अभिजीत बनर्जी और एस्थर डुफ्लो की यह किताब दुनिया की तमाम परेशानियों का हल अर्थशास्त्र में ढूंढती है |
CASH AND CARE
गरीबी कम करने के लिए हर स्थिति में काम आ जाने वाला कोई एक उपाय नहीं है लेकिन गरीबों की इज्जत को प्राथमिकता देना जरूरी है
कल्पना कीजिए एक बहीखाता देखने के वाले के तौर पर आपकी नौकरी एक रोबोट ने छीन ली है. या चीन के साथ चल रहे व्यापार युद्ध के प्रभाव के चलते आपका एक जैविक खेत में रोज़ का काम खत्म हो चुका है. या भारतीय कपड़ों के कारखाने में आपका काम खत्म हो जाता है क्योंकि पश्चिम के लिए कोरियाई कपड़ा आयात करना ज्यादा किफायती है.इन नौकरियों के नुकसान का आपके और आपके परिवार पर गहरा आर्थिक प्रभाव पड़ेगा. लेकिन पैसा वह एकमात्र चीज नहीं होगा, जिसे आप खोएंगे. आप अपना कार्य समुदाय, कार्यस्थल में अपनी पहचान और शायद अपनी इज्जत का अहसास भी खो देंगे.
एक सामाजिक सुरक्षा के जाल (सोशल सेफ्टी नेट) के बिना लोग बहुत तेजी से गरीब हो सकते हैं. एक छंटनी एक पूरे परिवार को गरीबी में डुबा सकती है. ऐसे में सहायता के किसी भी प्रयास को न सिर्फ परिवार की वित्तीय जरूरतों को ध्यान में रखना चाहिए बल्कि बहुत ही मानवीय जरूरत- 'सम्मान के व्यवहार' को भी ध्यान रखना चाहिए.
दुर्भाग्यपूर्ण रूप से कई सहायता कार्यक्रम इसके बजाए गरीबों को बदनाम करते हैं.
नीति निर्माता मानते हैं कि गरीबों पर भरोसा नहीं किया जाना चाहिए कि वे भोजन और शिक्षा जैसी उपयोगी चीजों पर अपना पैसा खर्च करेंगे और इसलिए उन्हें नकद पैसे नहीं दिए जाने चाहिए. जरूरतमंदों को पैसा देने के प्रस्ताव के आलोचकों का तर्क होता है कि अगर लोगों को इस तरह से समर्थन दिया जाता है, तो उनके पास काम करने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं होगा; इसके बजाए, वे लक्ष्यहीन होकर बाकी दिन इधर-उधर पड़े रहेंगे.
लेकिन ये आशंकाएं निराधार हैं. 119 विकासशील देशों में किए गए गरीबों को प्रत्यक्ष वित्तीय सहायता (यूनिवर्सल बेसिक इनकम) देने के प्रयोगों से मिला डेटा दिखाता है कि इससे लाभार्थियों के पोषण और स्वास्थ्य के स्तर में काफी हद तक सुधार होता है. वे इसे शराब और तंबाकू पर खर्च नहीं करते.
बेसिक इनकम पाने के बावजूद लोग काम करने से नहीं बचते. लेखकों में से एक के घाना में किए प्रयोग में, प्रतिभागियों को बैग बनाने के लिए प्रोत्साहित किया गया, जिसे एक अच्छी राशि देकर खरीदा जाना था. कुछ प्रतिभागियों को बकरियां भी दी गईं, जिनका उपयोग आगे की आय पैदा करने के लिए किया जा सकता था. प्रयोग से सामने आया कि न केवल बकरियों के मालिक लाभार्थियों ने उन लोगों की तुलना में अधिक बैग का उत्पादन किया, जिन्हें बकरियां नहीं मिली थीं बल्कि उन्होंने अच्छी क्वालिटी वाले बैग भी बनाए.
गरीब लोगों को हतोत्साहित करने के बजाए, वित्तीय सहायता लाभार्थियों को रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़े बीमार कर देने वाले तनाव से बचा सकती है, और उन्हें कड़ी मेहनत करने, कुछ नया करने या स्थानांतरित होने के लिए स्वतंत्र कर सकती है.
गरीबी मिटाने के लिए हर स्थिति में काम आ जाने वाला कोई उपाय नहीं है. एक समाधान जो घाना में काम करता है, हो सकता है अमेरिका में काम न करे. जरूरी यह है कि सामाजिक संदर्भों को ध्यान में रखा जाए और लाभार्थियों के इसे कर सकने की क्षमता और उनकी इज्जत को प्राथमिकता दी जाए.
