Sunday, September 20, 2020

आवारा मसीहा: बहुत मेहनत से लिखी गई शरतचंद्र की जीवनी, जो आपकी पाठकीय क्षमता और नींद की परीक्षा लेती है

बांग्ला उपन्यासकार शरतचंद्र चटोपाध्याय की विष्णु प्रभाकर रचित जीवनी

विष्णु प्रभाकर (Vishnu Prabhakar) की लिखी हुई उपन्यासात्मक जीवनी 'आवारा मसीहा' (Awara Masiha) हिंदी साहित्य की ख्यात कृति है. इसका लगातार भारतीय छात्र/ छात्राओं के हिंदी प्रश्नपत्रों में बने रहना, पूर्वोक्त बात का प्रमाण है. यह पुस्तक बांग्ला के दिग्गज साहित्यकार शरतचंद्र चटोपाध्याय (Sarat Chandra Chattopadhyay) के बारे में विस्तार से जानकारी देती है.

इस किताब का लेखन जरूर बहुत श्रमसाध्य काम रहा होगा. दशकों तक विष्णु प्रभाकर इसके लिए रिसर्च में लगे रहे हैं. इस दौरान उन्होंने शरतचंद्र से अलग-अलग तरह से संबंध रखने वाले सैकड़ों लोगों का साक्षात्कार किया. शरतचंद्र के भागलपुर, कलकत्ता, रंगून और फिर सामता और कलकत्ता प्रवास के दौरान के जीवन को कई-कई सूत्रों से जानने और फिर उपलब्ध जानकारियों के सत्य का परीक्षण वे सालों तक बड़ी मेहनत से करते रहे. यह मेहनत किताब में प्रतिफलित भी होती है.

यह मेहनत ही है, जो विष्णु प्रभाकर से इस पुस्तक के शरतचंद्र के बारे में सबसे तथ्यपरक होने का दावा करवाती है. हालांकि किताब में पचास ऐसे मौके आते हैं, जब लेखक किसी वाकये का जिक्र करते हैं और फिर उसे खारिज करते हुए कहते हैं कि ऐसे कई अपवाद शरतचंद्र के बारे में प्रचलित हो गये थे. कई बार तो वे यह भी कहते हैं कि शरतचंद्र ने जानबूझकर ऐसे कई अपवाद अपने बारे में प्रचलित कर दिये थे.

बहरहाल शरतचंद्र के उत्तर काल के बारे में किताब जितनी तथ्यपरक है, उतनी उनके शुरुआती सालों के बारे में नहीं है. ऐसा जरूर उपलब्ध स्त्रोतों की गुणवत्ता के चलते हुआ होगा. वहीं इसलिए किताब की जरूर तारीफ की जानी चाहिए कि यह शरतचंद्र के बारे में हज़ारों किस्से सुनाती है, जिससे उनके जीवन में रुचि रखने वाला पाठक उनके व्यक्तित्व और लेखकीय गुणों के बारे में अपनी राय बना सके.

लेकिन एक समस्या भी इससे उत्पन्न हुई है. किताब में शरतचंद्र के बारे में ज्ञात-अज्ञात अधिकतम प्रकरणों को शामिल कर लेने के लेखक के मोह ने इसे कई जगहों पर बोझिल बना दिया है. इससे यह हुआ है कि किताब को पढ़ते हुए कई जगहों पर आपको यह भी लग सकता है कि यह किताब न सिर्फ आपकी पाठकीय क्षमता बल्कि नींद की परीक्षा भी ले रही है.

Thursday, August 20, 2020

FRIENDS: A Show that Has Some Flaws But Teaches a Lot to You Too

Friends Is One of The Most Watched Sitcoms in The World

I had been watching FRIENDS for almost one year. It was like a routine, like a custom for me. It is one kind of soap opera, in which you don't want to rush to the end, you enjoy the journey of it. You want to capture every moment of the lives of its characters. You relate to them. You laugh with them but there are lessons to learn too.


You do have a lot to learn from the characters of FRIENDS. They are so much original and true to themselves. They are knitted so simply that sometimes some can sound dumb or lame but it also gives some very good ideas about being innocent. They are innocent though passionate and loving. Many can argue that they are the true representation of the American Youths around two decades back but I must say that a lot of urban diaspora in the world can still relate with them.


