अभिजीत बनर्जी और एस्थर डुफ्लो की यह किताब दुनिया की तमाम परेशानियों का हल अर्थशास्त्र में ढूंढती है |
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जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई को आर्थिक असमानता के खिलाफ लड़ाई से अलग नहीं किया जा सकता है
2018 के अंत में 'पीली जर्सी' (येलो वेस्ट) प्रदर्शनकारियों की भीड़ ने गैसोलीन/पेट्रोल पर प्रस्तावित एक टैक्स का बुरी तरह से विरोध करते हुए पेरिस की सड़कों पर जमकर हंगामा किया. उनका तर्क था कि यह अभिजात वर्ग की रक्षा करते हुए गरीबों को चोट पहुंचाने के लिए उठाया गया एक कदम था. पेरिस के अमीर निवासी काम पर जाने के लिए मेट्रो ले सकते थे लेकिन उपनगरों या ग्रामीण इलाकों में रहने वाले गरीब लोग जो अगर गाड़ी चलाकर काम पर जाएं तो ही आजीविका चला सकते हैं, वे मेट्रो नहीं ले सकेंगे.यह बहुत सामान्य बात है कि जलवायु परिवर्तन से लड़ने वाला तर्क एक लक्जरी है, जो गरीबों की सामर्थ्य से बाहर है. इस तरह सोचा जाता है कि या तो हम भविष्य के लिए धरती को बचा सकते हैं या हम वर्तमान के लिए अर्थव्यवस्था को बचा सकते हैं.
लेकिन यह गरीबों के लिए भी परेशान करने वाला है जो तुरंत जलवायु परिवर्तन की कीमत चुका रहे हैं, खासकर भूमध्य रेखा के पास मौजूद विकासशील देश. यदि तापमान स्कैंडेनेविया में कुछ डिग्री बढ़ जाता है, तो यहां सुखद गर्मी का अहसास हो सकता है. यदि दूसरी ओर भारत में तापमान बढ़ता है तो यह असहनीय रूप से तपती गर्मी होगी.
इससे भी अधिक, भारत में अधिकांश लोगों के हालात 'लू' से बचने के लिए अनुपयुक्त हैं- सिर्फ 5% घरों में ही एसी है, जबकि इसके विपरीत अमेरिका में 87% लोगों के पास एसी है.
व्यापक विश्वास है कि आर्थिक विकास ही अंतिम अच्छा साधन है. हम ऊर्जा की खपत में कटौती के विचार से डरे हुए हैं कि यह अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर सकता है. लेकिन कोई और रास्ता नहीं है. जलवायु परिवर्तन को धीमा करने के लिए, हमें ऊर्जा खपत में कटौती करनी ही होगी. क्या इसे ऐसे करना संभव है कि यह आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को नुकसान न पहुंचाए.
अमीर देशों में उत्सर्जन को कम करने के उपायों के साथ-साथ, हमें जलवायु परिवर्तन का खामियाजा भुगत रहे विकासशील देशों को सहारा देने के लिए धन के अधिक से अधिक पुनर्वितरण की आवश्यकता है. भारत में एसी का उदाहरण लें. भारत के परिवारों के लिए, स्वच्छ ऊर्जा वाले एयर कंडीशनर, जो HFC गैसों का उत्पादन नहीं करते, के लिए धन देने में दुनिया के सबसे अमीर देशों की GDP का एक छोटा सा हिस्सा खर्च होगा.हमें धरती को बचाने के लिए गरीबों का बलिदान नहीं करना है, लेकिन अमीर देशों को कीमत चुकाने के लिए तैयार रहना चाहिए.
The End of Growth?
AI अधिक जटिल मानवीय कार्य करने के लिए तैयार हो रहा है, नौकरी के बाजार को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रहा है
आपने विज्ञान फंतासी (साइंस फिक्शन) फिल्मों में यह पटकथा सुनी होगी- इंसानों की जगह चमचमाते रोबोट ने ली है, जो हमारी दुनिया को संभालने से पहले हमारे काम संभाल रहे थे.यह थोड़ी दूर की कौड़ी लग सकती है, लेकिन क्या यह वास्तव में है? आज रोबोट बर्गर तैयार कर सकता है, फर्श साफ कर सकता है और यहां तक कि जटिल सामान/रसद का भी ध्यान रख सकता है.
उन इंसानों का क्या हुआ, जिनके पास वे नौकरियां थीं? कृत्रिम बुद्धिमत्ता (Artificial Intelligence- AI) और लगातार बढ़ते मशीनीकरण के साथ उनका क्या होगा? इस प्रश्न का जवाब देना जटिल होगा क्योंकि टेक्नोलॉजी इतनी तेज गति से आगे बढ़ रही है.
हालांकि हम आगे के लिए भविष्यवाणी नहीं कर सकते, हम अतीत में मशीनीकरण के प्रभावों को देख सकते हैं. शोधकर्ताओं ने पता लगाया है कि रोबोटों के आने से नौकरियों के बाजार पर एक नकारात्मक प्रभाव पड़ा है. किसी शहरी इलाके में सिर्फ एक औद्योगिक रोबोट की उपस्थिति 6.2 नौकरियों को खत्म कर देती है और मजदूरी को नीचे ले आती है.
