अभिजीत बनर्जी और एस्थर डुफ्लो की यह किताब दुनिया की तमाम परेशानियों का हल अर्थशास्त्र में ढूंढती है |
राजनेताओं ने प्रवासियों के बारे में झूठ बोलकर जनता को गुमराह किया है- FROM THE MOUTH OF THE SHARK
आज प्रवास (Migration)से अधिक विवादास्पद कोई मुद्दा नहीं है. डोनाल्ड ट्रंप जैसे राजनेताओं ने भूखे अप्रवासियों की भीड़ से घिरे हुए अपने देशों की तस्वीर पेश की है, जिसमें ये (अप्रवासी) संसाधनों को नष्ट कर देंगे और स्थानीय लोगों की पहचान को खतरे में डाल देंगे.राजनेता आपूर्ति और मांग के सरल आर्थिक मॉडल का उपयोग यह समझाने के लिए करते हैं कि माइग्रेशन इतनी बड़ी समस्या क्यों है. ऐसा तर्क किया जाता है कि अप्रवासी अमेरिका जैसे प्रथम विश्व के देश की वित्तीय धन से आकर्षित होंगे, और इसलिए वहां बेहद बड़ी तादाद में वहां पहुंचने लगेंगे. जब वे वहां पहुंचेंगे तो सस्ते श्रम की अधिक आपूर्ति हो जाएगी, जिससे वेतन में कमी आएगी और स्थानीय श्रमिक अपनी नौकरी खो देंगे.
यह तर्क भले ही तर्कसंगत लगता हो लेकिन यह सबूतों के खिलाफ नहीं टिक सकता है.
एक बात तो यह, कि यह सच नहीं है कि अधिक धन मिलने का वादा प्रवासियों को उनके गृह देश को छोड़ने के लिए प्रेरित करने के लिए काफी होता है. अगर यह सच होता तो 2013 में जब ग्रीक अर्थव्यवस्था बुरी हालत में थी तब ग्रीस की आबादी का एक बड़ा हिस्सा, धनी यूरोपीय देशों में चला गया होता. उन्हें कोई नहीं रोकता, ग्रीस के यूरोपियन यूनियन का सदस्य होने के चलते, नागरिकों के लिए पास के अमीर देशों में चले जाना पूरी तरह से कानूनी होता. लेकिन केवल 3 लाख 50 हजार लोग यानि लगभग कुल जनसंख्या का 3% ही दूसरी जगहों पर जाकर बसे.
बल्कि अध्ययनों से पता चला है कि आमतौर पर लोग अपने ही देश में दूसरी जगह जाकर बसने के लिए अनिच्छुक होते हैं. उदाहरण के तौर पर, एक अध्ययन में पाया गया कि बिहार और उत्तर प्रदेश में रहने वाले भारतीय अगर किसी शहर में चले जाते हैं तो उनकी आय दोगुनी हो जाएगी. लेकिन इन इलाकों में 10 करोड़ सबसे गरीब लोगों का केवल 1% का छोटा सा हिस्सा ही वास्तव में ऐसा करता है.
ऐसा इसलिए है क्योंकि लोगों को अपने घर में रखने की बहुत सी आकर्षक वजहें होती हैं- परिवार के संबंध, सपोर्ट नेटवर्क और अज्ञात का डर, उनमें से सिर्फ कुछ वजहें हैं.
कागजों पर इसे, बिना प्रमाण सही मान लिया जाता है कि केवल पैसा ही एक अच्छा प्रेरक होगा. कौन अपनी कमाई को दोगुना नहीं करना चाहेगा? लेकिन ऐसा सरलीकृत मॉडल, मानव स्वभाव की बारीक प्रकृति का विवरण नहीं देता है. आप बदलाव के डर को कैसे नापते हैं? या आपको अपने बीमार माता-पिता की देखभाल करने के लिए घर पर रहने की जरूरत है? या आप अपने बच्चों को ग्रामीण इलाके में ताजी हवा के साथ बढ़ने देने की इच्छा रखते हैं?
