Saturday, April 11, 2020

इन वजहों के चलते पैरासाइट को ऑस्कर मिलना भारतीयों के लिए भी रहा खास

बॉन्ग जून हो की फिल्मपैरासाइट का एक दृश्य
यह लेख मेरे मित्र अजय कुमार की प्रेरणा से लिखा गया है. जिन्हें हाल ही में आई बॉन्ग जून हो की फिल्म पैरासाइट पसंद नहीं आई. मैंने ऑस्कर मिलते-मिलते पैरासाइट देख ली थी. हालांकि उसके बहुत बाद यह अमेजन प्राइम पर उपलब्ध हुई और भारत में बड़ी संख्या में लोगों तक पहुंची. अपनी दक्षिण एशियाई पहचान और महानगरीय जीवन के प्रति सचेत होने के चलते मुझे पैरासाइट अपने बेहद करीब की फिल्म लगी. इसलिए मैं इसके पक्ष में कुछ तर्क रख रहा हूं.

ऑस्कर की बात करें तो इसे ऑस्कर दिया जाना मुझे इसलिए भाया कि इसने अंग्रेजी का दबाव ऑस्कर दिए जाने के लिए हटाया और यह विश्वास भी दिलाया कि हम एशियाई लोगों की कहानियां और शायद अफ्रीकी और लैटिन अमेरिकियों की भी अगर सिनेमा के जादू से भरी हुई हो तो उन्हें ऑस्कर में डिस्क्रिमिनेशन नहीं झेलना होगा. हम अपने टच के साथ ऑस्कर जीत सकते हैं.


हॉलीवुड की कहानियों से अलग पैरासाइट में है एशियाई समाज की चेतना

सीधे कहानी पर आते हैं. कहानी एक व्यंग्य है. ऐसा भी नहीं कि ऐसा व्यंग्य पहले कभी न हुआ हो. बॉन्ग जोन हू ने कई सारे अनुभवों को इस फिल्म में दिखाने की बात की है. साउथ कोरिया की राजधानी सियोल के बेसमेंट में बने घर में रहने वाले एक परिवार की कहानी है- पैरासाइट. यह बेसमेंट में रहने वाला परिवार छोटे-छोटे काम करके अपना जीवनयापन करता है, जैसे पिज्जा के डिब्बे बनाना आदि. लेकिन बेसमेंट में रह रहे और किसी भी तरह से राजधानी के उच्चवर्गीय लोगों के संपर्क से कटे इन लोगों को देखकर आपको भारत के महानगरों में एक-दो कमरे के घरों में रहने वाले उन लोगों की याद आ जाएगी, जिनके बच्चे पढ़ाई में तेज होने के बाद भी ऐसे स्कूलों से नहीं पढ़ पाते और ऐसी डिग्रियां नहीं जुटा पाते कि उनका जीवन अपने माता-पिता से अच्छा हो सके या वे बुढ़ापे में उनका सहारा बन सकें.

मुझे पैरासाइट से पर्टिकुलर्ली एक महिला याद आई, जो अंडरवियर के फैक्ट्री से बनकर निकलने के बाद उनकी फिनिशिंग करती थी और हर अंडरवियर के उसे 25 पैसे मिलते थे. यह सब कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि मैंने अपने महानगरीय समाज में उस कहानी के तत्व पाए और महसूस किए जबकि हॉलीवुड की फिल्में जिन्हें लंबे समय से हम सेलिब्रेट करते आए हैं, हमारे लिए सिर्फ एक सपना होती है. न उनमें दिखाई जगहें, हमारे जैसी होती हैं, न उनकी सोच और न उनकी संस्कृति. हॉलीवुड फिल्मों में परिवार संस्था का महत्व और उसकी चेतना एशियाई विचारों से कहीं अलग होती है. पैरासाइट में ऐसा नहीं है.