हालांकि अभी तक मुख्यत: शारीरिक श्रम वाली नौकरियों का मशीनीकरण हुआ है, AI का मतलब है कि अधिक जटिल कार्यों जैसे बहीखाते रखना, खेल पत्रकारिता और इसके जैसे अन्य काम भी रोबोट से लिए जा सकते हैं. ऐसे में सिर्फ उच्च कौशल वाली कंप्यूटर साइंस की नौकरियां और बहुत कम कौशल वाली कुत्ता टहलाने जैसी नौकरियां ही बाकी रह जाएंगीं. जिन लोगों के पास कॉलेज की डिग्री नहीं है, निश्चय ही वे नकारात्मक तौर पर सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे.
वर्तमान में, किसी अमेरिकी कंपनी के लिए इंसान की तुलना में रोबोट का इस्तेमाल पैसों के मामले में फायदेमंद हो सकता है, चाहे रोबोट काम में अधिक कुशल न भी हो. नौकरी पर रखने वाले को रोबोट को मातृत्व अवकाश या वेतन निधि का (अलग से) भुगतान नहीं करना होगा. कंपनियों को ऐसे रोबोट बनाने के लिए प्रोत्साहित करके, जो इंसानी नौकरियों को छीनने के बजाए बढ़ाने का काम करते हैं, (साथ ही) हम एक टैक्स पेनाल्टी (कर दंड) भी लगा सकते हैं, जो एक इंसान को काम पर रखने को (रोबोट को रखने के मुकाबले) ज्यादा लाभदायक बना देता है.
एक समस्या यह है कि यह निर्धारित करना कठिन हो जाएगा कि कहां पर रोबोट की सीमा खत्म होती है और इंसानों की शुरू होती है. सभी रोबोट चमकदार चांदी के आवरण वाले और पहियों पर घूमने वाले नहीं होते हैं; अक्सर मशीनों में लगे होते हैं, जिन्हें मानव ऑपरेटर चलाते हैं. वास्तव में 'रोबोट' क्या हो सकता है, यह तय करना बहुत कठिन है.लेकिन आर्थिक असमानता रोबोट के साथ शुरू और खत्म नहीं होती. जैसा कि आप अगले चैप्टर में पाएंगे कि इस असमानता का तकनीकी (टेक्नोलॉजी) की अपेक्षा सामाजिक नीति से ज्यादा लेना-देना है.
किताब के बारे में-
इस किताब में दोनों लेखक तर्क करते हैं कि अर्थशास्त्र कई समस्याओं को लेकर नया दृष्टिकोण पेश कर उन्हें सुलझाने में हमारी मदद सकता है. चाहे वह जलवायु परिवर्तन का हल बिना गरीबों को नुकसान पहुंचाए हो, या बढ़ती हुए असमानता के चलते उभरने वाली सामाजिक समस्याओं से निपटना हो, या वैश्विक व्यापार, और प्रवासियों को लेकर फैलाया गया डर जैसे मुद्दे.अभिजीत बनर्जी और एस्थर डुफ्लो ने 2019 में अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार डेलपलमेंट इकॉनमिक्स के क्षेत्र में अपने योगदान के लिए पाया. उनकी इससे पहले आई किताब 'पुअर इकॉनमिक्स' (Poor Economics- गरीब अर्थशास्त्र) एक शुरुआती खोज थी कि गरीबी क्या होती है और कैसे सबसे इससे जूझते समुदायों को सबसे प्रभावशाली तरीके से मदद पहुंचाई जाए. ये दोनों ही MIT में प्रोफेसर हैं और बहुत से अकादमिक सम्मान और पुरस्कार पा चुके हैं.
अनुवाद के बारे में-
भारतीय मूल के अर्थशास्त्री अभिजीत वी. बनर्जी और उनकी साथी एस्थर डुफ्लो की 2019 में उन्हें नोबेल मिलने के तुरंत बाद आई किताब गुड इकॉनमिक्स फॉर हार्ड टाइम्स (Good Economics for Hard Times) बहुत चर्चित रही. मैं इस किताब के प्रत्येक चैप्टर का संक्षिप्त अनुवाद पेश करने की कोशिश कर रहा हूं. अभिजीत के लिखे हुए को अनुवाद करने की मेरी इच्छा इस किताब के पहले चैप्टर को पढ़ने के बाद ही हुई. बता दूं कि इसके संक्षिप्त मुझे ब्लिंकिस्ट (Blinkist) नाम की एक ऐप पर मिले. बर्लिन, जर्मनी से संचालित इस ऐप का इसे संक्षिप्त रूप में उपलब्ध कराने के लिए आभार जताता हूं. अंग्रेजी में जिन्हें समस्या न हो वे इस ऐप पर अच्छी किताबों के संक्षिप्त पढ़ सकते हैं और उनका ऑडियो भी सुन सकते हैं. एक छोटी सी टीम के साथ काम करने वाली इस ऐप का इस्तेमाल मैं पिछले 2 सालों से लगातार कर रहा हूं और मुझे इससे बहुत फायदा मिला है. वैश्विक क्वारंटाइन के चलते विशेष ऑफर के तहत 25 अप्रैल तक आप इस पर उपलब्ध किसी भी किताब को पढ़-सुन सकते हैं. जिसके बाद से यह प्रतिदिन एक किताब ही मुफ्त में पढ़ने-सुनने को देगी.(नोट: कल इस किताब के अगले दो चैप्टर का हिंदी अनुवाद पेश करने की मेरी कोशिश होगी. आप मेरे लगातार लिखने वाले दिनों को ब्लॉग के होमपेज पर [सिर्फ डेस्कटॉप और टैब वर्जन में ] दाहिनी ओर सबसे ऊपर देख सकते हैं.)
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