नाटक का नाम था नेकेड वॉयसेस. और इसका मंचन होना था राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में. मुझे बड़ी उत्सुकता थी. उत्सुकता के बहुत से कारण थे. जैसे कि किसी भी साधारण से साधारण बात के होते हैं. पहला कारण ये था कि ये नाटक मंटो की कहानियों का नाट्य रूपांतरण था. मंटो जिसकी कहानियों में आकर्षित करने वाली सारी चीजें होती हैं. और कई दफे वो सहवास का सुख देने वाली कहानियां स्खलन जैसा प्रभाव मन में छोड़ दफा हो जाती हैं. ऐसी सारी बातें लेखकीय पक्ष के रूप पर मेरे मन में आ रही थीं.
पर एक साधारण दर्शक के तौर पर देखूं तो मेरे मन में ये बात भी चल रही थी कि किस-किस कहानी को इस प्रस्तुति में शामिल किया जाएगा. क्या उसमें जितनी कहानियां होगीं उनमें से कोई मैंने पढ़ भी रखी होगी? साथ ही कुछ टेक्निकल चीजों से भी दिमाग जूझ रहा था कि ये नाट्य प्रस्तुति कितने देर की होगी? बार- बार मन को लगता था कि दो घंटे की तो होनी ही चाहिए. अच्छा मान लिया कि दो घंटे की ही रही होगी तो दो घंटे में कितनी कहानियां आसानी से दिखाई जा सकती हैं? 4 या 5. पर कई बार मंटो की कहानियां बहुत छोटी-छोटी भी होती हैं. जिनका मंचन आराम से 10 से 15 मिनट में भी किया जा सकता है. अगर प्रस्तुति में ऐसी कहानियां भी शामिल की गईं तब तो 10 कहानियां भी दिखाई जा सकती हैं.
इसी पर याद आया अरे मैंने मंटो का एक नाटक टोबा टेक सिंह पहले भी तो देखा है. जो कि एक औसत मंचन था. या इसका मंचन उन अभिनेताओं के लिए सीमित प्रैक्टिस पर कर पाना बस के बाहर की बात थी. बिहार की एक नाटक मंडली ने इसका मंचन किया था. जिसके सभी एक्टर मजदूर थे. और खाली वक्त में ही प्रैक्टिस करते थे. जहां मंचन हुआ वो जगह थी शायद श्री राम सेंटर या कमानी सभागार.
खैर मंटो की कहानियों पर होने वाले इस नाटक पर लौट कर आते हैं. नाटक का नाम था नेकेड वायसेस. माने नंगी आवाजें. नंगी का मतलब तो जैसी की तैसी होना चाहिए. पर इसके मौजूदा प्रयोग में थोड़ा सा ऑक्वर्ड करने वाला टोन क्यों आता है? जबकि होना ये चाहिए कि नंगी को असली और शुद्ध का पर्याय हो जाना चाहिए.
खैर मंटो के नाटक के कुछ और पहलुओं पर भी मेरा ध्यान था. जैसे की ये नाटक NSD के किस सभागार में खेला जाएगा? ये प्रश्न कुछ ज्यादा ही महत्वपूर्ण था क्योंकि इस प्रश्न के उत्तर पर ही निर्भर करता था कि मैं इस नाटक को देख पाऊंगा या नहीं. जब तक मैं NSD नहीं पहुंचा था तब तक अपने मन को ये दिलासा देकर शांत किए हुए था कि जरूर ये नाटक अभिमंच में होगा और मुझे क्या, सभी को आराम से बैठकर नाटक देखने की जगह मिल जाएगी. ये भी मन में एक आध बार आया था कि हो सकता है नाटक ओपन थिएटर में हो. पर ये सारा अनुमान मेरा खुद को दिया गया दिलासा भर था. सब सोची बातें धोखा निकलीं और ये जानकर मुझे अथाह दुख हुआ कि नाटक का मंचन बहुमुख में है. जहां बैठने को मात्र 40 सीटे हैं. सभागार का नाम बहुमुख है. यानी की यहां पर जो मंचन होगा वो ऐसा होगा जिसे कई तरफ से देखा जा सकेगा. यानी ये एक ऐसा मंच होगा जो बीच में होगा और दर्शक मंच को कई तरफ से घेरकर बैठेंगे.