It may seem that the characters of FRIENDS shy of taking big steps primarily but eventually they end up taking the most courageous steps for themselves, for their career and for their love. They know the value of the people around them. Though there is some fragileness in the early episodes considering relationships it gets improved over time.


I have some issues with the casting though. Over the course of the entire ten seasons, there is very little representation of BLACKs. There is no black main character in it. Though there are some powerful black side characters in the later seasons I should say that the show is mostly full of whites. There is a representation of the Jewish community, Gay community, and Italians as well but I should say that BLAKs are ignored compared to their original representation in the US.


Sometimes its characters crack some insensitive jokes about minority communities and at times it seems like a White peoples show but it includes many things over the course of time and tries to improve itself with these things. Though it has some issues that don't calculate so much that one can say that the show is not worth watching. It should be watched. When you watch it you know that it is made with a lot of love and a brilliant understanding of the urban youths' psyche. I loved it for a long time and now suggest it to those reading my review because as I said, It makes you more humane and teaches you some lessons you may find tough to decide in your normal lives.

Tuesday, July 14, 2020

Brave New World: सोचने-समझने की आजादी के बिना सबसे संपन्न दुनिया भी एक जेल से ज्यादा कुछ नहीं

Brave New World किताब के अलग-अलग दौर के कवर
आज दुनिया की तरक्की मापने के आधार क्या हैं? आर्थिक तरक्की, मानसिक शांति, स्थायी व्यवस्था, उन्नत टेक्नोलॉजी और अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं. लेकिन क्या आजादी के बिना इनका कोई मोल है? सही मायनों में आजादी, जिसमें सोचने के लिए/ कल्पना करने के लिए/ महत्वाकांक्षाएं रख सकने की सीमाएं अथाह हों. क्या उस सही मायनों वाली आजादी के बिना इन सभी आधुनिक पैमानों का कोई मूल्य है. इसी की पड़ताल करती है ब्रिटिश लेखक एल्डस हक्सले की किताब 'ब्रेव न्यू वर्ल्ड'.

हमारे आधुनिक राष्ट्र-राज्यों की महत्वाकांक्षा जिस दुनिया में पूरी हो चुकी है. जिस दुनिया में देशभक्तों की अपने देश को अभेद्य, सबसे ताकतवर, शक्तिशाली और स्थिर बनाने जैसी कल्पनाएं साकार हो चुकी हैं. राज्य ने अपने नागरिकों के जीन, सेक्सुएलिटी, विचारों और कल्याण के उपायों में इतनी स्थिरता ला दी है कि 'अगर ऐसा हुआ तो क्या करेंगे' जैसी छोटी-बड़ी सभी चिंताएं सुलझाई जा चुकी हैं. कोई डर, कोई असुरक्षा कहीं मौजूद नहीं है. कलाओं का नया उत्कर्ष है. सच्ची परफेक्टनेस अचीव हो चुकी है. गायन, वादन सहित कला का हर रूप, हर तरह से दोषहीन है. इसकी वजह यह है कि ये कलाएं गलतियों के पुतले मनुष्य के दिमाग की उपज न होकर बेहतरीन मशीनों/ रोबोट्स की उत्पाद हैं.

लेकिन ऐसी परफेक्ट दुनिया में भी एक आदमी के मन में थोड़ी सी असंतुष्टि और जिज्ञासा क्या पनपती है कि इस निष्कलंक दुनिया का संतुलन ही बिगड़ जाता है. लगभग खात्मे की कगार पर हमारे-आपके जैसे अपूर्ण इंसानों को इसी दुनिया के एक अलग हिस्से में म्यूजियम जैसी व्यवस्था में रखा गया है और हमपर असभ्यता का टैग लगा, प्रयोग किए जाते हैं. फिर ब्रेव न्यू वर्ल्ड के चंद असंतुष्ट शख्सों में से एक हम असभ्यों की खोज में रिसर्च का बहाना करके असभ्यों के म्यूजियम आता है और ब्रेव न्यू वर्ल्ड की ही एक पुरानी स्त्री जो कभी यहां आई थी और परिस्थितियोंवश यहीं फंस गई को खोज निकालता है. वह उसे और उसके बेटे को जब वह वापस लेकर जाता है तो न सिर्फ ब्रेव न्यू वर्ल्ड को बनाने में लगी अमानवीयता का पर्दाफाश हो जाता है बल्कि इसे चलाने वालों के धूर्त चेहरे भी सामने आ जाते हैं.