लोकतंत्र को खत्म करने वाले राजनीतिक ध्रुवीकरण और पूर्वाग्रह को ठीक करने के लिए हमें एक-दूसरे की बात सुननी होगी
एफबीआई (FBI) के मुताबिक, 2017 में अमेरिका में घृणा अपराधों (हेट क्राइम्स) की संख्या में 17% की बढ़ोत्तरी हुई है. यह लगातार तीसरा साल था, जब ऐसे अपराधों में बढ़ोत्तरी हुई. 2015 से पहले एक लंबे समय तक या तो हेट क्राइम्स की संख्या सपाट थी या घट रही थी.
हम इन बढ़ते आंकड़ों को कैसे समझ सकते हैं? क्यों कोई अश्वेत लोगों, या अप्रवासियों, या अलग सामाजिक वर्ग के लोगों से नफरत करने लगता है? क्या ऐसा है कि कुछ लोग पैदा ही पूर्वाग्रहों के साथ होते हैं और उसी तरह बड़े होते हैं? या यह मीडिया का प्रभाव है और डोनाल्ड ट्रंप जैसे एक अप्रवासी विरोधी राष्ट्रपति की बयानबाजी का?
ये सवाल अर्थशास्त्रियों और अन्य समाज विज्ञानियों को परेशान करते हैं. यह कहना अजीब है कि लोगों का नस्लवाद और पूर्वाग्रहों के प्रति स्वाभाविक झुकाव होता है, क्योंकि यह (बात) उनके इतिहास और सामाजिक संदर्भों की अनदेखी करना है. लेकिन यह कहना कि मीडिया ने लोगों का ब्रेनवॉश कर दिया है, उनकी बुद्धिमत्ता और कुछ कर सकने की क्षमता को कम आंकना होगा. उत्तर (इससे) ज्यादा जटिल है.
हालांकि लोगों की व्यक्तिगत प्राथमिकताएं होती हैं, ये ज्यादातर उन सामाजिक समूहों और उन परिस्थिति विशेष से निर्मित होती हैं, जिसमें वे खुद को पाते हैं. लोग अपने जैसे ही अन्य लोगों की ओर खिंचते हैं. इस तरह से एक समुदाय एक विचार विशेष के लिए एक तरह के प्रतिध्विन कक्ष (इको चैंबर- जिसमें एक ही ध्वनि गूंजती रहे) बन जाते हैं, जिसमें लोग बाहरी विचारों के संपर्क में आए बिना एक-दूसरे के विश्वासों को मजबूत बनाते रहते हैं.
इसका मतलब यह है कि ग्लोबल वॉर्मिंग जैसे वैज्ञानिक तथ्यों पर भी, लोगों की बेहद अलग-अलग राय होती है. जबकि 41% अमेरिकी कहते हैं कि ग्लोबल वॉर्मिंग मानव प्रदूषण के चलते होती है, इतने ही प्रतिशत लोग या तो यह नहीं मानते कि यह हो रही है या सोचते हैं कि यह एक प्राकृतिक घटना है. इन मान्यताओं को राजनीतिक धाराओं में विभाजित किया गया है: डेमोक्रेट्स ग्लोबल वॉर्मिंग में विश्वास की ओर झुकाव रखते हैं, जबकि रिपब्लिकन ऐसा नहीं करते.
यह इको चेम्बर में फेसबुक जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के जरिए शोर और बढ़ जाता है. जहां हम नेटवर्क के अन्य सदस्यों द्वारा शेयर की गई सामग्री को देखते हैं, जिससे हमारे पहले से ही माने जा रहे विचारों को और मजबूती मिलती है.
यदि हम मायने रखने वाले मुद्दों पर एक-दूसरे के साथ संवाद नहीं करते हैं, लोकतंत्र टूटना शुरू हो जाता है. हम केवल जीतने के लिए वैचारिक युद्ध लड़ते हुए बिखरी हुई जनजातियों में टूट जाते हैं.
यहां तक कि सबसे प्रभावी पूर्वाग्रह को भी बदला जा सकता है. लेकिन ऐसा होने के लिए हमें विभिन्न विचारों वाले विभिन्न प्रकार के लोगों के संपर्क में आने की आवश्यकता है. स्कूल और विश्वविद्यालय ऐसी विविध सामाजिक बातचीत के लिए महत्वपूर्ण जगहें हैं, जैसे अमीरों और गरीबों के मिले-जुले पड़ोस होते हैं.