अब नाटक के पात्रों पर आते हैं तो जाहिर सी बात है मंटो की लगभग सारी कहानियों की तरह मंटो की कहानियों के पात्र असामान्य होंगे और एक विशेष प्रकार की आदत या तौर-तरीके के शिकार होंगे. मंटो की ढ़ेर सारी कहानियां ऐसे में मेरे दिमाग में घूम रही हैं. और मेरा दिमाग 'खोल दो' पर आकर विश्राम लेता है. खोल दो पर दिमाग ठहर जाने का कारण भी है. क्योंकि इस कहानी के ऊपर आधारित विजुअल्स भी मैंने देखे हैं. पर मैंने तो टोबा टेक सिंह के भी विजुअल्स देखे हैं तब मेरा दिमाग खोल दो पर ज्यादा क्यों अटक रहा है? मुझे लगता है कि इसका कारण है दोनों को अलग-अलग माध्यम में देखने का फर्क. चू्ंकि दोनों को ही मैंने थोड़े से ही वक्त के फासले पर देखा था. मैंने खोल दो के विजुअल्स एक बांग्ला फिल्म राजकाहिनी में देखे थे इसी से मुझे याद हैं.
जो मेरे दिमाग में फिल्म के सीन और एक नाटक को लेकर अवधारणा है वो कुछ यूं है कि एक नाटक एक योग्य दर्शक के तत्व के लिए ज्यादा मुफीद होता है. कारण ये है कि आपकी नजर मंच पर भटकती रहती है. आप अपनी योग्यता के हिसाब से नाटक से ग्रहण कर रहे होते हैं. जबकि फिल्मों में ऐसा नहीं होता. फिल्मों में कैमरा हमें जो दिखाना चाहता है हम वही देखते हैं. यानी की अगर कैमरामैन चाहता है कि हम नायिका के अंग ही देखें तो वो एक क्लोज शॉट ले सकता है. पर यही मंशा किसी नाटक को निर्देशित करने वाले की हो तो उसे अंग विशेष में परिस्थतियों, संवादों और अंग विशेष में किसी स्पेशल इफेक्ट के जरिए ये प्रभाव पैदा करना होगा. पर फिर भी अक्सर आप पायेंगे कि कैमरे के जरिए ड़ाले गए विजुअल्स सीधे से देखे गए विजुअल्स के मुकाबले लांग लास्टिंग होते हैं. उसके भी बहुत से कारण हैं जो आप खुद ही सोचें पर अब मैं आगे लिखूंगा तो बोर होना शुरू हो जाऊंगा. तो आप पढ़कर भी बोर ही होंगे. इसलिए बाकी की बातें कभी और अभी बस इतना ही -
जॉन स्नो, यू नो नथिंग!
पर एक साधारण दर्शक के तौर पर देखूं तो मेरे मन में ये बात भी चल रही थी कि किस-किस कहानी को इस प्रस्तुति में शामिल किया जाएगा. क्या उसमें जितनी कहानियां होगीं उनमें से कोई मैंने पढ़ भी रखी होगी? साथ ही कुछ टेक्निकल चीजों से भी दिमाग जूझ रहा था कि ये नाट्य प्रस्तुति कितने देर की होगी? बार- बार मन को लगता था कि दो घंटे की तो होनी ही चाहिए. अच्छा मान लिया कि दो घंटे की ही रही होगी तो दो घंटे में कितनी कहानियां आसानी से दिखाई जा सकती हैं? 4 या 5. पर कई बार मंटो की कहानियां बहुत छोटी-छोटी भी होती हैं. जिनका मंचन आराम से 10 से 15 मिनट में भी किया जा सकता है. अगर प्रस्तुति में ऐसी कहानियां भी शामिल की गईं तब तो 10 कहानियां भी दिखाई जा सकती हैं.
इसी पर याद आया अरे मैंने मंटो का एक नाटक टोबा टेक सिंह पहले भी तो देखा है. जो कि एक औसत मंचन था. या इसका मंचन उन अभिनेताओं के लिए सीमित प्रैक्टिस पर कर पाना बस के बाहर की बात थी. बिहार की एक नाटक मंडली ने इसका मंचन किया था. जिसके सभी एक्टर मजदूर थे. और खाली वक्त में ही प्रैक्टिस करते थे. जहां मंचन हुआ वो जगह थी शायद श्री राम सेंटर या कमानी सभागार.