1932 में प्रकाशित इस उपन्यास में वर्तमान लक्षणों वाले लोकतंत्रों के चरित्र की गहन पड़ताल है. शक्तिशाली नेताओं के सामने किसी समाज के अपने विचारों, भावनाओं का समर्पण कर देने के बाद का राष्ट्र-राज्यों का स्वरूप है. मीडियोक्रिटी का चरमोत्कर्ष है और एक नशा है, जिसके बिना किसी व्यवस्था को अद्वितीय, सर्वश्रेष्ठ साबित करने का प्रयास मुमकिन नहीं हो सकता. कार्ल मार्क्स कुछ लोगों के लिए यह नशा धर्म को बताते थे, आजकल कहा जा रहा है कि झूठा राष्ट्रवाद नशा है, हो सकता है कहीं व्यापार प्रगति-आर्थिक उत्कर्ष ऐसा नशा हो. ब्रेव न्यू वर्ल्ड का संदेश है कि वह नशा कोई न कोई होता ही है, ब्रेव न्यू वर्ल्ड में यह नशा टेक्नोलॉजी और एक सीधे नशे 'सोमा' टेबलेट का है. जो किसी नागरिक को दुख का एहसास ही नहीं होने देती.

यह किताब 'ब्रेव न्यू वर्ल्ड' संदेश देती है कि चाहे जो हो लेकिन व्यक्ति और समाज में महत्वपूर्ण कौन के जवाब में अगर समाज कहा जाता रहेगा तो सरकारें निश्चय ही इसका फायदा उठायेंगीं. भला तभी होगा जब ऐसी कोई प्रतिस्पर्धा ही न हो और हर बात पर व्यक्ति या समाज को महत्वपूर्ण बताने के बजाए ऐसे समाज का निर्माण किया जाये, जिसमें व्यक्ति को तब तक हर तरह के व्यक्तिगत काम की आजादी हो, जब तक वह अन्य के लिए हानिकारक न हो.

Friday, July 10, 2020

HUSH: एक बेहतरीन हॉरर फिल्म है, जो डराती नहीं मजबूती देती है

फिल्म 'हश' (HUSH) का एक सीन...
2016 में रिलीज डायरेक्टर माइक फ्लैंगन की फिल्म हश की कहानी दो वाक्यों में यूं बताई जा सकती है- एक सूनसान इलाके में अकेले रहने वाली महिला के घर पर उसकी हत्या के इरादे से एक मास्क पहने आदमी हमला कर देता है. यह अज्ञात वहशी हत्यारा 'क्रॉसबो' (Crossbow- एक तरह का ऑटोमैटिक धनुष) से लैस है.

कहने को फिल्म की कहानी एमिटीविले हॉरर की घटना पर आधारित है. लेकिन फिल्म को सिर्फ एक हॉरर फिल्म की निगाह से देखने पर हो सकता है कि फिल्म की कुछ बारीक रीडिंग्स छूट जायें.

ध्यान देना होगा कि माइक फ्लैंगन की यह कोई पहली या आखिरी फिल्म नहीं है, जिसके केंद्र में एक महिला है. ऐसा उनकी ज्यादातर फिल्मों में है. सिर्फ महिला किरदार ही नहीं बल्कि महिला, वही भी अनोखे तरह की परिस्थितियों की शिकार. और माइक फ्लैंगन इन महिला किरदारों को रचने वाले जीनियस हैं.

हश एक नितांत अकेली महिला की कहानी है, जो गूंगी-बहरी है. प्रेम जीवन में भी असफल है. आस-पास के इलाके में वह सिर्फ एक महिला को जानती है. होता यूं है कि इस महिला का कत्ल भी उसे मारने आया हत्यारा, उसके पास ही कर देता है. और उसे सुन न पाने के चलते पता भी नहीं चलता. रात के अंधेरे में सुनसान जंगलों के बीच में अकेली रहती इस गूंगी-बहरी महिला का शिकार अब कितना आसान होगा?