गैरबराबरी दिखाने के लिए बेहतर तरीकों का किया गया है इस्तेमाल

कहीं मैंने पढ़ा कि कहानी लिखते हुए बॉग जून हो के दिमाग में लगातार यह बात बनी हुई थी कि रोजगार वह एकमात्र जरिया है, जिसके जरिए दो वर्गों को आस-पास दिखाया जा सकता है. और यहीं से उन्होंने इस डार्क सटायर में सबको अमीर परिवार के घर नौकरी दिलाने की बात सोची. आप खुद भी सोच सकते हैं कि किसी अमीर व्यक्ति से कोई गरीब अपने रोजगार के अलावा कहां मिलता है? समाज का बंटवारा इस हद तक हो चुका है कि उनके स्कूल अलग हैं. उनकी दुकानें अलग हैं. उनके मोहल्ले अलग हैं. उनके पार्क अलग हैं. उनके खेल के मैदान अलग हैं. ऐसे में कोई साहब जब घर से निकलते हैं तो उनके ड्राइवर और दफ्तर पहुंचने पर दरबान और चपरासी मात्र ऐसे होते हैं, जिन गरीब लोगों से उनका सामना होता है.

पैरासाइट में दुनिया में अच्छे साहित्य में गैरबराबरी दिखाने के लिए इस्तेमाल हुए तत्वों का बहुत समझदारी से इस्तेमाल हुआ है. जैसे बड़े घर के बेसमेंट में रहने वाले पहली केयरटेकर के पति को भूत के तौर पर पेश किया जाना. उसका चोरी करके फ्रीज़ से खाना. उसका अंधेरे बंद बेसमेंट में रहना. यह एचजी वेल्स की 'द टाइम मशीन' में दिखाए गए समाज का फिल्मी निरूपण है. इसके अलावा पैरासाइट की भावना आप पर लगातार हावी रहती है. यही फिल्म की सफलता है. इतना ही नहीं कई बार आपकी संवेदना भी पक्ष बदलती है. जब आप उन्हें अमीर परिवार को लूटते देखते हैं तो आपको पैरासाइट का व्यंग्य सार्थक लगने लगता है.

फिल्म पैरासाइट का एक दृश्य

जो समाज के अमीर वर्ग में नहीं, परिस्थितियां तय करती हैं उनका भविष्य

लेकिन जरा रिवर्स गियर लगाइए और देखिए जिस समाज में वे रह रहे हैं, उनके लिए बड़े विश्वविद्यालयों की डिग्री का क्या मोल है. और फिर सोचिए कि भारत का बहुतायत अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र और विज्ञान के विशेषज्ञों के बजाए क्यों किसी नेता पर विश्वास कर लेता है. यहीं वो गुप्त रहस्य है, जो आज तक पकड़ा नहीं जा पा रहा है. समाज में पैरासाइट के गरीब परिवार की स्थिति में जी रहे 50% से ज्यादा लोग फिर से किसी पार्टी को 60-70% वोट शेयर देते रहें तो माथा पकड़कर मत बैठ जाइएगा.

अंतत: बेसमेंट में छिपे अपने पिता को लाइट जलाते-बुझाते देख गरीब परिवार के बेटे का शपथ लेना कि मैं यह घर खरीदूंगा किस स्तर पर ले जाता है फिल्म को. यह वैसा ही लगता है कि पूर्वांचल या बुंदेलखंड का कोई शख्स अपने पिता का बदला लेने के लिए मर्डर करने का संकल्प उठा लेता है और वही उसकी जिंदगी का असली मकसद बन जाता है. लेकिन इससे उसकी जिंदगी का असली मकसद खो जाता है. वो मकसद जिसके लिए उसने पिज्जा के डिब्बे पैक किए होते हैं. विनम्र रहकर दुनिया में अपना आगे का रास्ता बनाने की सोची होती है.

P.S.: यह सारी बातें पैरासाइट फिल्म पर कुछ विचारों के जैसी हैं. इन्हें किसी रिव्यू से कन्फ्यूज न किया जाए.

(नोट: आप मेरे लगातार लिखने वाले दिनों को ब्लॉग के होमपेज पर [सिर्फ डेस्कटॉप और टैब वर्जन में ] दाहिनी ओर सबसे ऊपर देख सकते हैं.) 

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