बांग्ला उपन्यासकार शरतचंद्र चटोपाध्याय की विष्णु प्रभाकर रचित जीवनी |
विष्णु प्रभाकर (Vishnu Prabhakar) की लिखी हुई उपन्यासात्मक जीवनी 'आवारा मसीहा' (Awara Masiha) हिंदी साहित्य की ख्यात कृति है. इसका लगातार भारतीय छात्र/ छात्राओं के हिंदी प्रश्नपत्रों में बने रहना, पूर्वोक्त बात का प्रमाण है. यह पुस्तक बांग्ला के दिग्गज साहित्यकार शरतचंद्र चटोपाध्याय (Sarat Chandra Chattopadhyay) के बारे में विस्तार से जानकारी देती है.
इस किताब का लेखन जरूर बहुत श्रमसाध्य काम रहा होगा. दशकों तक विष्णु प्रभाकर इसके लिए रिसर्च में लगे रहे हैं. इस दौरान उन्होंने शरतचंद्र से अलग-अलग तरह से संबंध रखने वाले सैकड़ों लोगों का साक्षात्कार किया. शरतचंद्र के भागलपुर, कलकत्ता, रंगून और फिर सामता और कलकत्ता प्रवास के दौरान के जीवन को कई-कई सूत्रों से जानने और फिर उपलब्ध जानकारियों के सत्य का परीक्षण वे सालों तक बड़ी मेहनत से करते रहे. यह मेहनत किताब में प्रतिफलित भी होती है.
यह मेहनत ही है, जो विष्णु प्रभाकर से इस पुस्तक के शरतचंद्र के बारे में सबसे तथ्यपरक होने का दावा करवाती है. हालांकि किताब में पचास ऐसे मौके आते हैं, जब लेखक किसी वाकये का जिक्र करते हैं और फिर उसे खारिज करते हुए कहते हैं कि ऐसे कई अपवाद शरतचंद्र के बारे में प्रचलित हो गये थे. कई बार तो वे यह भी कहते हैं कि शरतचंद्र ने जानबूझकर ऐसे कई अपवाद अपने बारे में प्रचलित कर दिये थे.
बहरहाल शरतचंद्र के उत्तर काल के बारे में किताब जितनी तथ्यपरक है, उतनी उनके शुरुआती सालों के बारे में नहीं है. ऐसा जरूर उपलब्ध स्त्रोतों की गुणवत्ता के चलते हुआ होगा. वहीं इसलिए किताब की जरूर तारीफ की जानी चाहिए कि यह शरतचंद्र के बारे में हज़ारों किस्से सुनाती है, जिससे उनके जीवन में रुचि रखने वाला पाठक उनके व्यक्तित्व और लेखकीय गुणों के बारे में अपनी राय बना सके.
लेकिन एक समस्या भी इससे उत्पन्न हुई है. किताब में शरतचंद्र के बारे में ज्ञात-अज्ञात अधिकतम प्रकरणों को शामिल कर लेने के लेखक के मोह ने इसे कई जगहों पर बोझिल बना दिया है. इससे यह हुआ है कि किताब को पढ़ते हुए कई जगहों पर आपको यह भी लग सकता है कि यह किताब न सिर्फ आपकी पाठकीय क्षमता बल्कि नींद की परीक्षा भी ले रही है.