जब प्रवास की बात आती है तो राजनेता इसे पूरी तरह से गलत समझते हैं. हमें लोगों को एक से दूसरी जगह स्थानांतरित होने से रोकने की जरूरत नहीं है. बल्कि हमें उन्हें पलायन करने के लिए प्रोत्साहित करने की जरूरत है. क्योंकि जैसा कि हम अगले अंक में देखेंगे, माइग्रेशन अकुशल स्थानीय श्रमिकों के लिए अच्छी चीज है.
अप्रवासन (Immigration) स्थानीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने में मदद करता है और देशी श्रमिकों को नए अवसर प्रदान करता है
एक पल के लिए कल्पना कीजिए कि आप एक वेटर हैं और आपका शहर अप्रवासियों की आबादी से भर गया है, जैसा कि कुछ राजनेता चेतावनी देते हैं कि ऐसा होगा. ऐसी कल्पना करते हुए आप थोड़ा चिंतित होंगे कि आपके पड़ोसी आपकी नौकरी से प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं लेकिन फिर आप यह भी ध्यान देंगे कि उनके आने के बाद से आपका रेस्टोरेंट कितना व्यस्त हो चुका है.अप्रवासी अपने साथ केवल श्रम की आपूर्ति लेकर नहीं आते. वे सेवाओं के लिए मांग भी लेकर आते हैं. वे कैफे और दुकानों जैसे व्यवसायों में पैसे लगाते हैं, जहां कम-कुशल श्रमिक कर्मचारी रखे जाते हैं.
सबसे उद्यमी प्रवासी अपने स्वयं के व्यवसाय स्थापित करते हैं, जो आगे चलकर रोजगार के अवसर पैदा करते हैं. दरअसल, 2017 में शीर्ष फॉर्च्यून 500 कंपनियों के अध्ययन से पता चला कि अमेरिका में सबसे अधिक कमाने वाली 43% कंपनियों की स्थापना अप्रवासियों या उनके वंशजों ने की थी. स्टीव जॉब्स जैसे लोग, जिनके जैविक पिता सीरिया से आए थे. या हेनरी फोर्ड, जो एक आयरिश अप्रवासी का वंशज था.
इसलिए यह धारणा कि अप्रवासी स्थानीय कम-कुशल श्रमिकों के बाजार को नष्ट कर देते हैं, सच नहीं है. लेकिन यह केवल इसलिए नहीं है कि वे अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन देते हैं. इसका एक अन्य कारण यह यह भी है कि अप्रवासी स्थानीय श्रमिकों और सामाजिक नेटवर्क और स्थानीय ज्ञान से प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते.
आपूर्ति और मांग मॉडल मानता है कि नियोक्ता हमेशा सबसे सस्ता कर्मचारी रखना चाहते हैं, इसलिए अगर अप्रवासी अपनी सेवाएं कम दाम में देता है तो स्थानीय लोग अपनी नौकरी खो देंगे. लेकिन एक कर्मी को नौकरी पर रखना एक तरबूज खरीदने जैसा नहीं है. एक नियोक्ता के पास सोचने के लिए मूल्य से अधिक गंभीर चीजें होती हैं. उन्हें यह जानने की जरूरत होती है कि कर्मी अच्छा प्रदर्शन करेगा और विश्वसनीय होगा. अन्यथा, उन्हें उसे निकालना पड़ेगा, जो मंहगा और अप्रिय हो सकता है.
इन वजहों से, इप्लॉयर हमेशा उन लोगों को काम पर रखना पसंद करते हैं, जिन्हें वे जानते हैं या जो किसी मजबूत सिफारिश के साथ आते हैं. स्थानीय, जिन्होंने क्षेत्र में पहले से ही काम किया हो, इप्लॉयर्स की निगाहों में बेहतर होते हैं, भले ही वे इसके लिए ज्यादा पैसे लें.
स्थानीय लोगों के पास अक्सर ऐसे कौशल होते हैं, जो हाल ही में आने वालों के पास नहीं होते, जैसे धाराप्रवाह उस भाषा में बोलना. एक डेनिश अध्ययन से पता चला है कि अप्रवासियों के उच्च प्रतिशत वाले इलाकों में, डेनिश कर्मचारियों के अधिक कुशल नौकरियों के लिए शारीरिक श्रम के कामों को छोड़ने की संभावना अधिक थी.
