहचान थी. हम सभी पांच का एक ही मकसद था एक वेबसाइट चलाना, जिसका नाम कठफोड़वा है. शुरुआती दिनों में मैंने और उन सभी ने उसपर बहुत मेहनत की. हालांकि वेबसाइट चली नहीं लेकिन यह ग्रुप चला. इस कोर ग्रुप का एक आउटर ग्रुप भी था, जिसमें दसियों लोग शामिल थे, खास बात यह है कि वह आउटर ग्रुप भी काफी हद तक बाकी है. लेकिन असली सफलता कोर ग्रुप की गतिविधियां रही हैं. हम पांचों शुरुआती दौर से अब बहुत आगे निकल चुके हैं. हमारे बीच में जबरदस्त असहमतियां हैं लेकिन कभी लड़ाई नहीं हुई. हममें से अधिकतर लगातार जबरदस्त तरीके से पढ़ने और लिखने में लगे हुए हैं और बाकी लगातार उनके विचारों की, उनके पढ़े हुए के आयाम निकालने की कोशिश करते रहते हैं और सामूहिक तौर पर यह पूरी तरह से सफल प्रयोग है.

दक्षिणी अफ्रीकी देशों में बहुचर्चित है उबंटू का विचार

इसकी वजहें क्या हैं? इसकी वजह है 'उबंटू'. वैसे उबंटू का साधारण अर्थ बताया जाता है, 'मैं हूं क्योंकि हम हैं' लेकिन इसका वास्तविक मतलब इससे कहीं ज्यादा वृहद और कॉम्पलेक्स है. दक्षिणी अफ्रीकी देशों में इस विचारधारा का खासा चलन है. और यह 1980-90 के दौर में काफी चर्चित हुई. नेल्सन मंडेला के 1994 में दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति बनने के बाद इसे अफ्रीकी देशों के बाहर भी जाना गया. जिम्बाब्वे में पहले से राजनीतिक रूप से स्वीकार्य इस विचार को दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद-नस्लभेद विरोधी आंदोलन में राजनीतिक मान्यता मिली. जिसके बाद बने अंतरिम संविधान (1993) में इसे यूं शामिल किया गया, "एक-दूसरे को समझने की जरूरत है-प्रतिशोध की नहीं, प्रतिपूर्ति की जरूरत है-बदले की नहीं, उबंटू की जरूरत है-जुल्म की नहीं."

उबंटू का पालन करते हुए प्रतिस्पर्धा कहीं खो जाती है

तो हम सबने ही उबंटू का पालन किया है. हालांकि पालन हमने पहले कर लिया और इसके बारे में विस्तार से बाद में जाना. या यूं कह लें कि जिन तरीकों को हम प्रैक्टिस में ला रहे थे उन्हें बाद में हमने उबंटू के तौर पर पहचाना. पहले सिर्फ इसका नाम भर सुना था और इसकी अफ्रीकी जड़ों के बारे में जानते थे. हमने एक-दूसरे की स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार किया. हमने एक-दूसरे के अलग व्यक्तित्व और हुनर को सम्मान दिया. इस दौरान हमारे पक्ष में एक बात यह हुई कि लगभग हम सभी अलग-अलग रोजगार के क्षेत्र में हैं, इसलिए प्रतिस्पर्धा की कोई भावना ही नहीं है. वैसे असलियत तो यह है कि जब आपने सामने वाले की खासियतों को स्वीकार कर लेते हैं तो आप उसकी यूनिकनेस को भी समझते हैं. ऐसे में प्रतिस्पर्धा की कोई बात ही नहीं रह जाती. बल्कि आप चाहते हैं कि आपके बीच में ज्ञान का आदान-प्रदान होता रहे ताकि आप अपने-आप में ही कूप-मंडूक बनकर न रह जाएं बल्कि दूसरे स्वतंत्र तौर पर किसी विषय पर कैसा सोच रहे हैं, उससे भी लाभ ले सकें. हम रोज़ ही किसी न किसी विषय पर लड़ रहे होते हैं लेकिन इस लड़ाई के दौरान हम बहुत कुछ सीख भी रहे होते हैं. और कभी उबंटू के विचार से बाहर जाकर स्वतंत्र होने के बारे में नहीं सोचते.