खैर मंटो की कहानियों पर होने वाले इस नाटक पर लौट कर आते हैं. नाटक का नाम था नेकेड वायसेस. माने नंगी आवाजें. नंगी का मतलब तो जैसी की तैसी होना चाहिए. पर इसके मौजूदा प्रयोग में थोड़ा सा ऑक्वर्ड करने वाला टोन क्यों आता है? जबकि होना ये चाहिए कि नंगी को असली और शुद्ध का पर्याय हो जाना चाहिए.
खैर मंटो के नाटक के कुछ और पहलुओं पर भी मेरा ध्यान था. जैसे की ये नाटक NSD के किस सभागार में खेला जाएगा? ये प्रश्न कुछ ज्यादा ही महत्वपूर्ण था क्योंकि इस प्रश्न के उत्तर पर ही निर्भर करता था कि मैं इस नाटक को देख पाऊंगा या नहीं. जब तक मैं NSD नहीं पहुंचा था तब तक अपने मन को ये दिलासा देकर शांत किए हुए था कि जरूर ये नाटक अभिमंच में होगा और मुझे क्या, सभी को आराम से बैठकर नाटक देखने की जगह मिल जाएगी. ये भी मन में एक आध बार आया था कि हो सकता है नाटक ओपन थिएटर में हो. पर ये सारा अनुमान मेरा खुद को दिया गया दिलासा भर था. सब सोची बातें धोखा निकलीं और ये जानकर मुझे अथाह दुख हुआ कि नाटक का मंचन बहुमुख में है. जहां बैठने को मात्र 40 सीटे हैं. सभागार का नाम बहुमुख है. यानी की यहां पर जो मंचन होगा वो ऐसा होगा जिसे कई तरफ से देखा जा सकेगा. यानी ये एक ऐसा मंच होगा जो बीच में होगा और दर्शक मंच को कई तरफ से घेरकर बैठेंगे.
अब नाटक के पात्रों पर आते हैं तो जाहिर सी बात है मंटो की लगभग सारी कहानियों की तरह मंटो की कहानियों के पात्र असामान्य होंगे और एक विशेष प्रकार की आदत या तौर-तरीके के शिकार होंगे. मंटो की ढ़ेर सारी कहानियां ऐसे में मेरे दिमाग में घूम रही हैं. और मेरा दिमाग 'खोल दो' पर आकर विश्राम लेता है. खोल दो पर दिमाग ठहर जाने का कारण भी है. क्योंकि इस कहानी के ऊपर आधारित विजुअल्स भी मैंने देखे हैं. पर मैंने तो टोबा टेक सिंह के भी विजुअल्स देखे हैं तब मेरा दिमाग खोल दो पर ज्यादा क्यों अटक रहा है? मुझे लगता है कि इसका कारण है दोनों को अलग-अलग माध्यम में देखने का फर्क. चू्ंकि दोनों को ही मैंने थोड़े से ही वक्त के फासले पर देखा था. मैंने खोल दो के विजुअल्स एक बांग्ला फिल्म राजकाहिनी में देखे थे इसी से मुझे याद हैं.
जो मेरे दिमाग में फिल्म के सीन और एक नाटक को लेकर अवधारणा है वो कुछ यूं है कि एक नाटक एक योग्य दर्शक के तत्व के लिए ज्यादा मुफीद होता है. कारण ये है कि आपकी नजर मंच पर भटकती रहती है. आप अपनी योग्यता के हिसाब से नाटक से ग्रहण कर रहे होते हैं. जबकि फिल्मों में ऐसा नहीं होता. फिल्मों में कैमरा हमें जो दिखाना चाहता है हम वही देखते हैं. यानी की अगर कैमरामैन चाहता है कि हम नायिका के अंग ही देखें तो वो एक क्लोज शॉट ले सकता है. पर यही मंशा किसी नाटक को निर्देशित करने वाले की हो तो उसे अंग विशेष में परिस्थतियों, संवादों और अंग विशेष में किसी स्पेशल इफेक्ट के जरिए ये प्रभाव पैदा करना होगा. पर फिर भी अक्सर आप पायेंगे कि कैमरे के जरिए ड़ाले गए विजुअल्स सीधे से देखे गए विजुअल्स के मुकाबले लांग लास्टिंग होते हैं. उसके भी बहुत से कारण हैं जो आप खुद ही सोचें पर अब मैं आगे लिखूंगा तो बोर होना शुरू हो जाऊंगा. तो आप पढ़कर भी बोर ही होंगे. इसलिए बाकी की बातें कभी और अभी बस इतना ही -
जॉन स्नो, यू नो नथिंग!
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