गांव से बड़े सभी समुदाय किसी न किसी तरह से काल्पनिक हैं (फोटो क्रेडिट- Verso Books) |
फिर, अठारहवीं सदी के अंत में, एक नया विचार उभरा- राष्ट्रवाद. इससे यह स्थापित हुआ कि बुल्गारिया के लोगों, चेक लोगों और सर्बिया के लोगों को उस एक ही इलाके में नहीं रहना चाहिए, जिस पर ऑस्ट्रो-हंगेरियन राज परिवार का शासन हो बल्कि उनके पास अपने अलग-अलग राज्य होने चाहिए.
यह एक नए तरह का 'काल्पनिक समुदाय' था. एक गांव से बड़े सभी समुदाय किसी न किसी तरह से काल्पनिक हैं क्योंकि असली जीवन में उसके लोग अपने साथी निवासियों में से मुट्ठी भर से ज्यादा को नहीं जान पाते. साम्राज्यों की सदस्यता अक्सर धार्मिक या राजवंशीय हुआ करती थी. जबकि राज्य, इससे अलग हैं. समान समुदाय से होने का मतलब है, समान राष्ट्रीयता से संबंध रखना, फिर पहले उसे भी परिभाषित करना होता है.
तो स्पेन वाले कैसे स्पेनिश बने और अल्जीरिया वाले अल्जीरियन? आगे हम आपको बतायेंगे कि कैसे राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद का जन्म हुआ. इस किताब से आप सीखेंगे-
1. क्यों राष्ट्रवाद, राजनीतिक विचारधारा के बजाए धार्मिक तरह का विचार ज्यादा लगता है?
2. कैसे किताबों का कारोबार करने वाले राष्ट्रवाद के योगदान के जरिए नए बाजारों की तलाश करते हैं?
3. क्यों भाषाओं की शिक्षा साम्राज्यों के शासकों के लिए एक सिरदर्द बनकर रह गई?
राष्ट्रवाद धर्म नहीं लेकिन आधुनिक राजनीतिक विचारधारा होने के बजाए धार्मिक विश्वास के तरीकों के ज्यादा करीब
जब हम दुनिया में आते हैं तो सारी चीजें हमारी चुनाव की शक्तियों से परे होती है. हमारी आनुवांशिक विरासत, हमारे माता-पिता, हमारी शारीरिक शक्तियां सभी संयोग पर आधारित होती हैं. जीवन में एक मात्र निश्चित बात मृत्यु होती है. इन दो तथ्यों- हमारे अस्तित्व की आकस्मिकता और मृत्यु की अवश्यंभाविता पर इंसानों द्वारा हमेशा से बहुत जोर दिया गया है. ज्यादातर पारंपरिक आस्था वाले तंत्रों में इन्हें समझने के प्रयास केंद्र में होते हैं. इसके विपरीत विचारों की आधुनिक शैली उन सवालों के जवाब में खामोश रह जाती है, जिनका निपटारा विज्ञान के जरिए नहीं हो सकता है, जिसके चलते न ही उदारवादी और न ही मार्क्सवादियों के पास अमरता के बारे में बहुत कुछ कहने को है. जबकि राष्ट्रवादियों के पास है.
और यही इस पाठ का प्रमुख संदेश भी है- राष्ट्रवाद धर्म नहीं है, लेकिन यह आधुनिक राजनीतिक विचारधारा के बजाए धार्मिक विश्वास के तरीकों के ज्यादा करीब है.
इस तरह से हम सैनिकों की याद में बनाए गए स्मारकों को, राष्ट्रवाद के सबसे रोचक प्रतीकों में से एक मान लेते हैं. ये स्मारक अज्ञात सैनिकों को समर्पित होते हैं, और यह यही अज्ञातता होती है जो कि इन भूतिया गुंबदों को उनका अर्थ देती है. क्योंकि वे 'अज्ञात सैनिकों' का स्मरण करते हैं जिनकी कोई व्यक्तिगत पहचान नहीं है, लेकिन वे किसी बड़ी चीज के प्रतीक बन गए हैं. वे सबसे बड़े बलिदान को प्रदर्शित करते हैं- किसी के उसके देश के लिए मर जाने को. स्मारक यह सुझाते समझ आते हैं कि जिन्होंने किसी बड़ी चीज के लिए अपनी जिंदगी दी, वे खुद हमेशा के लिए जिंदा रहेंगे.
