Friday, April 17, 2020

क्या हमउम्र लोग बिना किसी लालच, एक ही मकसद के लिए कर सकते हैं काम? हां, कठफोड़वा ने किया

उबंटू दक्षिणी अफ्रीकी देशों में प्रचलित एक विचार है
आपने यूं हंसी-मजाक के लिए, किसी ट्रिप पर जाने के लिए, पार्टी के लिए, ट्रेक पर जाने के लिए तो एक ही उम्र के लोगों को साथ आते देखा होगा लेकिन इस देश में विरले ही होता है कि बिना संस्थागत प्रयास के ऐसा संभव हो कि एक ही उम्र के लोग साथ आकर लिखने-पढ़ने के लिए कोई काम करें, वह भी तब जब वे दोस्त न हों (बाद में भले ही दोस्त बन जाएँ). मैंने अपने से अधिक उम्र वालों से अक्सर ऐसी बातें सुनी हैं कि मेरे जो दोस्त थे, वे मेरे साथ अब संपर्क में नहीं हैं. इसके साथ ही वे ऐसा होने के पीछे तल्ख वजहें भी बताते हैं. यह नॉर्मल भी लगता है. लेकिन अगर वे यह कहते हैं कि जो कभी उनके बहुत करीबी थे और आज उनके विरोधी हैं तो थोड़ा अजीब भी लगता है. ऐसे में दोनों ही ओर से कहीं न कहीं चूक हुई है. आज इन्हीं चूक पर बात करेंगे.

करीब तीन साल के मुक्त विचारों के लिए काम कर रहा समूह

इससे जुड़ी बातें मेरे पर्सनल एक्सपीरियंस पर आधारित हैं. मैंने 2017 के आखिरी 6 महीनों में एक ग्रुप बनाया. मैंने लगातार उन लोगों से बात की जो अच्छा लिख सकते थे और जिनमें मुझे नयापन लगता था और उनसे इस ग्रुप में शामिल होने को कहा. लेकिन इसमें खास बात यह थी कि व्यक्तिगत स्तर पर मैं उनमें से सिर्फ 1 को अच्छे से जानता था और हम दोनों की करीब-करीब रोज़ की बातचीत वाली दोस्ती थी. बाकी 3 के साथ मेरी चलते-फिरते की जान-पहचान थी. हम सभी पांच का एक ही मकसद था एक वेबसाइट चलाना, जिसका नाम कठफोड़वा है. शुरुआती दिनों में मैंने और उन सभी ने उसपर बहुत मेहनत की. हालांकि वेबसाइट चली नहीं लेकिन यह ग्रुप चला. इस कोर ग्रुप का एक आउटर ग्रुप भी था, जिसमें दसियों लोग शामिल थे, खास बात यह है कि वह आउटर ग्रुप भी काफी हद तक बाकी है. लेकिन असली सफलता कोर ग्रुप की गतिविधियां रही हैं. हम पांचों शुरुआती दौर से अब बहुत आगे निकल चुके हैं. हमारे बीच में जबरदस्त असहमतियां हैं लेकिन कभी लड़ाई नहीं हुई. हममें से अधिकतर लगातार जबरदस्त तरीके से पढ़ने और लिखने में लगे हुए हैं और बाकी लगातार उनके विचारों की, उनके पढ़े हुए के आयाम निकालने की कोशिश करते रहते हैं और सामूहिक तौर पर यह पूरी तरह से सफल प्रयोग है.

दक्षिणी अफ्रीकी देशों में बहुचर्चित है उबंटू का विचार

इसकी वजहें क्या हैं? इसकी वजह है 'उबंटू'. वैसे उबंटू का साधारण अर्थ बताया जाता है, 'मैं हूं क्योंकि हम हैं' लेकिन इसका वास्तविक मतलब इससे कहीं ज्यादा वृहद और कॉम्पलेक्स है. दक्षिणी अफ्रीकी देशों में इस विचारधारा का खासा चलन है. और यह 1980-90 के दौर में काफी चर्चित हुई. नेल्सन मंडेला के 1994 में दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति बनने के बाद इसे अफ्रीकी देशों के बाहर भी जाना गया. जिम्बाब्वे में पहले से राजनीतिक रूप से स्वीकार्य इस विचार को दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद-नस्लभेद विरोधी आंदोलन में राजनीतिक मान्यता मिली. जिसके बाद बने अंतरिम संविधान (1993) में इसे यूं शामिल किया गया, "एक-दूसरे को समझने की जरूरत है-प्रतिशोध की नहीं, प्रतिपूर्ति की जरूरत है-बदले की नहीं, उबंटू की जरूरत है-जुल्म की नहीं."