आज भी बहुत आसानी से चलता है हमारा काम

जिस तरह वैचारिकता के स्तर पर कठफोड़वा सफल रहा है आशा है कि आप भी ऐसे छोटे-बड़े वैचारिक समूहों का निर्माण इस विचार के आधार पर कर सकेंगे. यूं तो कठफोड़वा की वेबसाइट नहीं चल सकी. लेकिन जिन दिनों में यह लगातार काम कर रही थी, इसके पांच एडिटर थे और फिर भी यह बिना किसी गतिरोध के चल रही थी. साथ ही इसे बनाने वाला मस्तिष्क समूह आज भी पूरी क्षमता के साथ काम कर रहा है. यह हमउम्रों के साथ काम करने के लिए आजमाने पर खरा पाया गया फॉर्मूला है. मुझे जानने वाले कई लोगों को आश्चर्य होता है कि चाहे वेबासाइट के लिए सभी से मांगा गया एक निश्चित रकम का सहयोग हो (वेबसाइट जिसके चलते आज भी फंक्शनिंग है) या किसी लेख पर सभी से मांगे गए विचार, हमेशा समय से सहयोग आ जाता है. साथ ही यहां किसी हायआर्की के अभाव में लोगों को अपने विचारों को पूरे एक्सपोजर के साथ पेश करने का मौका भी मिलता है. आशा है हमें भविष्य में इसके और प्रयोग देखने को मिलेंगे.

(नोट: आप मेरे लगातार लिखने वाले दिनों को ब्लॉग के होमपेज पर [सिर्फ डेस्कटॉप और टैब वर्जन में ] दाहिनी ओर सबसे ऊपर देख सकते हैं.)

Thursday, April 16, 2020

Friends के चैंडलर बिंग-मोनिका गेलर का प्यार और आपके रिलेशन में कोई तीसरा?

एक्सट्राऑर्डिनरी की तलाश में रहने वाले ऑर्डिनरी मोनिका गेलर-चैंडलर बिंग का प्यार काफी कुछ सिखाता है
दुनिया की तमाम रोचक प्रेम कहानियों में से एक मुझे लगी चैंडलर बिंग और मोनिका गेलर की. शायद कम ही लोग हों जिन्हें मशहूर अमेरिकन टीवी सीरीज फ्रेंड्स (Friends) के बारे में न पता हो. हो सकता है आपमें से कुछ ने इसे देखा न हो लेकिन दुनिया में सबसे ज्यादा देखी गई अंग्रेजी भाषा की टीवी सीरीज में यह शुमार होती आई है. यह ऐसे छह दोस्तों की कहानी है जो 25-30 साल की उम्र के है. नौकरीपेशा हैं और दो अपार्टमेंट शेयर करते हैं (हालांकि एक दोस्त अलग रहता है, जिसकी शादी और तलाक दोनों ही हो चुके हैं).

बहरहाल इसके दो किरदारों के बीच पहले आकर्षण पनपता है फिर प्यार. इनके नाम हैं चैंडलर बिंग और मोनिका गेलर. चैंडलर एमेच्योर लेकिन अच्छे ह्यूमर वाला और जानकार है. मोनिका बेहद सफाई पसंद और समझदार बनने की कोशिश में उलझ जाने वाली है, कई मायनों में उसे बहुत सी चीजों से ऑब्सेस्ड कहा जा सकता है. सीरीज में कई सीजन बाद दोनों को प्यार हो जाता है. यह प्यार बिल्कुल प्यार जैसा है, कन्फ्यूजिंग और एक्साइटिंग. न कि स्क्रीन पर अक्सर दिखाया जाने वाला पहली नजर का प्यार टाईप.

प्यार के बहुत शुरुआती दौर में चैंडलर और मोनिका दोनों ही किसी तरह के प्यार को स्वीकारने से बचते हैं और इसे मात्र आकर्षण मानकर खत्म करना चाहते हैं. लेकिन कई बार फिजिकल होने के बाद, वे लगभग प्यार में होते हैं, जिसकी पहली स्वीकारोक्ति चैंडलर की ओर से आती है कि उसे सेक्स का ऐसा अनुभव सिर्फ मोनिका के साथ रहा और सिर्फ उसकी वजह से (अपनी एमेच्योरिश गढ़न के चलते वह इस बात को पूरी तरह नहीं कह पाता लेकिन उसका इशारा केयर और प्यार की ओर ही है). वह यह दावा भी करता है कि मोनिका इसकी ताकीद उसकी अन्य पार्ट्नर्स से कर सकती है. फिर धीरे-धीरे दोनों ओर से प्यार का भाव दिखने लगता है.