ऐसे में, राष्ट्रवाद धार्मिक दुनिया के विश्वासों जैसा नजर आता है. आस्थाएं जैसे बौद्ध, ईसाईयत, और इस्लाम, उदाहरण के लिए हजारों सालों तक दर्जनों अलग-अलग समाजों में इसलिए जिंदा रह सके क्योंकि वे इंसान के सहज बोध में घुस गए. ये आस्थाएं यह विश्वास लेकर आती हैं कि जीवन में जो बेतरतीब नुकसान हो रहे हैं और जिस तरह जिंदगी का प्रवाह चल रहा है, उसमें जरूर कोई गहरा मतलब छिपा होगा. चाहे वे इसे कर्म कहें या मौत के बाद की दुनिया, धर्म मरे हुओं, जीवितों और अभी पैदा होने वालों को मौत और फिर से जन्मने के एक अनन्त चक्र में जोड़कर इस अर्थ को पाते हैं.
राष्ट्रवाद और धार्मिक विचारों के बीच इस समानता को देखते हुए, यह आश्चर्यजनक नहीं है कि पहले वाला तुरंत उभरा जब बाद वाला कमजोर पड़ रहा था. हजारों सालों तक बिना प्रमाण के सही माने जाते रहने के बाद, अठारहवीं शताब्दी के यूरोप में धर्म अपनी स्वत: स्पष्ट रहने वाली स्थिति खो रहा था. यह प्रबोधन का युग था, एक ऐसा बौद्धिक आंदोलन जिसमें लोग धार्मिक परंपराओं के बजाए मानवीय तर्क पर जोर दे रहे थे. निश्चित रूप से धर्म का पतन नहीं हुआ, फिर भी इससे उस यातना का खात्मा हो गया, जो धर्म का अंग हुआ करती थी.
वास्तव में, इस पतन ने वर्तमान जीवन के दिल में एक खाली जगह छोड़ दी. बिना स्वर्ग के, अस्तित्व असहनीय रूप से मनमाना महूसस होने लगा. मोक्ष की संभावनाओं के बिना और उसके बाद की जिंदगी के ख्यालों के बिना, राष्ट्रों के काल्पनिक समुदाय और भी ज्यादा आकर्षक लगे. लेकिन इससे पहले कि हम राष्ट्रवाद का ही परीक्षण करें, उस सांस्कृतिक तंत्र पर एक नज़र डालते हैं, जो इसे लेकर आया.
राष्ट्रवाद को उसके पूर्ववर्ती सांस्कृतिक तंत्र के साथ जोड़कर, उनकी ही पंक्ति में खड़े विचार की तरह देखा जाना चाहिए, न कि सोच-समझकर स्वीकारी गई राजनीतिक विचारधाराओं की तरह.
किताब के बारे में-
काल्पनिक समुदाय की अवधारणा को बेनेडिक्ट एंडरसन ने 1983 मे आई अपनी किताब 'काल्पनिक समुदाय' (Imagined Communities) में राष्ट्रवाद का विश्लेषण करने के लिए विकसित किया था. एंडरसन ने राष्ट्र को सामाजिक रूप से बने एक समुदाय के तौर पर दिखाया है, जिसकी कल्पना लोग उस समुदाय का हिस्सा होकर करते हैं. एंडरसन कहते हैं गांव से बड़ी कोई भी संरचना अपने आप में एक काल्पनिक समुदाय ही है क्योंकि ज्यादातर लोग, उस बड़े समुदाय में रहने वाले ज्यादातर लोगों को नहीं जानते फिर भी उनमें एकजुटता और समभाव होता है.अनुवाद के बारे में-
बेनेडिक्ट एंडरसन के विचारों में मेरी रुचि ग्रेजुएशन के दिनों से थी. बाद के दिनों में इस किताब को और उनके अन्य विचारों को पढ़ते हुए यह और गहरी हुई. इस किताब को अनुवाद करने के पीछे मकसद यह है कि हिंदी माध्यम के समाज विज्ञान के छात्र और अन्य रुचि रखने वाले इसके जरिए एंडरसन के कुछ प्रमुख विचारों को जानें और इससे लाभ ले सकें. इसलिए आप उनके साथ इसे शेयर कर सकते हैं, जिन्हें इसकी जरूरत है.
वाह
ReplyDeleteशुक्रिया दोस्त
Deleteकाफ़ी informative, सुधि लेखक से आग्रह है कि दुनिया के महत्वपूर्ण philosophical writers की किताबों का भी संक्षिप्त अनुवाद करें और दर्शन के बारे में बताएं.
ReplyDeleteआपका बहुत-बहुत शुक्रिया
Deleteमैं रोज लिखता हूं, मेरी पूरी कोशिश होगी कि अपनी क्षमता के हिसाब से ऐसा कर सकूं