अफ्रीकी-एशियाई बुद्धिजीवियों ने यूरोपीय विचारों और औपनिवेशिक अनुभवों से सीख अपने स्वतंत्र देश का निर्माण किया |
अफ्रीकी-एशियाई बुद्धिजीवी अपने स्वतंत्र राष्ट्र बनाने के लिए यूरोपीय विचारों और औपनिवेशिक शासन के अपने अनुभवों पर आगे बढ़े
प्रथम विश्व युद्ध ने यूरोप के बहुराष्ट्रीय साम्राज्यों को मार दिया. 1922 तक, ऑस्ट्रो-हंगेरियन, रूसी और ऑटोमन साम्राज्य खत्म हो चुके थे. महाद्वीप पर, उन्हें नए स्वतंत्र राष्ट्रों ने प्रतिस्थापित कर दिया था. लीग ऑफ नेशंस, एक ऐसा संगठन, जिसने इस तरह के राष्ट्रों को नये अंतरराष्ट्रीय मानदंड के तौर पर देखा, अब राजनयिक संबंधों की जिम्मेदारी ले चुका था, जिसे पहले साम्राज्यवादी नौकरशाही संभाला करती थी. हालांकि इसमें गैर-यूरोपीय दुनिया शामिल नहीं थी. राष्ट्रवाद के युग में यूरोपीय साम्राज्यों के उपनिवेशों का क्या होगा?इसका कोई उत्तर सामने आने में देर नहीं लगी.
इस अंक का मुख्य उद्देश्य है- अफ्रीका और एशियाई बुद्धिजीवी अपने स्वतंत्र राष्ट्र बनाने के लिए यूरोपीय विचारों और औपनिवेशिक शासन के अपने अनुभवों पर आगे बढ़े.
तीन कारकों ने औपनिवेशिक दुनिया में एशियाई और अफ्रीकी लोगों की अपने भविष्य के राष्ट्र की कल्पना करने में मदद की.
पहली थी तकनीक. 1850 से लेकर बीसवीं शताब्दी की शुरुआत के बीच परिवहन और संचार में जबरदस्त तरक्की हुई. टेलीग्राफ केबल ने विचारों को पलक झपकते महानगरों से दूर-दराज के इलाकों तक पहुंचने की क्षमता दी और नए स्टीमशिप और रेलवे ने भौतिक रूप में सामान या मनुष्यों के एक से दूसरी जगह आने-जाने में अभूतपूर्व वृद्धि की. इसके बाद, इससे एशियाई और अफ्रीकी लोगों को, यूरोप की शाही राजधानियों में औपनिवेशिक तीर्थयात्रा की अनुमति मिल गई. यहां पर उनके दिमाग में क्रांतिकारी राजनीतिक विचारों को चुना, अन्य उपनिवेशों के अपने समकक्षों से मिले, और राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए किए गए यूरोपीय संघर्ष के बारे में जाना.
दूसरे, उपनिवेशों में शिक्षा प्रणाली अक्सर अत्यधिक केंद्रीकृत होती थी. उदाहरण के तौर पर डच ईस्ट इंडीज में, हजारों एक-दूसरे से अलग द्वीपों के छात्रों को एक जैसी पाठ्य-पुस्तकों से एक जैसी चीजें सीखने को मिलीं. जब वे इस प्रणाली के जरिए आगे बढ़े, तो उन्हें संख्या में बहुत कम स्कूलों में से एक में डाला गया, वे तब तक इस प्रक्रिया में रहे, जब तक वे इन दो शहरों- बटाविया, जो आज का जकार्ता है और बांडुंग नहीं पहुंच गए, जहां विश्वविद्यालय थे. इस अनुभव ने इन युवा इंडोनेशियाई लोगों के दिमाग में एक विचार को मजबूत किया कि जिस द्वीपसमूह में वे रह रहे थे, वह एक एकीकृत क्षेत्र था, भले ही इसके निवासियों में विविधता थी.
