अभिजीत बनर्जी और एस्थर डुफ्लो की यह किताब दुनिया की तमाम परेशानियों का हल अर्थशास्त्र में ढूंढती है |
The Pains from Trade
वैश्विक व्यापार समझौतों में सामान स्वतंत्र रूप से आ-जा सकता है, लोग और धन नहीं
अंतरराष्ट्रीय व्यापार समझौतों के पैरोकार इसका भविष्य उज्ज्वल ऐसे दिखाते हैं: प्रत्येक देश उन चीजों का निर्यात करेगा, जिनके उत्पादन में वह बेहतरीन होगा और उन चीजों का आयात करेगा, जो दूसरी जगहों से मंगाए जाने पर (खुद उत्पादित करने के बजाए) ज्यादा सस्ती पड़ेंगीं.इसलिए, मिस्र अपने सस्ते घरेलू वर्कफोर्स को पूंजी बनाते हुए अधिक श्रम वाली चीजों जैसे हाथ से बुने कालीनों का निर्यात कर सकता है. चीन अपने जबरदस्त तकनीकी संसाधनों और कुशल कारखानों का उपयोग कर बड़े पैमाने पर उत्पादित कंप्यूटर पार्ट्स का निर्यात कर सकता है. फिर उन पार्ट्स को भारतीय कंपनियों द्वारा सस्ते में, स्थानीय तकनीकी उद्योग को मजबूती देने के लिए खरीदा जा सकता है.
हालांकि अंतरराष्ट्रीय व्यापार कुछ उद्योगों और नौकरियों को नुकसान पहुंचाएगा, लेकिन हम ऐसे सोचते हैं कि इससे कारखानों में बिना मुनाफे वाली चीजें बनना बंद हो सकती हैं और नए सुधारों के साथ नई चीजों का निर्माण शुरू हो सकता है. और कामगार काम बदल ज्यादा मुनाफे वाले उद्योगों में लग सकते हैं.
इस विचार के साथ समस्या यह है कि यह उद्योग और कार्यबल (वर्कफोर्स) दोनों से ही तेजी से बदलने की उम्मीद रखता है, जो बात सच्चाई से मेल नहीं खाती.
जैसा कि हम पिछले अंक में देख चुके हैं, कामगार उतनी तेजी से बदलना नहीं जानते, जितना व्यापार सिद्धांत सुझाते है. उन्हें स्थानांतरित किया जाना बहुत कठिन होता है, भले ही उसके लिए आर्थिक प्रोत्साहन दिया जा रहा हो. यह उन्हें एक से दूसरे उद्योग में जाने से रोकता है, क्योंकि यह अक्सर एक नए जिले में जाने के लिए मजबूर करता है.
कंपनियां भी बहुत कम लचीलापन (बदलाव की संभावना) दिखा सकती हैं. जब अर्थशास्त्री पेटिया टोपालोवा MIT में PhD की छात्रा थीं, तब उन्होंने भारत में वैश्विक व्यापार के प्रभाव पर गहन शोध किया था. उन्होंने पाया कि एक कंपनी के लिए किसी उत्पाद को बनाने से बंद कर देना बेहद दुर्लभ था, भले ही उसके उत्पादन में कोई मुनाफा न बचा हो.
जबकि सिद्धांतों के हिसाब से नई कंपनियां ज्यादा नए उत्पाद बनाने के लिए उभर सकती हैं, व्यवहार में आमतौर पर उन्हें बैंकों से धन/लोन मिलना बहुत मुश्किल होता है. इससे उलट, पुरानी कंपनियां तब भी धन/लोन पाती रहती हैं, जब वे घिसट-घिसट कर चल रही होती हैं.
और यदि कोई नई कंपनी स्थानीय मार्केट में एक नए उत्पाद के साथ घुसने में सफल भी होती है, तो वैश्विक बाजार में उसके लिए प्रतिस्पर्धा इतनी आसान नहीं होती.