इस पर ध्यान दें कि वह हत्यारा महिला को मारने नहीं आया है, उसका शिकार करने आया है. हत्या एक त्वरित क्रिया है, जिसमें एक झटके में इंसान मौत के घाट उतार दिया जाता है. कई बार हत्या की प्रक्रिया आवेश, गुस्से और बदले जैसी भावनाओं से प्रेरित होती है. लेकिन शिकार का एक मात्र उद्देश्य आनंद के लिए मारना होता है. शिकारी को धीरे-धीरे अपने शिकार को मारने से खुशी मिलती है. इस फिल्म में मौजूद हत्यारा वैसा ही है.

दरअसल यह एक हॉरर फिल्म के प्लॉट के साथ ही समाज के एक डरावने सच- पैट्रियार्की यानि पितृसत्ता का भी पोट्रेयल है. यह महिला जब तक घर में 'अकेली' है तभी तक सुरक्षित है. घर से जैसे ही वह बाहर कदम रखती है अनंत डरों से घिर जाती है. घर के बाहर भी वह तभी तक सुरक्षित है, जब तक वह प्लेटफॉर्म के नीचे छिपी हुई है, अज्ञात है. लेकिन हर समय शिकारी (पढ़ें पितृसत्ता) उसे खोज रहा है.

महिला जिस-जिस तरह से अपनी सहायता के लिए प्रयास करती है, चतुराई से उसे खत्म कर दिया जाता है. इसमें सबसे जरूरी है उसके बाहरी दुनिया से संपर्क के तरीकों को खत्म कर देना. इस शिकार में महिला को असहाय करना पहला और सबसे जरूरी कदम है. उसे चुप कराना प्राथमिकता है. उसकी सहायता में अगर कोई पुरुष भी खड़ा होता है, तो शिकारी (पितृसत्ता) उसे मिटा देती है. अगर ऐसा नहीं होता, तो फिल्म का नाम 'HUSH' क्यों होता.

महिला को लगातार चोट और मानसिक यंत्रणा देते हुए शिकारी (पैट्रियार्की) उसके दिमाग में यह स्थिति साफ कर देना चाहती है कि बाहर निकली तो मौत से उसे बचाया नहीं जा सकता है. महिला को खुद भी पता है कि लंबे समय के ट्रॉमा और चोटों ने उसे इस लायक छोड़ा ही नहीं है कि वह शिकारी (पैट्रियार्की) से अपनी जान बचा सके. ऐसे में उससे बचने का तरीका, उससे भागना कतई नहीं है. उससे बचने का तरीका सिर्फ उसका सामना करना है.

उत्साहित, मजबूत और अपने पुराने-घटिया शस्त्र (शस्त्र, जिन्हें शिकारी मानसिकता का पुरुष ही चला सकता है) से लैस शिकारी के मुकाबले, अपनी जान बचाती महिला का खुद पर विश्वास ही उसकी सबसे बड़ी ताकत और हथियार है.

(फिल्म नेटफ्लिक्स पर मौजूद है)

Tuesday, July 7, 2020

अखुनी: महानगर में नॉर्थ-ईस्ट के रहने वालों के संघर्ष को बारीकी से दिखाने वाली फिल्म

फिल्म 'अखुनी' का पोस्टर
फिल्म 'अखुनी' का पोस्टर

कुछ फिल्में इतनी ठोंक-बजाकर बनी होती हैं कि वे न सिर्फ दर्शकों के लिए बेहतरीन होती हैं बल्कि फिल्म के जानकारों को भी निराश नहीं करती. ऐसी ही एक फिल्म है नेटफ्लिक्स (Netflix) रिलीज 'अखुनी' (Axone). यह फिल्म एक नागा पकवान 'अखुनी' को केंद्र में रखकर नॉर्थ-ईस्ट के लोगों के दिल्ली जैसे महानगरों में संघर्ष और उससे जन्मे संक्रमण की दास्तान  सुनाती है. लेकिन जो बात दिल जीतती है, वह है इसकी परतें. अखुनी नॉर्थ-ईस्ट को लेकर मैदानी पूर्वाग्रहों, जैसे- सारे नॉर्थ-ईस्ट वाले एक जैसे ही होते हैं, खाने के नाम पर कुछ भी खा लेते हैं, लड़कियों की सेक्सुएलिटी, रीति-रिवाज आदि को लेकर न सिर्फ मुखर है बल्कि "हम सबकी शक्लें एक जैसी ही होती हैं तो तुम पहचानते कैसे हो कि रोज नया कोई आता है" जैसे संवादों से नस्लभेदी टिप्पणियों का मुंहतोड़ जवाब भी देती है.