उबंटू का पालन करते हुए प्रतिस्पर्धा कहीं खो जाती है

तो हम सबने ही उबंटू का पालन किया है. हालांकि पालन हमने पहले कर लिया और इसके बारे में विस्तार से बाद में जाना. या यूं कह लें कि जिन तरीकों को हम प्रैक्टिस में ला रहे थे उन्हें बाद में हमने उबंटू के तौर पर पहचाना. पहले सिर्फ इसका नाम भर सुना था और इसकी अफ्रीकी जड़ों के बारे में जानते थे. हमने एक-दूसरे की स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार किया. हमने एक-दूसरे के अलग व्यक्तित्व और हुनर को सम्मान दिया. इस दौरान हमारे पक्ष में एक बात यह हुई कि लगभग हम सभी अलग-अलग रोजगार के क्षेत्र में हैं, इसलिए प्रतिस्पर्धा की कोई भावना ही नहीं है. वैसे असलियत तो यह है कि जब आपने सामने वाले की खासियतों को स्वीकार कर लेते हैं तो आप उसकी यूनिकनेस को भी समझते हैं. ऐसे में प्रतिस्पर्धा की कोई बात ही नहीं रह जाती. बल्कि आप चाहते हैं कि आपके बीच में ज्ञान का आदान-प्रदान होता रहे ताकि आप अपने-आप में ही कूप-मंडूक बनकर न रह जाएं बल्कि दूसरे स्वतंत्र तौर पर किसी विषय पर कैसा सोच रहे हैं, उससे भी लाभ ले सकें. हम रोज़ ही किसी न किसी विषय पर लड़ रहे होते हैं लेकिन इस लड़ाई के दौरान हम बहुत कुछ सीख भी रहे होते हैं. और कभी उबंटू के विचार से बाहर जाकर स्वतंत्र होने के बारे में नहीं सोचते.

आज भी बहुत आसानी से चलता है हमारा काम

जिस तरह वैचारिकता के स्तर पर कठफोड़वा सफल रहा है आशा है कि आप भी ऐसे छोटे-बड़े वैचारिक समूहों का निर्माण इस विचार के आधार पर कर सकेंगे. यूं तो कठफोड़वा की वेबसाइट नहीं चल सकी. लेकिन जिन दिनों में यह लगातार काम कर रही थी, इसके पांच एडिटर थे और फिर भी यह बिना किसी गतिरोध के चल रही थी. साथ ही इसे बनाने वाला मस्तिष्क समूह आज भी पूरी क्षमता के साथ काम कर रहा है. यह हमउम्रों के साथ काम करने के लिए आजमाने पर खरा पाया गया फॉर्मूला है. मुझे जानने वाले कई लोगों को आश्चर्य होता है कि चाहे वेबासाइट के लिए सभी से मांगा गया एक निश्चित रकम का सहयोग हो (वेबसाइट जिसके चलते आज भी फंक्शनिंग है) या किसी लेख पर सभी से मांगे गए विचार, हमेशा समय से सहयोग आ जाता है. साथ ही यहां किसी हायआर्की के अभाव में लोगों को अपने विचारों को पूरे एक्सपोजर के साथ पेश करने का मौका भी मिलता है. आशा है हमें भविष्य में इसके और प्रयोग देखने को मिलेंगे.

(नोट: आप मेरे लगातार लिखने वाले दिनों को ब्लॉग के होमपेज पर [सिर्फ डेस्कटॉप और टैब वर्जन में ] दाहिनी ओर सबसे ऊपर देख सकते हैं.)

2 comments:

  1. वाह..
    एकदम सच है और मुझे गर्व है उस टीम का हिस्सा होने पर.. इसमें निश्चित तौर पर पांचों लोगों का सहयोग रहा लेकिन उन पांचों को एक डोर मव पिरोए रखने का काम अविनाश भाई आपने किया।

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    1. शुक्रिया विनय भाई, आगे मौका मिला तो हम कुछ कर दिखाएंगे

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