एक बात तो यह, कि एक विश्वसनीय प्रतिष्ठा बनाने में लंबा समय लगता है. वहीं एक नई कंपनी की ओर से आने वाले माल की समय पाबंद डिलिवरी या गुणवत्ता बनी रहने की गारंटी को लेकर विदेशी खरीददार सावधान रहते हैं. जैसे, विकासशील देशों की कंपनियों के साथ संदेहपूर्ण बर्ताव किया जाता है. यह एक दुष्चक्र बन सकता है. उदाहरण के लिए, यदि मिस्र के कालीन-उत्पादक समूह में कोई निवेश नहीं करता है, तो वह अपनी गुणवत्ता में सुधार नहीं कर पाएगा और (कुशल के बजाए) तेजी से बदले जा सकने वाले कामगारों को काम पर रखेगा.
व्यापार समझौते स्थानीय कामगारों को नुकसान पहुंचा सकते हैं, लेकिन संरक्षणवादी टैरिफ समस्या को हल नहीं करते हैं
आपने शायद 2018 में स्टील कामगारों से घिरे ट्रंप को यह घोषणा करते हुए तस्वीरों-वीडियो में देखा होगा कि अमेरिका, स्थानीय नौकरियों को बचाने के लिए चीन से आयातित एल्यूमिनियम और स्टील पर भारी दरें (टैरिफ) लगाएगा.क्या यह युक्ति काम कर सकती है? खैर, स्टील कामगारों की नौकरियों को इस कदम के जरिए बचाए जाने की संभावना है. अधिक लोग स्थानीय स्टील खरीदेंगे, जिसका मतलब यह होगा कि उन कारखानों में मांग अधिक होगी, जिससे छंटनी कम होगी. अब तक सुनने में यह बहुत अच्छा लग रहा है, लेकिन यह इतना आसान नहीं है.
स्टील कामगारों से घिरे ट्रंप चीनी स्टील पर कर की घोषणा पर हस्ताक्षर करते हुए |
'चीन का झटका' कहे जाने वाले एक प्रभाव के तहत सस्ते चीनी आयातों से प्रतिस्पर्धा के चलते कई कारखाने, व्यवसाय से बाहर हो चुके हैं. टेनेसी का ब्रुस्टन शहर इसका एक भयावह उदाहरण पेश करता है.
ब्रुस्टन शहर को अपने 1700 लोगों को रोजगार देने वाली फैक्ट्री तब बंद करनी पड़ी, जब कपड़ों का उत्पादन मुनाफे वाला नहीं रह गया. 2000 में उसने अपने अंतिम 55 कर्मचारियों को भी खो दिया. निकाले गए कामगार अब शहर में पैसे नहीं खर्च कर सकते थे, जिसका मतलब था कि लगभग सभी स्थानीय व्यापार बंद हो गए. जो कभी एक संपन्न केंद्र था, एक भूतिया शहर में बदल गया. इस वीरानी ने, निवेशकों को वहां नए कारखाने लगाने के लिए भी हतोत्साहित किया. हमने पहले ही देखा है कि बेरोजगार कामगार नई नौकरी खोजने के लिए आसानी से दूसरे जिले में नहीं जा सकते हैं. लेकिन अगर वे यहीं रुकते हैं तो भी कोई संभावना नहीं रहती. ऐसे में वे कर ही क्या सकते हैं?
अमेरिका ने उनके लिए, जिन्होंने अपनी नौकरियां खोई हैं, व्यापार समायोजन सहायता (ट्रेड एडजस्टमेंट असिस्टेंस-TAA) कार्यक्रम नाम की एक पहल की. यह कार्यक्रम कामगारों को बेरोजगारी बीमा देता है और एक नए क्षेत्र में प्रवेश के लिए (आवश्यक) ट्रेनिंग और मदद देता है. यह कामगारों को दूसरे स्थान पर बसने के लिए वित्तीय सहायता भी देता है. कार्यक्रम में सभी सही तत्व शामिल हैं, लेकिन इसे जारी किया जाने वाला फंड बेहद कम है.