चैंडलर और मोनिका का एक दृश्य
इन किरदारों को लेकर लिखे एक सीन तक मेरी बात सीमित है. एक सीन में मोनिका की दोस्त रेचल उसे एक मेल नर्स के साथ डेट पर चलने को कहती है क्योंकि वह उसके साथी मेल नर्स के साथ खुद डेट पर जाने वाली है. इसी बीच चैंडलर की किसी बात से खफा मोनिका, उसे जलाने के लिए डेट की बात पर हामी भर देती है. हालांकि इसके बाद जब चैंडलर उससे माफी मांगता है और उसे अपने एमेच्योर होने के चलते बात को गलत तरीके से पेश कर देने का हवाला देता है तो मोनिका झट से उसके प्रति वफादार रहने की हामी भर देती है. दरअसल वह इस माफीनामे का ही इंतजार कर रही होती है.

हमेशा आपके रिश्ते में एक तीसरा बना रहता है, उसे इग्नोर किया तो रिलेशन गया

इस सीन में काफी कुछ ऐसा है, जो किसी रिलेशन में रह रहे लोग सीख सकते हैं. हमेशा एक्सट्राऑर्डिनरी की तलाश में रहने वाले चैंडलर और मोनिका दोनों को ही 'आर्डिनरी एक-दूसरे' में वह भाव-वह प्यार मिलता है. लेकिन इससे भी जरूरी एक सीख है. कि चाहे चैंडलर-मोनिका हों, आप हों या कोई अन्य. हमेशा आपके रिश्ते में एक तीसरा बना रहता है. आपका पार्टनर जो हमेशा आपके साथ है, वो जितना इस तीसरे के बारे में जानता है, उतना अच्छा है. जरूरी नहीं कि यह तीसरा कोई इंसान ही हो. हो सकता है यह तीसरा आपका करियर हो, यह तीसरा आपका कोई पैशन हो या इंसान भी हो सकता है, जिसके प्रति आपका खिंचाव हो.

इसलिए कभी इस तीसरे के बारे में अपने पार्टनर से बात करने से न बचें. जितना ज्यादा आपको अपने पार्टनर के इस तीसरे के बारे में पता होगा, उतने ज्यादा आप अपने रिश्ते में सुरक्षित होंगे और ईमानदार रह सकेंगे. जितना कम आप उसके बारे में जानेंगे, तीसरे के मजबूत होने के चांसेस उतने ज्यादा बढ़ जाएंगे. इसलिए हमेशा उस तीसरे को जानने की कोशिश करें ताकि आपका पार्टनर तीसरे पर आपको चुने, इसलिए नहीं कि इसका उसपर दबाव हो बल्कि इसलिए कि आप उस तीसरे से अच्छे हों.
क्या आपने अपने पार्टनर को बताया है कि आपने उसके साथ रहना ही क्यों चुना?
मसलन उस पल के बारे में सोचिए जब खुद आपका पार्टनर आपको इस बात की सूचना दे कि उसे देखा है, उसके साथ मेरी हल्की-फुल्की बात हुई, जिसके बाद उसने मुझे डिनर पर बुलाया लेकिन मैंने उसके डिनर के ऑफर को टाला क्योंकि आज मैं तुम्हारे साथ खाना खाना चाहता था. ऐसी छोटी-छोटी चीजें ही पार्टनर पर कॉन्फिडेंस बिल्डिंग की एक्सरसाइज के तौर पर काम करती हैं ताकि वह भी ईमानदारी से अपने तीसरे की बातें आपसे शेयर करने से झिझके नहीं. आखिरकार प्यार तब क्या ही प्यार रह जाएगा, जब आपने किसी को जबरदस्ती इमोशनल बंधक बनाकर रखा हो और वैसे भी कोई कितने दिन ऐसा कर सकता है!

(नोट: आप मेरे लगातार लिखने वाले दिनों को ब्लॉग के होमपेज पर [सिर्फ डेस्कटॉप और टैब वर्जन में ] दाहिनी ओर सबसे ऊपर देख सकते हैं.)