केवल खुली चर्चा के माध्यम से हम अपने समाजों में आ गई कई दरारों को भरना शुरू कर सकते हैं.
GOOD AND BAD ECONOMICS
अर्थशास्त्रियों की साख खराब हुई है, लेकिन वे हमारे सामने आने वाले सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर प्रकाश डाल सकते हैं, जैसे कि आर्थिक असमानता और व्यापार के चलते होने वाले नौकरियों के नुकसान से कैसे निपटा जाए, जलवायु परिवर्तन से कैसे जूझें, और AI के विकास से प्रभावित कामगारों की मदद कैसे करें. इन मुद्दों के प्रभावी समाधान के लिए सरकारों की ओर से मजबूत हस्तक्षेप की जरूरत होगी. करों को बढ़ाकर और नए सामाजिक कार्यक्रम बनाकर जो कि गरीबों को वित्तीय सहायता और नौकरियों के अवसर दें, पूंजी को निष्पक्ष रूप से पुनर्वितरित किए जाने की जरूरत है. सबसे महत्वपूर्ण बात, हमें इस धारणा पर फिर से विचार करने की जरूरत है कि आर्थिक विकास से सभी को फायदा होगा, और धरती और इंसानों की सेहत के लिए चुकाई जा रही वास्तविक लागतों को भी देखना होगा.
किताब के बारे में-
इस किताब में दोनों लेखक तर्क करते हैं कि अर्थशास्त्र कई समस्याओं को लेकर नया दृष्टिकोण पेश कर उन्हें सुलझाने में हमारी मदद सकता है. चाहे वह जलवायु परिवर्तन का हल बिना गरीबों को नुकसान पहुंचाए हो, या बढ़ती हुए असमानता के चलते उभरने वाली सामाजिक समस्याओं से निपटना हो, या वैश्विक व्यापार, और प्रवासियों को लेकर फैलाया गया डर जैसे मुद्दे.
अभिजीत बनर्जी और एस्थर डुफ्लो ने 2019 में अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार डेलपलमेंट इकॉनमिक्स के क्षेत्र में अपने योगदान के लिए पाया. उनकी इससे पहले आई किताब 'पुअर इकॉनमिक्स' (Poor Economics- गरीब अर्थशास्त्र) एक शुरुआती खोज थी कि गरीबी क्या होती है और कैसे सबसे इससे जूझते समुदायों को सबसे प्रभावशाली तरीके से मदद पहुंचाई जाए. ये दोनों ही MIT में प्रोफेसर हैं और बहुत से अकादमिक सम्मान और पुरस्कार पा चुके हैं.
अनुवाद के बारे में-
भारतीय मूल के अर्थशास्त्री अभिजीत वी. बनर्जी और उनकी साथी एस्थर डुफ्लो की 2019 में उन्हें नोबेल मिलने के तुरंत बाद आई किताब गुड इकॉनमिक्स फॉर हार्ड टाइम्स (Good Economics for Hard Times) बहुत चर्चित रही. मैं इस किताब के प्रत्येक चैप्टर का संक्षिप्त अनुवाद पेश करने की कोशिश कर रहा हूं. अभिजीत के लिखे हुए को अनुवाद करने की मेरी इच्छा इस किताब के पहले चैप्टर को पढ़ने के बाद ही हुई. बता दूं कि इसके संक्षिप्त मुझे ब्लिंकिस्ट (Blinkist) नाम की एक ऐप पर मिले. बर्लिन, जर्मनी से संचालित इस ऐप का इसे संक्षिप्त रूप में उपलब्ध कराने के लिए आभार जताता हूं. अंग्रेजी में जिन्हें समस्या न हो वे इस ऐप पर अच्छी किताबों के संक्षिप्त पढ़ सकते हैं और उनका ऑडियो भी सुन सकते हैं. एक छोटी सी टीम के साथ काम करने वाली इस ऐप का इस्तेमाल मैं पिछले 2 सालों से लगातार कर रहा हूं और मुझे इससे बहुत फायदा मिला है. वैश्विक क्वारंटाइन के चलते विशेष ऑफर के तहत 25 अप्रैल तक आप इस पर उपलब्ध किसी भी किताब को पढ़-सुन सकते हैं. जिसके बाद से यह प्रतिदिन एक किताब ही मुफ्त में पढ़ने-सुनने को देगी.
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