ऐसा इसलिए क्योंकि अप्रवासियों को अक्सर केवल वही काम करने को मिलते हैं, जिन्हें करने के लिए स्थानीय लोग तैयार नहीं होते, जैसे साफ-सफाई, घास काटना या बच्चों की देख-रेख करना. इन क्षेत्रों में आपूर्ति (की अधिकता) वाकई मजदूरी को कम कर सकती है लेकिन यह भी श्रमिकों के लिए लाभकारी ही है. उदाहरण के लिए यदि आप एक कम आय वाली स्थानीय मां हैं, तो सस्ते चाइल्ड केयर होने से आपके लिए बाहर जाना और पैसे कमाना आसान हो जाएगा.
किताब के बारे में-
इस किताब में दोनों लेखक तर्क करते हैं कि अर्थशास्त्र कई समस्याओं को लेकर नया दृष्टिकोण पेश कर उन्हें सुलझाने में हमारी मदद सकता है. चाहे वह जलवायु परिवर्तन का हल बिना गरीबों को नुकसान पहुंचाए हो, या बढ़ती हुए असमानता के चलते उभरने वाली सामाजिक समस्याओं से निपटना हो, या वैश्विक व्यापार, और प्रवासियों को लेकर फैलाया गया डर जैसे मुद्दे.अभिजीत बनर्जी और एस्थर डुफ्लो ने 2019 में अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार डेलपलमेंट इकॉनमिक्स के क्षेत्र में अपने योगदान के लिए पाया. उनकी इससे पहले आई किताब 'पुअर इकॉनमिक्स' (Poor Economics- गरीब अर्थशास्त्र) एक शुरुआती खोज थी कि गरीबी क्या होती है और कैसे सबसे इससे जूझते समुदायों को सबसे प्रभावशाली तरीके से मदद पहुंचाई जाए. ये दोनों ही MIT में प्रोफेसर हैं और बहुत से अकादमिक सम्मान और पुरस्कार पा चुके हैं.
अनुवाद के बारे में-
भारतीय मूल के अर्थशास्त्री अभिजीत वी. बनर्जी और उनकी साथी एस्थर डुफ्लो की 2019 में उन्हें नोबेल मिलने के तुरंत बाद आई किताब गुड इकॉनमिक्स फॉर हार्ड टाइम्स (Good Economics for Hard Times) बहुत चर्चित रही. मैं इस किताब के प्रत्येक चैप्टर का संक्षिप्त अनुवाद पेश करने की कोशिश कर रहा हूं. अभिजीत के लिखे हुए को अनुवाद करने की मेरी इच्छा इस किताब के पहले चैप्टर को पढ़ने के बाद ही हुई. बता दूं कि इसके संक्षिप्त मुझे ब्लिंकिस्ट (Blinkist) नाम की एक ऐप पर मिले. बर्लिन, जर्मनी से संचालित इस ऐप का इसे संक्षिप्त रूप में उपलब्ध कराने के लिए आभार जताता हूं. अंग्रेजी में जिन्हें समस्या न हो वे इस ऐप पर अच्छी किताबों के संक्षिप्त पढ़ सकते हैं और उनका ऑडियो भी सुन सकते हैं. एक छोटी सी टीम के साथ काम करने वाली इस ऐप का इस्तेमाल मैं पिछले 2 सालों से लगातार कर रहा हूं और मुझे इससे बहुत फायदा मिला है. वैश्विक क्वारंटाइन के चलते विशेष ऑफर के तहत 25 अप्रैल तक आप इस पर उपलब्ध किसी भी किताब को पढ़-सुन सकते हैं. जिसके बाद से यह प्रतिदिन एक किताब ही मुफ्त में पढ़ने-सुनने को देगी.(नोट: कल इस किताब के अगले दो चैप्टर का हिंदी अनुवाद पेश करने की मेरी कोशिश होगी. आप मेरे लगातार लिखने वाले दिनों को ब्लॉग के होमपेज पर [सिर्फ डेस्कटॉप और टैब वर्जन में ] दाहिनी ओर सबसे ऊपर देख सकते हैं.)
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