वैश्विक व्यापार के सताए लोगों को संरक्षण की जरूरत है, लेकिन साधारण ढंग से कर की दर (टैरिफ) बढ़ाने से कोई हल नहीं मिल सकता. इसके बजाए, हमें हाल ही में बेरोजगार हुए लोगों को खुद को झटके के अनुकूल बनाने और अपने पैरों पर वापस खड़ा के लिए पर्याप्त संसाधनों का निवेश करना होगा.
किताब के बारे में-
इस किताब में दोनों लेखक तर्क करते हैं कि अर्थशास्त्र कई समस्याओं को लेकर नया दृष्टिकोण पेश कर उन्हें सुलझाने में हमारी मदद सकता है. चाहे वह जलवायु परिवर्तन का हल बिना गरीबों को नुकसान पहुंचाए हो, या बढ़ती हुए असमानता के चलते उभरने वाली सामाजिक समस्याओं से निपटना हो, या वैश्विक व्यापार, और प्रवासियों को लेकर फैलाया गया डर जैसे मुद्दे.अभिजीत बनर्जी और एस्थर डुफ्लो ने 2019 में अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार डेलपलमेंट इकॉनमिक्स के क्षेत्र में अपने योगदान के लिए पाया. उनकी इससे पहले आई किताब 'पुअर इकॉनमिक्स' (Poor Economics- गरीब अर्थशास्त्र) एक शुरुआती खोज थी कि गरीबी क्या होती है और कैसे सबसे इससे जूझते समुदायों को सबसे प्रभावशाली तरीके से मदद पहुंचाई जाए. ये दोनों ही MIT में प्रोफेसर हैं और बहुत से अकादमिक सम्मान और पुरस्कार पा चुके हैं.
अनुवाद के बारे में-
भारतीय मूल के अर्थशास्त्री अभिजीत वी. बनर्जी और उनकी साथी एस्थर डुफ्लो की 2019 में उन्हें नोबेल मिलने के तुरंत बाद आई किताब गुड इकॉनमिक्स फॉर हार्ड टाइम्स (Good Economics for Hard Times) बहुत चर्चित रही. मैं इस किताब के प्रत्येक चैप्टर का संक्षिप्त अनुवाद पेश करने की कोशिश कर रहा हूं. अभिजीत के लिखे हुए को अनुवाद करने की मेरी इच्छा इस किताब के पहले चैप्टर को पढ़ने के बाद ही हुई. बता दूं कि इसके संक्षिप्त मुझे ब्लिंकिस्ट (Blinkist) नाम की एक ऐप पर मिले. बर्लिन, जर्मनी से संचालित इस ऐप का इसे संक्षिप्त रूप में उपलब्ध कराने के लिए आभार जताता हूं. अंग्रेजी में जिन्हें समस्या न हो वे इस ऐप पर अच्छी किताबों के संक्षिप्त पढ़ सकते हैं और उनका ऑडियो भी सुन सकते हैं. एक छोटी सी टीम के साथ काम करने वाली इस ऐप का इस्तेमाल मैं पिछले 2 सालों से लगातार कर रहा हूं और मुझे इससे बहुत फायदा मिला है. वैश्विक क्वारंटाइन के चलते विशेष ऑफर के तहत 25 अप्रैल तक आप इस पर उपलब्ध किसी भी किताब को पढ़-सुन सकते हैं. जिसके बाद से यह प्रतिदिन एक किताब ही मुफ्त में पढ़ने-सुनने को देगी.(नोट: कल इस किताब के अगले दो चैप्टर का हिंदी अनुवाद पेश करने की मेरी कोशिश होगी. आप मेरे लगातार लिखने वाले दिनों को ब्लॉग के होमपेज पर [सिर्फ डेस्कटॉप और टैब वर्जन में ] दाहिनी ओर सबसे ऊपर देख सकते हैं.)
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