फिल्म के एक सीन में कई सारे किरदार एक जगह इकट्ठे होकर अलग-अलग भाषाओं में अपने-अपने दोस्तों से बात करते हैं. आपस में किरदारों में ही अलग-अलग क्षेत्रों से आने के चलते भी भेदभाव देखने को मिलता है लेकिन फिर भी आसपास के इलाके से आने वाला भाव उन्हें दिल्ली जैसे अनजान शहर में एक-दूसरे के करीब रखता है. फिल्म की खासियत यह है कि ये बारीकियां भी उसने मिस नहीं की है यानि शॉवेनिज्म के बजाए फिल्म का फोकस यथार्थ को दर्शाने पर है. इसी क्रम में फिल्म की प्रमुख किरदारों में से एक अपने बॉयफ्रेंड से कहती है, "तुमने यहां पर भी अपना मिनी नागालैंड बना रखा है. तुमने और किसी से दोस्ती ही नहीं की."

उत्तर भारतीयों के साथ नॉर्थ-ईस्ट के लोगों का संवाद, लगातार बहिष्करण और भेदभाव झेलने से, वहां के कई प्रवासियों में पैदा हो जाने वाले मानसिक रोगों की चर्चा भी फिल्म में प्रमुखता से है. दिल्ली का लैंडलॉर्ड-लैंडलेडी कल्चर पहले से ही कम नहीं होता, और उसमें अगर नॉर्थ-ईस्ट से आने के चलते भेदभाव का तड़का भी लग जाये, तब तो हो गया करेला, नीम चढ़ा. कई छोटे-छोटे डिस्क्रिमिनेशन, स्टीरियोटाइप को फिल्म में बारीकी से दिखाने की कोशिश हुई है, आखिर ऐसा न होता तो बिना किसी संवाद के सिर्फ हुक्का गुड़गुड़ाते दिखने वाले आदिल हुसैन का फिल्म में क्या ही काम होता?

Saturday, July 4, 2020

कर्फ्यूड नाइट: एक लंबी काली सुरंग, जिसकी जमीन लाशों और खून से पटी हुई है

बशारत पीर की किताब कश्मीर में 1990 के दशक में आतंकवाद के उभार के बाद के ज्यादातर किस्से बताती है...
त्रासदी के किस्से सुनकर आगे बढ़ा जा सकता है. इस बात पर हामी भर फिर अपने काम में लगा जा सकता है कि फिलिस्तीन, सीरिया, या यमन में हालात बहुत खराब हैं. लेकिन अगर यह त्रासदी का डॉक्यूमेंटेशन एक मुकम्मल किताब की शक्ल में हमारे सामने हो और वह भी एक ऐसी काली डरावनी सुरंग की तरह, जिसमें लाशें ही लाशें पड़ी हैं और हमें कई दिनों के सफर में उससे होकर गुजरना है तो इस सुरंग का एक स्थायी प्रभाव दिमाग पर रह जाता है. ऐसा ही है बशारत पीर की किताब कर्फ्यूड नाइट को पढ़ने का अनुभव.

कश्मीर पर लिखी ज्यादातर किताबों में उसके इतिहास से जुड़ी बातें हैं. आतंकवाद के उभार के दौर का जिक्र है. वाजपेयी और अब्दुल्ला के किस्से हैं. मुफ्ती और अलगाववादियों की पॉलिटिक्स का जिक्र है. पाकिस्तान में लड़ाके बनने की ट्रेनिंग लेने जा रहे लड़कों का जिक्र है. भारतीय सेना और अर्धसैनिक बलों की लंबी तैनाती से आए सामाजिक परिवर्तनों का जिक्र है और गायब हुए-मारे गए कश्मीरियों के आंकड़ों का जिक्र है. लेकिन जिस तरह से कर्फ्यूड नाइट में कश्मीर में हुई मौतों के ये आंकड़े किस्से-कहानियों में बदलते हैं, कल्पनाशील पाठक केवल कश्मीर के माहौल की कल्पना कर सहम जाता है.

