मुस्तकबिल से मुख़्तसर सी मुलाकात!
पिछली बार ऐसे किसी इंसान से लगभग इतने ही वक्त के लिए मिला था तो दो दिन तक उसी के लहजे में बोलता रहा था. अब शायद तितली के पंख के रंग पक्के हो चले हैं. उतने उंगलियों पर नहीं रह जाते. मेरी उंगलियां भी शायद ज्यादा ही समझदार हो गई हैं जो पंखों के रंग में रंगने से खुद को बचा लेती हैं. पर मैं जानता हूं कि ये वही इंसान है और बार-बार भेस बदल मेरे पास आता है. मैं उसके तिलिस्म पर माइल रहा हूं और रहूंगा. वो इंसान है ये बात खूबसूरत है और उसके बार-बार देवता होने के प्रयास मेरा मनोरंजन करते हैं. मुझे इसी प्रयास से प्यार है.
मां अक्सर कहती हैं, ऐसे बनो की तुम्हें कोई कह ना सके. महानगरों के असर ने मुझे ऐसा नहीं रहने दिया. महानगरों ने सिखाया, ऐसे बनो कि कोई कुछ भी कहे तुम्हें असर ना पड़े. ऐसे कि जो तुम्हें सही लगता हो, वही सच हो. पर अचानक से उस इंसान में मुझे अपना भविष्य दिखने लगता है. कल भी उसकी जिम्मेदारी मुझे भाती थी. तब भी जब मैं जानता था जिम्मेदारी के बोझ से दबा वो देवता इच्छाओं को दमित करते हुए कष्ट से कराह उठता है. मैंने खुद के लिए हमेशा से ही बेपरवाही और गैरजिम्मेदारी चुनी. मैं खुश रहा. बात नहीं बनी तो तेजी से उसे भुला कर आगे चल दिया. यहां तक कि पीछे भी मुड़कर नहीं देखा. पर जाने क्यों मुझे रश्क़ होता है उनसे, जिनकी मां ने कहा ऐसे मत बनो कि तुम्हें कोई कुछ कह सके और उन्होंने मान जीवन भर वो सीख खुशी-खुशी निभाई.
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