आखिरकार, यूरोपीय नस्लवाद ने भी इस विचार को और मजबूत किया कि एक क्षेत्र विशेष में रहने वाली औपनिवेशिक प्रजा एक-दूसरे का हमवतन होने के विचार को मजबूत किया. क्योंकि औपनिवेशिक अधिकारियों ने शायद ही कभी अलग-अलग भारतीय या इंडोनेशियाई समूहों के बीच अंतर करने की जहमत उठाई, और इसके बजाए सभी के साथ तिरस्कृत मूल निवासी जैसा व्यवहार किया. जिसके बाद इस प्रजा ने अक्सर खुद को एक सामूहिक जिसे 'भारत' या 'इंडोनेशिया' कहते हैं, के सदस्यों के तौर पर देखा.
इन कारकों ने साथ मिलकर एक नया वर्ग तैयार किया- दो भाषाएं बोलने वाला और पश्चिम शिक्षा पाया बुद्धिजीवी वर्ग. इसके अंतर्गत आने वाले यूरोपीय राष्ट्रवाद के इतिहास में पारंगत थे और उपनिवेश को, मौलिक खासियतें साझा करने वाले लोगों द्वारा बसाए सुसंगत इलाके के तौर पर देखते थे.
यह वही वर्ग था, जिसने आगे चलकर द्वितीय विश्व युद्ध से 1970 के दशक तक एक-दूसरे से बहुत अलग देशों अंगोला, मिस्र और वियतनाम की स्वतंत्रता का नेतृत्व किया.
राष्ट्रवाद, सीमित समुदायों के तौर पर राष्ट्र की कल्पना करता है, जिसमें समान हित और लक्षण, और सबसे जरूरी तौर पर भाषा साझा करने वाले लोग रहते हैं. यह एक राजनीतिक विचारधारा नहीं है, बल्कि यह धार्मिक विश्वासों जैसी एक सांस्कृतिक प्रणआली है, जो एक आकस्मिक दुनिया में निरंतरता की भावना प्रदान करती है. राष्ट्रवाद शुरू में 'प्रिंट पूंजीवाद' का बाईप्रॉडक्ट था. जैसे किताब बेचने वालों ने नए बाजार खोजे, उन्होंने लैटिन जैसी पवित्र भाषाओं को छोड़ दिया और जर्मन जैसी क्षेत्रीय भाषाओं का इस्तेमाल किया. इसने पाठक समूहों को क्षेत्र विशेष में रहने वाले, साझा हितों वाले एक समुदाय के तौर पर खुद के बारे में कल्पना करने की अनुमति दी. क्षेत्रीय भाषाओं के मानकीकरण और समाचार पत्रों के उभार ने इस साझे राष्ट्रीय हित के विचार को मजबूत किया, अंतत: यूरोप और व्यापक रूस से दुनिया में बहुराष्ट्रीय साम्राज्य होते गए.
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किताब के बारे में-
काल्पनिक समुदाय की अवधारणा को बेनेडिक्ट एंडरसन ने 1983 मे आई अपनी किताब 'काल्पनिक समुदाय' (Imagined Communities) में राष्ट्रवाद का विश्लेषण करने के लिए विकसित किया था. एंडरसन ने राष्ट्र को सामाजिक रूप से बने एक समुदाय के तौर पर दिखाया है, जिसकी कल्पना लोग उस समुदाय का हिस्सा होकर करते हैं. एंडरसन कहते हैं गांव से बड़ी कोई भी संरचना अपने आप में एक काल्पनिक समुदाय ही है क्योंकि ज्यादातर लोग, उस बड़े समुदाय में रहने वाले ज्यादातर लोगों को नहीं जानते फिर भी उनमें एकजुटता और समभाव होता है.अनुवाद के बारे में-
बेनेडिक्ट एंडरसन के विचारों में मेरी रुचि ग्रेजुएशन के दिनों से थी. बाद के दिनों में इस किताब को और उनके अन्य विचारों को पढ़ते हुए यह और गहरी हुई. इस किताब को अनुवाद करने के पीछे मकसद यह है कि हिंदी माध्यम के समाज विज्ञान के छात्र और अन्य रुचि रखने वाले इसके जरिए एंडरसन के कुछ प्रमुख विचारों को जानें और इससे लाभ ले सकें. इसलिए आप उनके साथ इसे शेयर कर सकते हैं, जिन्हें इसकी जरूरत है.
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