पहले एक संस्मरण और बाद में रिपोर्टिंग के तौर पर लिखी गई इस किताब में कश्मीर त्रासदी पर एक कश्मीरी का नजरिया उभर कर सामने आता है. यह भी पता चलता है कि जैसे अक्सर कश्मीर के हालात को बाकी देश कश्मीर समस्या कहकर पुकारता है और इस समस्या के समाधान की संभावनाएं तलाशता है या कम से कम कल्पना कर खुश होता है. वहीं कश्मीरी लेखक बशारत पीर इसे एक त्रासदी के तौर पर सामने रखते हैं, जिसमें समस्या जैसी कोई बात नहीं, जहां से वापसी संभव हो सके बल्कि बात है त्रासदी की, जिसमें जो बुरा होना था वह हो चुका है और अब वह कई पीढ़ियों पर अपना असर बनाए रखने वाला है.

किताब विस्तार से पाकिस्तान के रिमोट कंट्रोल से संचालित होने वाले कश्मीरी युवाओं, सेना की ज्यादतियों, सैनिकों-अर्धसैनिकों के रेप के अपराध, कश्मीरियों के निहित स्वार्थ के व्यवहार, कश्मीरियों के हित के नाम पर उन्हें खुद से और दूर करने की नीति आदि के बारे में खुलकर बात करती है. लेकिन एक सोचने वाली बात यह भी है कि ये सारे दिल दहलाने वाले किस्से, ये सारी ज्यादतियां सामने रखने, कहने की छूट उन्हें इसी देश में मिली. इतना ही नहीं किताब को पुरस्कृत भी किया गया. देश के बेहतरीन डायरेक्टर में से एक ने कश्मीर पर बनी अपनी फिल्म के लिए उससे प्रेरणा ली. और वह यहां की शिक्षा ही थी, जिसके बल पर दुनिया भर के बेहतरीन समाचार संस्थानों में काम करने और NYT में ओपिनियन एडिटर के तौर पर काम कर रहे हैं. त्रासदी के स्तर पर चीजों के खराब होने के बावजूद यह एक कश्मीरियों के दुख, उनकी पीड़ा का ख्याल और चिंता इस देश में अब भी है.

Friday, July 3, 2020

सुपर डीलक्स: बड़ी सफाई से 'गागर में सागर' भरने वाली फिल्म

त्यागराजन कुमारराजा की फिल्म सुपर डीलक्स (Super Deluxe) का एक पोस्टर

एक ही फिल्म में दर्शन, पॉर्न, सेक्सुएलिटी, सेक्स, मैरिज इंस्टीट्यूशन, पुलिस ब्रुटैलिटी, किशोरावस्था की भावनाएं, कई दिमागी स्थितियों की जटिलताओं और एक्सट्रा मैरिटल अफेयर्स सभी कुछ समेट लेना हो सकता है नामुमकिन हो या लगे कि ऐसा किया गया तो फिल्म की जगह एक त्रासद मजाक बनकर रह जायेगा लेकिन त्यागराजन कुमारराजा (Thiagarajan Kumararaja) की फिल्म सुपर डीलक्स (Super Deluxe) आपके इस भ्रम को तोड़ देगी. खासकर फिल्म तब और ज्यादा बड़ी हो जाती है, जब वह इन सारे मुद्दों से एक हल्के-फुल्के मूड में लेकिन बेहद संजीदगी से निपटती है.

हाल में पात्रों के इंडीविजुअली डेवलप होने और एक-दूसरे को इंटरसेक्ट करते हुए स्टोरी को आगे बढ़ाने के पैटर्न को आपने बहुत सी फिल्मों में देखा होगा. यह नए तरह की स्क्रिप्ट राइटिंग सॉफ्टवेयर्स के दौर में एक जरूरत बन चुका है. लेकिन ऐसा विरले दिखता है कि कहानी की शुरुआत या मध्य में किरदारों का ये इंटरसेक्शन न होकर कहानी को खत्म करने के लिए चक्रीय क्रम में किरदार एक दूसरे को इंटरसेक्ट करें और इसके साथ ही न सिर्फ फिल्म कंन्क्लूड हो जाये बल्कि उससे एक वृहत्तर अर्थ भी निकलकर सामने आए. जैसे धर्मवीर भारती के सूरज का सातवां घोड़ा उपन्यास में होता है.